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दिया और बाती

उमा आज सालों बाद अपने घर वापस आई थी। उसने सोचा भी नहीं था जिस आवाज से पीछा छुड़ाने के लिए उसने घर छोड़ दिया वो इतने सालो बाद भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही है। कई सालों बाद जब उसकी आवाज़ सुनी उमा ने तो बेचैन हो गई। शायद वो सुनना भी नहीं चाहती थी। शायद इसी वज़ह से उमा घर वापस नहीं आना चाहती थी ताकि अपने साथ हुए धोखे को भुला सके पर नियति से आखिर कौन जीता है?
कमरे से निकलकर बरामदे आकर नीचे देखा तो गली में निशा खड़ी थी। निशा जो कभी उसकी सबसे अच्छी सहेली या ये कहें कि एकमात्र सहेली कहा जाता था। बचपन के दोस्त तो ताउम्र मीठी याद बन कर रहते हैं, पर निशा की यादें तो नासूर बन गई थीं| आज उसको दस साल बाद देखते ही जैसे ज़ख्म हरा हो गया था। वैसे निशा की आवाज उसे पहले जैसे नहीं लगी, हंसी से भरी खनकती हुई| पर शायद जैसे संबधों की कटुता ही उसके कानों पर पर्दा डाले हुए थे।
“कौन है उमा? क्या देख रही हो?” माँ ने पूछा।
“कुछ नहीं माँ! निशा आई है शायद मायके, वही..”
“हाँ निशा है, वो जिंदगी में आगे बढ़ी और ना जाने तुम किसकी सजा खुद को दिए जा रही हो| अब भी वहीं खड़ी हो, यहीं से तुमने निशा की बिदाई देखी और घर छोड़ दिया| बेटा हमारा क्या कसूर था?”
हाँ, कोई कसूर नहीं था।
उमा का भी तो कोई कसूर नहीं था, बस सिवाय इसके कि भगवान ने उसे एक साधारण शक्ल सूरत, औसत से कम कद और सांवला रंग दिया था। खुद में छुपी रहने वाली उमा को जिन्दगी जीना किसी ने सिखाया तो वो थी निशा। नाम निशा पर चांद सी गोरी, निशा काल को दूधिया कर दे ऐसा रंग, खनकती हँसी जैसे सितार बजते और उतनी ही स्वभाव की धनी। उमा के पड़ोस में निशा उसकी दुनिया थी।
हाँ, पढ़ाई लिखाई में थोड़ी कच्ची और उमा ने हमेशा ही मदद की। कॉलेज में उमा के साथ के लिए जैसे तैसे निशा ने पढ़ाई पूरी की पर उसका कोई खास लक्ष्य नहीं था। जिंदगी के हर पल को उसी पल जी जाती थी वो। फिर उनकी जिंदगी में वो मोड़ आया जो दो शरीर एक आत्माओं को अलग कर गया।
उमा की शादी तय हुई। उमा ने डबल एमए कर लिया था| कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी भी मिलने वाली थी। शादी एक बड़े घर में तय हुई। लड़का स्मार्ट और अच्छे पद पर कार्यरत था, अश्विन नाम था उसका| फोटो देखते ही उमा जैसे उसी की होकर रह गई। फोन पर बात तो होती रहती थी, कभी कभार अश्विन घर भी आता और घर वालों को कोई एतराज नहीं था। उमा, अश्विन और निशा तीनों साथ मूवीज जाते, घूमते फिरते।
उमा बहुत खुश थी कि अश्विन भी निशा की तरह जिंदगी से भरे इंसान थे और उसे वही चाहिए था| उमा जैसे अपने भावी पति में निशा की छवि देखती थी। तय समय पर सगाई के लिए अश्विन और उसका परिवार उमा के घर आया। कितनी खुश थी उमा, जी भर के शृंगार किया था। पर नियति ने क्या खेल खेला। अश्विन ने सबके सामने कह दिया कि उसे निशा पसंद है और वो उससे ही शादी करेगा।
उसने मेरे आंसुओ और सवालों का कोई जवाब भी नहीं दिया। थोड़ी ना नुकुर के बाद निशा भी मान गई और उसके घरवालों की तो जैसे लॉटरी लग गई| इतना अच्छा लड़का घर बिठाए मिल रहा था। निशा की शादी अश्विन से हो गई। जिन गलियों में उसने अपनी बारात के सपने देखे, वहाँ निशा की बारात आई और निशा की विदाई पर इसी बरामदे से खड़े होकर उमा खूब रोई|
निशा के जाने का गम था अपनी जिंदगी से। उस घटना ने ऐसा तोड़ दिया उमा को कि उसने शहर ही छोड़ दिया। दूर जाकर उसने ट्राईजोमी अर्थात डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों पर रिसर्च और उनकी मदद के लिए संस्था को जॉइन कर लिया। उसने खुद को पूरी तरह से काम में डुबो लिया। घर वालों ने कई बार दूसरे रिश्ते चलाए, पर उमा ने ना कह दिया| उसे अब रिश्तों से डर लगता था।
आज दस साल बाद निशा को देखा। जाने क्यूँ मन फिर भी नफरत से नहीं भरा, शायद अब ये सब पीछे छूट चुका था।
“बहुत बुरा हुआ बेचारी के साथ या ये कहो कर्मों का फल मिला उसे” माँ बोलती हुई चाय देने आई उमा को।
“किसको क्या हुआ माँ?”
“उसी निशा की बात कर रही हूं| जिस आदमी के लिए तूझे धोखा दिया उसने उसके परिवार ने आज दस साल बाद उसे यूँ अकेला छोड़ दिया| सात साल की बच्ची है निशा की, डाउन सिंड्रोम से ग्रसित और पता चला है कि निशा दोबारा माँ भी नहीं बन सकती। छोड़ दिया ससुराल वालों ने हूंह! जो लोग शक़्ल देखकर रिश्ते करते हैं, उनसे और क्या उम्मीद करेंगे| अब आ गई मायके वापस, पढ़ाई तो ढंग से की ही नहीं कि कोई नौकरी करे| देखते हैं भाई भाभी उसको कब तक रखेंगे|”
माँ की बातों से उमा का मन भर आया। क्या मेरी बद्दुआओं के चलते?
“नहीं ,नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए था।”
रात भर उमा सो नहीं पाई। सुबह उठते ही उमा, निशा के घर पर खड़ी थी। दरवाज़े पर उमा को देखते ही निशा दौड़ कर आई और उमा के पहले तो गले लगी, फिर पैरों से लिपट गई।
उमा ने उसे फटाफट उसे उठा कर गले से लगाया।
“नहीं निशा! मैं तो खुद को कोस रही हूं, शायद मैंने तुम्हें अपने हिस्से का दुख दे दिया। तुमने वो झेल लिया जो शायद मेरे नसीब का था, ऐसे लोगों का क्या भरोसा था मेरे साथ और बुरा करते!”
“पर तुमने तो शादी भी नहीं की उमा?”
“शादी जीवन का हिस्सा है, जीवन नहीं निशा| मैं कई बच्चों की जिंदगी बनने की कोशिश में हूं, अब मैं चाहती हूं कि जो हो गया सो गया| तुम अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ और अपनी बच्ची का अभिभावक बनो | अपनी ही क्यों ? उन जैसे और भी बच्चे हैं, हम मिलकर उनको जीवन में आगे बढ़ने में मदद करेंगे।”
उमा और निशा अब पुराने दिनों की ओर लौट चले थे, फिर से दिया और बाती की तरह। जिंदगी का कारवाँ चल पड़ा था, मंजिल अब दूसरों की जिंदगी में नई उम्मीद भरना।

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