मानस के राम
भाग 56 (अंतिम)
हनुमान का ब्राह्मण रूप में भरत के पास जाना
पुष्पक विमान से सभी लोग भारद्वाज मुनि के आश्रम में पहुँच गए। राम ने हनुमान से कहा,
"पवनपुत्र हम भारद्वाज मुनि के आश्रम में जाएंगे। उसके बाद मैं अपने मित्र निषादराज गुह से भेंट करूँगा। सीता को वहाँ मांँ गंगा की पूजा करनी है। तुम यहांँ से सीधे नंदीग्राम जाकर भरत से मिलो। परंतु सीधे जाकर उसे मेरी वापसी का समाचार मत बताना। तुम ब्राह्मण का वेष बनाकर जाओ। पहले सारी परिस्थिति का आंकलन कर भूमिका बनाना। उसके बाद अपने वास्तविक रूप में आकर भरत को हमारे अयोध्या लौटने का समाचार देना। एकदम से खुशी का समाचार देना कई बार घातक होता है।"
हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा,
"आप चिंता ना करें प्रभु। मैं बहुत सोच समझकर यह शुभ समाचार उन्हें सुनाऊँगा।"
हनुमान राम की आज्ञा से नंदीग्राम चले गए।
राम लक्ष्मण और सीता बाकी सभी के साथ भारद्वाज मुनि के आश्रम में गए। आश्रम में प्रवेश करने से पहले सबने अपने शस्त्र बाहर ही छोड़ दिए। सबने जाकर भारद्वाज मुनि को प्रणाम किया। मुनि ने सबका यथोचित सत्कार किया।
भारद्वाज मुनि के आश्रम से राम अपने मित्र निषादराज गुह से मिलने गए। यह समाचार मिलते ही निषादराज गुह दौड़कर राम से भेंट करने पहुँचे। राम ने उन्हें गले से लगाकर कुशलक्षेम पूँछी। निषादराज गुह ने हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से कहा,
"आपने अपना वादा पूरा किया। जब हमें समाचार मिला कि आप विमान में बैठकर आकाश मार्ग से अयोध्या लौट रहे हैं तो हम परेशान हो गए थे कि शायद अब आप हमसे भेंट नहीं करेंगे।"
राम ने कहा,
"ऐसा कैसे हो सकता था कि मैं मित्र को दिया गया वचन तोड़ दूँ। यह विमान तो लंका नरेश विभीषण ने हमारी सहायता के लिए दिया है।"
राम ने सुग्रीव तथा विभीषण से निषादराज गुह की भेंट कराई। उसके बाद लक्ष्मण और सीता ने उनसे भेंट की।
सीता ने गंगा माँ की पूजा करने की अपनी इच्छा पूरी की।
हनुमान ब्राह्मण का वेष बनाकर नंदीग्राम पहुँचे। उन्होंने द्वार पर खड़े पहरेदारों से कहा कि वह भरत से मिलना चाहते हैं। पर पहरेदारों ने कहा कि महाराज अभी नहीं मिल सकते हैं। हनुमान ने कहा कि उन्हें एक बहुत ही आवश्यक कार्य के लिए महाराज भरत से मिलना है। उनके हठ करने पर पहरेदारों ने बताया कि महाराज भरत अपनी कुटिया में गुरुदेव वशिष्ठ के साथ कुछ आवश्यक वार्ता कर रहे हैं।
कुटिया के भीतर महर्षि वशिष्ठ भरत को समझा रहे थे कि उनका चिता में प्रवेश करने का फैसला उचित नहीं है। भरत अपना तर्क दे रहे थे कि उन्होंने वचन दिया है कि यदि राम सही समय पर अयोध्या नहीं लौटे तो वह चिता में प्रवेश कर अपने प्राण त्याग देंगे। उन्होंने अपने गुप्तचरों को पता करने भेजा है पर किसी ने भी यह समाचार नहीं सुनाया कि राम अयोध्या आ रहे हैं। अतः वह राम के लौटने तक अयोध्या का भार उन्हें सौंपकर अपना प्रण पूरा करना चाहते हैं।
हनुमान ने पहरेदारों को मनाकर कुटिया में प्रवेश किया। उस समय महर्षि वशिष्ठ भरत से कह रहे थे,
"भरत वीर और ज्ञानी पुरुष को निराशा का व्यवहार नहीं करना चाहिए। जब तक समय है उम्मीद नहीं त्यागनी चाहिए। इसलिए जब तक वनवास की अवधि का एक क्षण भी बचा है तब तक चिता में प्रवेश का विचार भी ह्रदय में नहीं लाना चाहिए।"
ब्रह्मण वेष में हनुमान ने महर्षि वशिष्ठ को प्रणाम करके कहा,
"गुरुदेव उचित कह रहे हैं भरत जी। आपको निराश होने की आवश्यकता नहीं है।"
भरत ने आश्चर्य से कहा,
"ब्राह्मण देव आप कौन हैं ?"
"मैं आपके लिए एक शुभ समाचार लाया हूँ। श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण और माता सीता के साथ अयोध्या लौट रहे हैं। वह भारद्वाज मुनि के आश्रम तक पहुँच चुके हैं। वनवास की अवधि समाप्त होने पर अयोध्या लौट आएंगे।"
यह समाचार सुनकर भरत प्रसन्न हो गए। हनुमान अपने वास्तविक रूप में आ गए। भरत ने उन्हें गले से लगा लिया। हनुमान ने बताया कि राम लक्ष्मण तथा सीता लंका के राजा विभीषण के साथ पुष्पक विमान से आ रहे हैं। साथ में किष्किंधा नरेश सुग्रीव हैं। माता सीता गंगा माँ की पूजा करना चाहती हैं। उसके बाद राम लौट आएंगे।
भरत ने महर्षि वशिष्ठ से कहा कि वह माताओं तक भी यह सुखद समाचार पहुँचा दें। उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया कि वह अयोध्या में ढिंढोरा पिटवा दें कि राम सीता और लक्ष्मण वनवास काटकर अयोध्या आ रहे हैं।
अयोध्या वासियों को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत खुश हुए। बच्चे बूढ़े नर नारी सभी एक दूसरे को बधाई देने लगे। उन सभी ने इतने सालों तक राम के लौटने की प्रतीक्षा की थी। अब वह प्रतीक्षा पूरी हो रही थी। इसलिए सभी उत्सव मना रहे थे।
राम का अयोध्या में स्वागत
ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों के समूह राम का स्वागत करने के लिए राजधानी आ रहे थे। नगर में सब तरफ सजावट की जा रही थी। प्रत्येक व्यक्ति अपने घर को सजा रहा था। हर द्वार पर बंदनवार बांधा गया था। अल्पनाओं से घर को सजाया गया था। जलते हुए दीपकों की रौशनी में अयोध्या जगमग कर रही थी।
महल में हर तरफ उत्सव का माहौल था। सेवक सेविकाएं प्रसन्नता से राम के स्वागत की तैयारी कर रहे थे।
कौशल्या और सुमित्रा इतनी अधिक प्रसन्न थीं उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था क्या करें ? कभी दोनों रसोई में पकवानों की तैयारी देखतीं तो कभी महल में हो रही तैयारियों की व्यवस्था देखने लगतीं। उनके लिए अब एक एक पल कठिन हो रहा था।
कैकेई की प्रसन्नता का अनुमान कर पाना कठिन था। राम के वनवास पर जाने के बाद जब उसे अपने किए का भान हुआ तब से वह पश्चाताप की अग्नि में जल रही थी। आज वह क्षण आने वाला था जब पछतावे में जलती हुई कैकेई के हृदय को शांति मिलने वाली थी।
सबसे अलग उर्मिला की प्रसन्नता थी। आज उसके भी चौदह वर्षों की तपस्या समाप्त हो रही थी। उसने इन वर्षों में बहुत धैर्य के साथ एक एक पल काटा था। आज उसके तपस्या का फल उसे मिलने वाला था। वह अपने पति के दर्शन करने वाली थी।
नगर के बाहर सभी अयोध्या वासी पुष्पक विमान के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। गुरुदेव वशिष्ठ, भरत, शत्रुघ्न, तीनों माताएं, मंडावी, श्रुत्कीर्ति और उर्मिला सभी बड़ी बेसब्री से राम, सीता और लक्ष्मण के आने की राह देख रहे थे।
सभी की निगाहें आकाश की ओर लगी हुई थीं। जैसे ही आकाश में पुष्पक विमान दिखाई पड़ा लोगों में उत्साह की लहर दौड़ गई। विमान में सवार सुग्रीव, हनुमान, जांबवंत, निषादराज गुह और विभीषण अयोध्या के निवासियों के प्रेम को देखकर भावुक हो रहे थे।
जब विमान धरती पर उतरा तो सभी राम सीता और लक्ष्मण की जय जयकार करने लगे। विमान से उतरकर राम ने सबसे पहले अयोध्या की पावन भूमि को प्रणाम किया। लक्ष्मण तथा सीता ने भी उनका अनुसरण किया। उसके बाद तीनों गुरुदेव वशिष्ठ से मिले। गुरुदेव वशिष्ठ ने राम को आशीर्वाद देते हुए कहा,
"राम तुम्हारी कीर्ति युगों तक बनी रहेगी। तुम धर्म और मर्यादा के स्तंभ के रूप में जाने जाओगे।"
राम के बाद लक्ष्मण तथा सीता भी गुरुदेव वशिष्ठ से मिले।
राम तीनों माताओं के पास गए। वहाँ सबसे पहले उन्होंने कैकेई के चरण स्पर्श किए। कैकेई उन्हें गले लगाकर रोने लगी। वह अपने किए पर पछता रही थी। राम ने कहा,
"माता आप अभी तक इन बातों को दिल से लगाकर क्यों बैठी हैं। आप निश्चिंत हो जाइए। पिताश्री ने मुझे दर्शन दिए थे। उन्होंने ह्रदय से आपको क्षमा कर दिया है।"
यह सुनकर कैकेई भावुक होकर और अधिक रोने लगी। राम ने उन्हें समझा बुझाकर शांत किया। उसके बाद वह सुमित्रा के पास गए। उन्हें प्रणाम करके बोले,
"माता कौशल्या का आदेश था कि मैं लक्ष्मण को सुरक्षित वापस लेकर आऊँ। मैं उसे आपके पास ले आया माता।"
सुमित्रा ने राम को बहुत आशीर्वाद दिया।
राम जैसे ही कौशल्या की तरफ बढ़े वह भाव विह्वल होकर उनके पास गईं और उन्हें अपने गले से लगा लिया। कुछ देर उन्हें उसी प्रकार गले से लगाए रोती रहीं। उसके बाद राम को सिर से पैर तक निहार कर बोलीं,
"पुत्र तुमने इतने कष्ट सहे पर मैं तुम्हारी कोई भी सहायता नहीं कर सकी।"
राम ने अपनी माता के चरणों को स्पर्श कर कहा,
"माता उस अवधि में आप की स्मृति ही तो मुझे शक्ति प्रदान कर रही थी। आपके द्वारा प्रदान की गई शक्ति से ही तो मैं लंका पर विजय प्राप्त कर सका।"
लक्ष्मण बाकी की दोनों माताओं से मिलने के बाद कौशल्या के पास आए। उन्हें गले लगाकर कौशल्या ने कहा,
"पुत्र तुमने अपने भाई की निस्वार्थ भाव से जो सेवा की है उसके लिए मेरा ह्रदय तुम्हें लाखों आशीष देता है।"
सीता भी बारी-बारी से तीनों माताओं से मिलीं। तीनों ने ही उनके धैर्य और पतिव्रत धर्म की सराहना करते हुए उन्हें अखंड सौभाग्यवती बने रहने का आशीर्वाद दिया।
कौशल्या ने राम से कहा,
"पुत्र अगर तुमने चौदह वर्ष वनवास भोगा है तो भरत ने भी इस अवधि में तपस्वी का जीवन बिताया है। इसके निश्चल प्रेम का अन्य उदाहरण मिलना कठिन है।"
भरत राम की चरण पादुकाएं साथ लेकर आए थे। राम के चरणों में उन्हें अर्पित करते हुए उन्होंने कहा,
"आज आपका अधिकार आपको सौंपते हुए मन को बहुत प्रसन्नता हो रही है।"
राम ने उन्हें गले से लगाकर कहा,
"तुम जैसा भाई मिलना अत्यंत दुर्लभ है। तुमने इतने वर्षों तक जो तपस्या की है उसके लिए आने वाला समय सदैव तुम्हें याद रखेगा।"
भरत ने राम की चरण पादुकाएं उन्हें पहना दीं। उसके बाद शत्रुघ्न राम तथा लक्ष्मण से भेंट करने के लिए आगे आए।
सीता ने मांडवी, श्रुत्कीर्ती और उर्मिला से भेंट की।
राम का राज्याभिषेक
अयोध्या नगरी में प्रवेश करने से पहले राम लक्ष्मण तथा भरत ने सरयू नदी में स्नान करके तपस्वी वेष त्याग दिया। उसके बाद राम ने अपने भाइयों और सीता के साथ राजसी वस्त्रों में अयोध्या नगरी में प्रवेश किया।
अयोध्या वासियों ने उनके स्वागत में फूल बरसाए। मंगल गीत गाए।
सही मुहूर्त देखकर राम के राज्याभिषेक की तैयारी होने लगी। जनक को निमंत्रण भेजा गया। वह अपनी पत्नी सुनयना के साथ अयोध्या पधारे।
पुरोहितों द्वारा मंत्रोच्चार करते हुए राम का राज्याभिषेक किया गया। सुग्रीव जामवंत हनुमान निषादराज और विभीषण सभी राज्याभिषेक में सम्मिलित हुए। राम के राजा बनने पर सभी प्रजा बहुत प्रसन्न थी।
राम ने एक ऐसी शासन-व्यवस्था की आधारशिला रखी जिसमें सभी सुखी थे। रोग तथा दुर्भिक्ष नहीं थे। सबको समान अवसर मिलता था। इस शासन व्यवस्था को रामराज्य कहा गया।
इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षो तक राम का शासन इस धरती पर रहा।