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तीन टांगों वाली खाट



वह खाट दादी की थी। पिताजी के दादी की। तीन टांगों वाली। किसी ज़माने में उसके भी चार पाये थे और दादी को उसके सिवा कहीं नींद नहीं आती थी। दादी को सब ईश्वर के करीब मानते, शुद्ध आत्मा। तो आखिर दादी की खाट के तीन पाये क्यों बचे थे?
गांव में सब दादी को बहुत मानते थे। किसी के घर जलुआ होता तो उनके खाट से पाया निकाल कर ले जाते। जलुआ गांव में किसी लड़के की शादी में उसके बारात बिदा होने के बाद किया जाता है। सारी औरते इकट्ठा होकर रात भर नाच गाना करती हैं। इस समारोह में पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध होता है। बाद में खटिया के पाये पर गुंथा आटा लपेट कर बच्चे की आकृति बनाते है जिसे नई दुल्हन के आने के बाद उसे देते हैं। कहते हैं यह शुभ प्रतीक होता है और दुल्हन की गोद जल्दी भर जाती है। दादी का आशीर्वाद सब बहुत शुभ मानते थे तो उखाड़ ले जाते उनके ही खाट से। और सच सब का भला ही होता था। एक दिन पड़ाईन चाची जो पाये ले गई फिर वापस ही नहीं किया उन्होंने।
" ए ईआ! हम ना देम, बताव शुभ के चीज़ केंते वापिस करीं? दोसर खटिया बनवा देम "
दादी मान गई। जाने दो उसका मन है तो। किसी का दिल दुखाना वो सोच भी नहीं सकतीं थी। कितनी मनुहार पर भी नया खाट नहीं बनवाया। जाने क्या लगाव था उन्हें अपने खाट से। ईंट पर ईंट जोड़ कर खाट को एक सहारा दिया गया। उसके बाद बड़े बाउजी ने सब को साफ कह दिया अब कोई नहीं ले जाएगा एक भी पाया। सब बहुत निराश भी हुए थे पर बाउजी का आदेश गांव में कोई नहीं काटता था।
दादी तो जैसे भविष्य देख सकती थीं वैसे बाते बताती, मौसम का हाल, खेती का अनुमान सब कुछ। उन दिनों दादी की तबीयत सही नहीं रहती थी। पर हम बच्चों को दादी के सिरहाने बैठ कुलदेवता की कहानियां सुनना बड़ा पसंद होता था। दादी अपनी कहानियां भी सुनाती थीं। दादी अपने पति की तीसरी पत्नी थी। इसलिए दादाजी को गुजरे ज़माना हो चुका था।
दादी बताती थीं कि दादाजी की पहली दो पत्नियां बारी बारी उन्हें छोड़ गई। तब परिवार वालों के बहुत कसमें दिलाने पर वंश चलाने के लिए दादी से शादी की थी। दादी दादाजी से उम्र में छोटी होने के कारण दादाजी से बहुत डरती थीं। दादाजी भी उनसे नेह ना लगाते शायद उन्हें लगता था कि उनके किस्मत में स्त्री सुख नहीं है और एक दिन दादी भी उन्हें छोड़ जाएंगी। खैर दादाजी जाने से पहले तीन पुत्र और दो पुत्रियों से दादी की झोली भर कर गए। दादी ने फिर बताया कि यह खाट दादाजी की निशानी है उनके पास और उन्हें दादाजी का सानिध्य लगता है इस खाट पर।
दादाजी के जाने के बाद भरी जवानी में दादी भगवान के शरण में आ गई थीं। कहा जाता है कुलदेवता की तो विशेष कृपा थी उनपर। दादी बताती थी कुलदेवता ने आशीष दिया है कि हमारे कुल का कोई भी इंसान सर्प दंश से नहीं मरेगा। उनकी सुनाई कई कहानियों में हमे कुलदेवता की झलक जरूर मिलती थी। गाँव के कई लोग अब भी हमे भक्तिन दादी के घरवालो के नाम से पहचानते हैं।
उस साल नवमी पूजन से पहले ही दादी ने कह दिया था कि पूजन की तैयारी ना करे कोई। बड़ा आश्चर्य हुआ सब को, दादी और किसी त्यौहार की मनाही.. भला क्यों? दादी ने अपने पतोहू सब को पास बुलाया और कहा
" हमार जाए के समय आ गईल बा.. तैयारी मत करीह लोगिन, बेकार हो जाइ "
दरवाजे के ओट में मैं खड़ी यही सोच रही थी कि ऐसे कैसे दादी को पता है। वो तो बीमार भी नहीं है.. और हो भी तो क्या? हमे तो यही पढ़ाया जाता है कि मृत्यु छलिया है किसी को नहीं पता कब आएगी, फिर दादी से ऐसी क्या दोस्ती जो बता कर आ रही है। मेरे अविश्वास की छूत शायद उनकी पतोहू सब को भी लगी।
" हाँ हाँ अम्मा! हिल डूल नाही पाऊत हउ, बैठे बैठे इहे कुली सोचह "
हम बच्चे तो बोल आए दादी को की जब तुम जानती हो कब जाना है तो नवमी पूजन बाद जाना। हमारी खीर पूरी से क्या दुश्मनी भला तुम्हें? दादी हँस कर बोली थी कि मेरी मृत्यु भोज में तो मिलेगी खा लेना। जैसे जैसे पूजन का दिन करीब आ रहा था दादी और अधिक बीमार रहने लगी थीं। जाने कैसे? जैसे मन बना लिया हो इस क्षणभंगुर संसार से जाने का।
उस दिन सप्तमी थी हमारे यहां कुलदेवता का दिन मानते हैं उसे। उसी दिन दादी ने फिर अपने लड़कों को बुलावा भेजा। बेटियों को भी आजू बाजू वाले गांव से बुलवा लिया। उन्होंने बोला कि कल सुबह पांच बजे चली जाऊँगी। यहां पुआल बिछा दो, मैं नहीं चाहती कि खटिया अशुद्ध हो जाए। कहती थीं खाट पर प्राण निकले तो देवदूत नाराज होंगे। पुआल बिछा दिया गया। मैं जैसे वही खड़े होकर देखना चाहती थी दादी को जाते हुए। सबके कहने पर भी सिरहाने से टस से मस ना हुई। तय हुआ कि मौसम में थोड़ी ठण्ड है तो पुआल पर सुबह सुला देंगे अभी खाट पर रहने देते हैं। वैसे भी भली चंगी बाते कर रही थी ऐसे कैसे मर जाएंगी? सोचा तो था कि रात भर सोना नहीं है पर आंख लग गई। फिर हाथ पर हाथ के थपथपाहट से नींद खुली। बाहर पौ फ़ट आई थी। मैंने देखा मोटा सा लंबा सांप कमरे में घुस आया था। मेरे चीखने पर सब भाग कर आए। दादी को गोदान वगैरह पिछले दिन करा दिया गया था उनकी जिद पर। सब समझ गए सच जाने का वक्त आ गया है। क्योंकि साँप हमारे कुलदेवता का प्रतीक है और वही खुद लेने आए थे दादी को। दादी के इशारे पर उन्हें नीचे लिटाया जाने लगा पर हवा में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए। घरवालो के रोहारोहट के बीच हम बच्चे दुबके पड़े थे।
दादी दूसरे धाम को चलीं गई। अंतिम संस्कार धूम धाम से किया गया और सच अच्छे अच्छे व्यंजन बने। तब बड़ा बुरा लग रहा था। किसी की मृत्यु पर कैसी धूमधाम? उससे भी बुरा तब लगा जब उनके चीजों के साथ उनकी तीन पाये वाली खाट को भी त्यागने का फैसला हुआ। आह! इससे अच्छा तो जीते जी पड़ाईन चाची जैसे लोगों को दे देते, सब को कितनी जरूरत थी दादी के आशीर्वाद की। इंसान जीवित रहता है तब तक जीवित रहती है उसकी शुभता उनके जाते ही फिर तो सब कपड़े बिस्तर अशुभ हो जाते हैं। हाँ पता नहीं क्यों सोने - चांदी और हीरे जवाहरात मृत शरीर पर भी शुद्ध और शुभ ही रहते है। उसे पाने की होड़ सब में रहती है। दादी ने जीवन के कई सारगर्भित रहस्य सुलझा दिए तो कुछ उलझा भी दिए। वह कौन सी शक्ति होती है भला जो अपने सत्य पर टिके रहने को प्रेरित करे और इतना करीब कर दे ईश्वर के की आप खुद ईश्वर प्रतीत होने लगो।
आज मैं भी दादी हुं किसी की पर मेरी यादों से दादी और उनकी खाट उसी काल क्षण से वैसे ही वैसे ही चिपकी हुई है। और हाँ मैं कब जाऊँगी इस लोक से इसका पता मुझे नहीं शायद दादी जैसे मैं कोई पुण्यात्मा नहीं हूं।

©सुषमा तिवारी

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