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दोषमुक्त

फोन की घंटी लगातार बजे जा रही है। और उसके साथ ही सुमन की घबराहट, "क्या करूँ उठाऊं की नहीं.. नहीं उठाऊंगी.. नहीं दे पाऊँगी अब और जवाब, क्या जाने अंजलि क्या सोच रही होगी मेरे बारे में.." ये सब सोचते हुए आंसुओं की धार बह चली और सुमन पछताने लगी अपने कृत्य पर, हाँ उसे अभी तक ये समझ में नहीं आया था की गलती क्या थी पर इतना वो जान चुकी थी की शायद उसने सामाजिक मापदंडों को तोड़ने की बड़ी भूल कर दी थी।
परसों की तो बात थी, जब एक कार्यक्रम के बाद सुभाष जी के ज़िद करने पर मूवी देखने चली गई थी, एक अरसा हो गया था जब अंजलि थी तो साथ में जाते थे कभी कभी, झिझक तो थी पर क्या बुराई है सोचते हुए वो सुभाष जी को ना नहीं कह पाई। और कोई रोमांटिक मूवी भी तो नहीं थी समसामयिक विषय पर ही थी। पर जो होना होता है, लगा जैसे काजल की कोठरी जा कर आई.. माही मिल गई अंजलि की ननद की देवरानी, मिलते ही बड़े प्यार से गले लगी अरे! आंटी आप.. अच्छी मूवी थी ना और हाय हैलो कर के चली गई, पर वो तो जैसे बस तूफान के पहले की शांति थी। जाने उसने अंजलि की ननद से क्या क्या कहा, और उसने अंजलि की सास यानी समधन अर्चना जी के कान भर दिए। सुबह सुबह ही फोन आया था "सुमन जी आप से ये उम्मीद ना थी.. इस उम्र में ये सब शोभा देता है क्या? पूरी जवानी आपने भाई साहब के बिना आराम से निकाल दी अब अपनी इच्छाओं को काबु में रखिए, बच्चों का जीना मुश्किल हो जाएगा समाज़ में.. आपको अकेलापन लगता है तो आप हमारे साथ आ कर रह सकती हैं पर ये सब!! लोग मुझे ताने देंगे की संभ्रांत परिवार से होकर मैंने ना जाने कहाँ रिश्ता कर लिया।"
सुमन के मुँह से एक शब्द ना निकला, खुद को गुनाहगार मान कर तबसे अतीत का पिटारा खोल कर बैठी थी। कहाँ गलती हो गई उससे? राम से प्रेम विवाह किया था। विश्विद्यालय के एक ही विभाग में दोनों की नई नियुक्ति थी, विचार मिले फिर दिल मिले और जीवनसाथी बन गए, जाति भेद ना भी होते हुए दोनों के परिवार वाले विवाह से खुश ना थे। चार साल की अंजलि को गोद में छोड़ कर राम दुनिया से अचानक चले गए। मुसीबतों का पहाड़ था आगे पर ना तो ससुराल वाले आगे आए और ना ही मायके वाले। नन्ही अंजलि की जिम्मेदारी संभाली और आज तक उसे कभी पिता की कमी ना होने दी। अंजलि के प्रेम विवाह के प्रस्ताव को भी सहर्ष स्वीकार लिया। ससुराल वाले भी बहुत अच्छे थे, दामाद जी ने तो साथ चल कर रहने को भी कहा पर सुमन ने यह कह कर टाल दिया की विश्विद्यालय को अभी छोड़ना नहीं चाहती थी.. विभाग में वो अब एच.ओ.डी हो चुकी थी।
अंजलि के जाने के बाद खुद को पूरी तरह से काम में डुबो दिया, समय मिलता तो समाज़ सेवा कर लेती थी। इसी बीच उसकी मुलाकात सुभाष जी से हुई जो शहीद की विधवाओं के मदद लिए संस्थान चलाते थे और जगह जगह कविता कहानियों का आयोजन करते और इकठ्ठा धनराशि शहीद परिवारों को भेजते थे। मालूम पड़ा की उनकी पत्नी की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी और इकलौता लड़का जो फौज में था देश के लिए शहीद हो चुका था। सुभाष जी ने अपने जीवन को मायूसी मे बिताने की बजाय कुछ करते हुए बिताने का फैसला किया था। काफ़ी जिंदादिल इंसान है वो, कविताओं के कार्यक्रम में मिलते मिलते थोड़ी दोस्ती हो गई थी उनसे। इसीलिए उनके मूवी के आग्रह को ठुकरा ना पाई थी।
लगातार बज रही फ़ोन की आवाज़ से तन्द्रा टूटी, सोचा अंजलि घबरा जाएगी बात कर लेती हूं "हैलो! बेटा.." रुंधे हुए गले से आवाज ना निकली।
"माँ! कहाँ थे आप? आपने डरा दिया था.. मैं फ्लाइट बुक करने ही जा रही थी.. प्लीज़ माँ ऐसा भी क्या.." फिर साँस लेते हुए बोली "मम्मी के तरफ से मैं माफी मांगती हूं उनको आपसे ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी, मैं शर्मिंदा हूं इस व्यवहार के लिए.. पर आपको क्या अपनी बेटी पर भरोसा नहीं जो फोन नहीं उठा रहीं थी? माँ आपकी जिंदगी है.. पूरी मुझ पर कुर्बान कर दी अब बची हुई खुद के लिए जी रही हो तो किसी को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए।"
" नहीं अंजलि, मेरी गलती है मुझे तुम्हारे मान सम्मान का भी ख्याल रखना चाहिए था, सच में इस उम्र में शोभा नहीं देता" सुमन बस रोये जा रही थी।
" माँ प्लीज! आप ऐसे मत बोलिए.. पापा होते तो भी आप यही कहती? उम्र का इच्छाओं से कोई लेना देना नहीं होता है। समाज के नियमों के लिए खुद की बलि मत चढाओ, मैं खुद को माफ ना कर पाऊँगी। अपनी अंतरात्मा को ध्यान से सुनो माँ, उसे जीने दो अपने लिए।"
सुमन ने सोचा ना था कि अंजलि बेटी होकर आज एक माँ की तरह उसे इस भंवर से निकाल देगी। बहुत बड़ा बोझ उतर गया था सीने से उसके। सच ही तो है मर्यादा और मान्यताओं के बीच थोड़ा फर्क़ होता है, दूसरों को कहाँ तक सीना चीर दिखाएगी, अपनी बेटी ने उसे दोष मुक्त घोषित कर दिया था और कुछ नहीं चाहिए।

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