न्याय अन्याय Alok Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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न्याय अन्याय


कहते है देश मे कानून सर्वोपरि है, हो सकता है ,ऐसा ही हो लेकिन लगता तो नहीं है । जनता भ्रमित है कि कानून किसके लिए है या किसको न्याय दिलाने के लिए है जनता को या अमीरों को। ऐसा भी नहीं कि हमारे कानून मे कोई कमी है बस अब हममे ही उसे लागू करने कि इच्छाशक्ति नही रही । कानून को बनाने वाले अब उसमे छेद करना भी सीख गए है । वे उसे अपने अनुरुप बदलने का प्रयास भी करने लगे है । न्यायलय उनके इस कार्य को केवल देख सकता है ; कुछ कर नहीं सकता यह शायद हमारी सबसे बडी लाचारी ही है । इतने विशाल देश में न्याय भी एक व्यवसाय ही है । इसके कारण लाखें करोडों लोगों के घरों में चूल्हे जलते है लेकिन शिक्षा की ही तरह इस व्यवसाय ने भी अपनी पवित्रता को खो दी है । न्यायालयों से पहले पीड़ित पुलिस के पास गुहार लगाता है । प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर साक्ष्य जुटाने तक में तोल - मोल होता है । कोई व्यक्ति न्यायालय में बचेगा या नहीं यह तो सबूतों और साक्ष्यों के आधार पर तय होता है परन्तु उन्हें जुटाना है या नहीं यह इस बात से तय होता है कि कौन सा पक्ष कितना दमदार ,पहॅुच वाला या पैसे वाला है । बहुत से मामले तो न्यायालय पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देते है । यदि कभी आप सीधे न्यायालय पहुंच भी गए तो आपको न्यायालय के बाहर ही अनेक दलाल मिल जाएंगे । जो यह कहते पाए जाऐंगे कि ‘‘ अमुक जज से अपनी सेटिंग है आप का फैसला तो दो सुनवाई में हुआ समझो । ’’ यहाँ स्वरोजगारीयों की एक बहुत बड़ी जमात है, जो स्टे दिलवाने ,अंतरिम जमानत करवाने और छोटे - मोटे कागज निकलवाने के काम की दलालीे पर ही जीवन निर्वाह कर रहे है । ऐसे लोगों के लिए पीड़ित किसी बकरे से कम नहीं है । वे पीड़ित को धीरे- धीरे हलाल करते है । मामला हाथ में आने के बाद शायद ही कोई वकील उसे जल्दी निपटाना चाहता हो । इसमें उनकी मदद करते है, न्यायालय में बैठे बाबू जो इस न्याय के मंदिर से पेशी बढ़वाने और अगली तारीख देने जैसे काम की दान-दक्षिणा में रोज ही हजारों रुपये घर ले जाते है। न्यायालय में न्याय के विलम्ब और आर्थिक परेशानियाें के चलते पीड़ित भी न्याय के प्रति उदासीन होने लगता है । न्यायालय में लम्बित मामलों कि बहुतायत के कारण उसका ध्यान शायद ही किसी आम मामले पर जाता है । परन्तु खास लोगाें के मामले में न्यायालय द्वारा होने वाली कार्यवाही की आम आदमी के साथ तुलना करने पर जनता का न्याय पर से भी विश्वास कम ही होता है । हमे हमेशा ही न्यायालयों की आवश्यकता होगी,ऐसे न्यायालयों की जहाँ कुर्सी पर कोई कानून का जानकार इन्सान बैठा हो । हम ऐसे न्यायालयों की कल्पना भी नहीं कर सकते जहां कोई कम्प्यूटर न्यायधीश की भूमिका में हो । पीड़ित न्याय के साथ मानवीय पक्षों को देखने वाले न्यायधीश की ओर आशा भरी नज़रों से देखता है । लेकिन जब न्यायालयों मे बैठे इन्सानी न्यायधीश मशीनों कि तरह व्यवहार करने लगे हो तो पीड़ितों का उन पर विश्वास रहे भी तो कैसे । न्याय की राह में इन सब के अलावा भी अनेकों दाव पेंच है । इन दाव पेंचों से हम रोज ही दो चार होते है । शायद यही कारण है कि पीड़ित के साथ न्याय के संघर्ष मे साथ देने वाले भी कम होते जा रहे है । अब तो लोग प्रत्यक्ष घटना ,स्वयम् के घर कि चोरी या अज्ञात शव को देख लेने पर भी पुलिस को सूचित नहीं करना चाहते । जिससे न्याय व्यवस्था के साथ जुड़े लोगाें कि विश्वसनीयता संदेह के घेरे मे खड़ी दिखती है । अंत मे न्याय को ठेंगा दिखाकर बच निकलने वाले सफेदपोश अपराधीयों ने समाज को त्रस्त कर रखा है । जग जाहिर अपराधीयों के बच निकलने में कौन दोषी है । यह सोचना न आप चाहेंगे, न मै और न कोई अन्य।

आलोक मिश्रा "मनमौजी"