स्वर्ग का वीसा Prabodh Kumar Govil द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

स्वर्ग का वीसा

दो दिन पहले की ही तो बात है जब घर में धूमधाम से बेटे आर्यन का जन्मदिन मनाया गया था। हॉस्टल में रह कर पढ़ने वाले पंद्रह वर्षीय बेटे का जन्मोत्सव मनाने के लिए मम्मी- पापा ने दिन रात एक कर दिया था। बेटे के सारे दोस्त आए और एक से एक नायाब तोहफों से आर्यन का कमरा भर गया।
लेकिन इसी दिन एक छोटी सी दुर्घटना भी हो गई थी। दिन भर की भाग दौड़ और कामकाज के बीच पार्टी के दौरान मम्मी पिछवाड़े के अपने कमरे में लेटे दादाजी को शाम को खाना देना भूल गई थीं। किसी को कुछ पता नहीं चला, न ही दादाजी कुछ कर सके।
रात को सहसा एक के बाद एक तोहफ़े खोल - खोल कर देखती मम्मी को जब अचानक अपनी भूल याद आई तो वो पति और आर्यन से कुछ कहे बिना हड़बड़ा कर तेज़ी से दौड़ती हुई किचन में गईं।
आर्यन और पापा भी बर्तनों की खनक सुन मम्मी के पीछे- पीछे गए और पूरी बात पता चलने पर तीनों एक साथ खाने की ट्रे लेकर चोरों के किसी गिरोह की तरह दादाजी के कमरे में गए।
अनुमान था कि अमूमन नौ बजे सो जाने वाले दादाजी या तो सो गए होंगे या फिर नाराज़ होंगे। पश्चाताप से तीनों सुलग रहे थे।
पर दोनों ही अनुमान ग़लत निकले। दादाजी न तो सोए थे और न ही किसी भी तरह नाराज़ थे। वो तो तीनों को एक साथ देख कर ज़ोर से ठठाकर हंस पड़े।
उन्होंने बच्चों की तरह ख़ुशी से ताली बजाते हुए बहू के हाथ से थाली पकड़ी और बोले- देखा, कैसा छकाया? कोई मुझे इतनी देर तक ढूंढ नहीं पाया, मैं जीता।
मम्मी की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने सिर पर पल्ला लेते हुए झुक कर दादाजी के पांव छू दिए। आर्यन ने खुद अपने हाथ से पहला कौर तोड़ कर दादाजी को खिलाया। पापा भी मायूस से लौट कर अपने कमरे में आ गए।
खिलंदड़ चहचहाते दिन की बेहद बोझल सी रात गुज़री।
और अब अचानक दो दिन के बाद जब आर्यन छुट्टी ख़त्म होने पर अपने स्कूल के हॉस्टल में लौट जाने से पहले दादाजी से मिलने आया तो ये देख कर सकते में आ गया कि अपने बिस्तर पर बैठे दादाजी रो रहे हैं।
वो दौड़ कर मम्मी पापा को बुला लाया।
तेजी से बहते आंसू बार- बार पौंछे जाते पर किसी ज़मीन के नीचे बने अदृश्य चश्मे से निकल कर बहने वाले पानी की भांति आंसू फ़िर से झरने लगते।
सब पूछ पूछ कर थक गए कि क्या हुआ, पर दादाजी कुछ न बोल पाए। कुछ नहीं, में मुंह हिलाते रहे।
- क्या आर्यन के जाने का दुःख?
अरे, वो तो हर बार जाता ही है, सात साल से बाहर पढ़ रहा है। फ़िर अपने अच्छे भविष्य के लिए जाता है, दुःख क्यों होगा।
- फ़िर क्या कोई चोट, रोग- शोक?
नहीं, कुछ नहीं, सब ठीक है। दादाजी यही कह रहे हैं।
- तो क्या परसों रात की घटना को याद करके दादाजी अब रो रहे हैं?
छी, क्या बात करते हो? दादाजी ऐसी मामूली बात पर रोएंगे? ऐसा ख़ुद दादाजी ही कह रहे हैं।
- तो कोई कड़वी मीठी याद परेशान कर रही है?
नहीं रे, याद क्या आयेगी, अब तो सब कुछ भूलने की बीमारी है।
तो फ़िर?
आख़िर अब जाते हुए आर्यन ने दादाजी को अपनी कसम दे दी, कि अब तो मैं तभी जाऊंगा जब आप अपने रोने का कारण बताएंगे, आर्यन ने दृढ़ता से कहा।
और तब हारकर दादाजी को बताना ही पड़ा।
दादाजी आंखें पौंछते हुए बोले- मैं यहां बैठ कर अख़बार पढ़ रहा था, तभी दीवार पर एक मकड़ी चढ़ती हुई दिखाई दी। मैं मकड़ी को देखते हुए सोचने लगा कि अगर ये बिना गिरे छत को छूने में कामयाब हो गई तो मैं भी स्वर्ग में तुम्हारी दादी के पास पहुंचने में सफ़ल रहूंगा पर अगर ये सफ़ल नहीं हुई तो मैं मरने के बाद नर्क में जाऊंगा, मुझे स्वर्ग नहीं मिलेगा।
और मकड़ी चढ़ न सकी, फिसल कर नीचे गिर गई।
कह कर दादाजी चुप हो गए।
अब ठठा कर हंसने की बारी मम्मी, पापा और आर्यन की थी। तीनों खिलखिला कर इतना ज़ोर से हंसे कि दादाजी ने शरमा कर मुंह नीचे कर लिया।
दादाजी के पांव छू कर हॉस्टल जाने के लिए निकले आर्यन को याद आया कि उसके एक टीचर कहा करते थे- सुख- दुख कुछ नहीं होता। ये इंसान के अपने हाथ में है कि वो चाहे तो दुख में भी मुस्करा ले, और चाहे तो सुख में भी रो ले।
- प्रबोध कुमार गोविल