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मन्नत टेलर्स:प्रज्ञा

मन्नत टेलर्स:प्रज्ञा

हुनरमंद लोगों का दर्द:

पुस्तक-मन्नत टेलर्स
लेखिका-प्रज्ञा
प्रकाशक-साहित्य भण्डार इलाहाबाद

"मन्नत टेलर्स " देहली की बेहद सचेष्ट कहानीकार प्रज्ञा की ग्यारह कहानियों का ऐसा संग्रह है , जिसमें शामिल हरेक कहानी पहले ही प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छप चुकी है और पत्रिका में प्रकाशित होने पर पर्याप्त चर्चा में रही हैं । साहित्य भण्डार इलाहाबाद से प्रकाशित इस संग्रह में प्रज्ञा के रचना संसार की लगभग हर तेवर और हर शिल्प की कहानी सम्मिलित है। प्रज्ञा हिन्दी में पिछले कुछ बरसों में उभर के आयी उन कहानीकारों में से है, जिन्होंने अपनी पहचान तेजी से कायम की है और जो पूरे होमवर्क तथा सावधानी के साथ कहानी सृजन में जुटी हैं।
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘मन्नत टेलर्स’ में समीर नामक युवक इस बात से परेशान है कि उसे अपने नाप के सही कपड़े नही मिल पाते है, बाजार में मिलने वाले स्टेण्डर्ड साइज के कपड़ों में ‘स्लिम फिट’ या ‘ रेग्युलर’ की दो श्रेणियां एक ही नंबर के कपड़ों को ढीला या टाइट तो करती हैँ , पर इसकी वजह से सबको संतोष नहीं।सहसा समीर का ध्यान बचपन के उस जमाने की तरफ चला जाता है जब कस्बे में मन्नत टेलर्स के नाम से दुकान खोल सिलाई का काम करने वाले रशीद भाई के पास उनके कपड़े सिला करते थे। रशीद भाई साधारण से कपड़े को भी अपने हाथ के हुनर से नये चलन के बढ़िया पेंट-शर्ट में बदल देते थे। पारिवारिक दर्जी होने के कारण रशीद भाई का उन पर स्नेह था और वे आशीष देते थे ‘ बेटा, अपने अब्बा की तरह बनना’ तो कभी ‘पढ़ लिख जाओ और मास्साब की तरह बन जाओ !’ जैसे महत्वाकांक्षी वाक्यों के जरिए ।
समीर के अध्यापक पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा को अपने अलफाज देते थे। वे इज्जत की रोटी मिलने को खुदा की रहम मानते थे। बाद में रशीद चाचा से सम्पर्क नही रहा था। रशीद चाचा की तलाश के दिनों में एक दिन किसी ऑटो पर ‘चले जिंदगी की गाड़़ी इज्जत की रोटी अल्लाह करम हो तेरे बड़े रशीद पर ’ लिखा देखकर समीर को अंदाज़ होता है कि शायद दिनोदिन रेडीमेड के बढ़ते बाजार ने रशीद चाचा की दुकान बंद करा दी होगी और वे ही इन दिनों ऑटो चलाने लगे होंगे, व यह संतोष भरा वाक्य अपने ऑटो पर लिख रखा होगा " यह सोचकर समीर ऑटो चालक का चेहरा देखना चाहता है पर सफल नही हो पाता। फिर एक दिन
वह रशीद भाई और मन्नत टेलर्स को खोजने पुरानी बस्ती में निकल जाता है। पुरानी बस्ती में जाकर पता चलता है कि मन्नत टेलर्स की वह गली जिसमें काज, बटन ,गोटा, फियरी से लेकर उसी तरह के दर्जनो हुनर के काम करने वाली जो दर्जनों दुकानें थी, अब वहां से वे सब गायब है। यानी हाथ के कारीगरों के धंधे वहां से उठ चुकेहैं, मन्नत टेलर्स वाली दुकान में चाय की छोटी सी दुकान खुल गयी थी। चाय वाले दुकानदार को मन्नत टेलर्स के बारे में कुछ भी पता न था। गली में वहीं कोने में एक बड़ी आलीशान रेडीमेड दुकान ‘इनफिनिटी’ खुल गयी थी। उस दुकान के मालिक से मन्नत के मालिक रशीद चाचा की जानकारी लेने के लिए समीर ऊपर जीना चढ़ के पहुंचता है तो पता चलता है कि इस दुकान का मालिक तो असलम है जो रशीद चाचा का ही का बेटा है । समीर बहुत खुश होता है। बाद में वहीं रशीद मिया से भी भेंट होती है जो अब एक रईस प्रौढ़ की तरह ठाठ से रह रहे है , क्योंकि सिलाई दुकान बंद करके बच्चों ने यह रेडीमेड की आधुनिक व शानदार दुकान खाल ली है । समीर के भी अपने पिता की तरह अध्यापकी के पेशे को में होने की खबर सुन रशीद चचा बहुत खुश होते हैँ, क्यों कि अध्यापक बन पाने का मौका पाना वे बहुत बड़ा मौका समझते हैँ । रशीद चाचा की खुशहाली देख प्रसन्न वापस लौटा समीर सोचता है कि हाथ का हुनर जानने वालों की बरबादी के इस जमाने में क्या बाकी के रशीद लोग इतने खुशकिस्मत है ? निश्चित ही इसका जवाब न में है। हमारे देश में आधुनिक विकास ने लाखों हुनरमंद लोगों के हाथ का काम छीन लिया है और उनकी रोजी-रोटी व सामाजिक प्रतिष्ठा को खत्म ही कर दिया है। इस कहानी का कैनवास बहुत बड़ा है, इस कथा की बुनावट बहुत महीन है और उसके संदेश केवल टेलर तक न रह के इस तरह के हर पेशे वालों तक बहुत दूर जाते हैं। इसलिए यह कहानी शीर्षक कहानी ही बनाने के सर्वथा योग्य है।
‘लो बजट’ कहानी एक नौकरी पेशा व्यक्ति प्रखर यानि हर उस आम भारतीय व्यक्ति की कहानी है जिसे अपने छोटे से बजट में एक आसियाना लेना है । प्रॉपर्टी डीलर तेजपाल के सेल्समैन की तरह के लड़के उसे अपने साथ ले पुरानी बस्ती के खाली पड़े गंन्दे मकान लगायत नई बिल्डिंग तक के फ्लैट तक में ले जाकर उसके बजट के अंदर के संभावित मकान दिखाते हैं,ऐसे बहुत सारे गंदे और छोटे मकान देख देखकर प्रखर और उसकी पत्नी मंजरी झुँझला जाते हैं , क्योंकि ऐसे सब मकान या तो काकरोचों से अटे पुराने गन्दे घर हैं या बहुत छोटे दड़वे। प्रखर की झुंझलाहट से रिसाया हुआ तेजपाल एक दिन बहुत निर्मम होकर कहता है कि "जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा बनेगा, आप क्या समझ रहे हैँ मकान खरीदने को? इतना आसान है क्या?" इसके बाद तेजपाल परोक्ष रूप से प्रखर को उसके लो बजट के लिए शर्मिन्दा करता चला जाता है। तौहीन से तिलमिला कर प्रखर अगले दिन अपने मित्र संभव के साथ मकान देखने निकलता है , इसी क्रम में भटकते हुए एक विज्ञापन देख कर वह एक नई कॉलोनी में निर्माणाधीन मकान का सौदा करने के लिए दोस्त की कार से जाता है तो पता चलता है कि ऐसे मकान बहुत खराब है, दरअसल दूर दराज के गांव के किसानों की जमीन खरीदी जाकर अनेक विल्डर उन्हीं ग्रामीण रास्तों पर विल्डिंग बना रहे हैं , जिनके पास न टाउनशिप से जुड़े स्कूल, अस्पताल जैसे जरूरत के संसाधन हैँ , न समुचित रास्ते। वहाँ निराश से हो कर लौटते दोनों मित्र किसी कृषक के खेत का एक टुकड़ा खरीद कर स्वयं अपना मकान बनने की योजना बनाते हैं कि लौटने का रास्ता जाम मिलता है ,पता लगता है कि किसी किसान ने कर्ज की वजह से आत्महत्या कर ली है औऱ गुस्साए हुए किसान रोड रोके खड़े हैँ। यहां आकर प्रखर को लगता है कि सिर्फ उसी का नही ,सबका लो बजट हे सबकी चादर छोटी है और किसी के पाँव नही पसारे जा पा रहे है । वह किसान भी किसी बिल्डर को अपनी जमीन बेचना नही चाहता था क्यों कि पुरखो की निशानी थी लेकिन मोसम की मार बैकं कर्जे ,खराब बीज और खाद ने उसे पूरी तरह तोड़ डाला, प्रखर को असपास का विकास, नीतियाँ, व्यवस्था व इंसानियत ही लो दिखती है।
‘उलझी यादों का रेशम’ का वितान यादो में उलझे रेशमी धागो के सहारे बुना गया है। एक हंसता खेलता बहुत सुखी परिवार है , छोटी आमदनी ,
सामान्य रहन सहन पर हमारे आस पास की हर गृहस्थ्ज्ञी की तरह का घर पति पत्नी मौन रह कर एक दूसरे के ही साहचर्य में सुख में डूब कर जीते हुए रह रहे हैँ कि अचानक पत्नि की मृत्यु हो जा ती है , इस बीच बड़ी बेटी की शादी हो चुकी है जो उसी शहर में रहती है। बेटा कहीं दूर अपने जॉब पर है तो दूसरी बेटी भी बाहर है। अचानक हुई मां की मृत्यु के बाद बड़ी बेटी मायका, खामोशी में डूबे पिता भुलक्कड़ से हो चले उत्साहहीन सी जिंदगी जीते पिता याद आते है जो कि न कोई दर्द बताते न पीड़ा न कोई आशा। एक दिन पिता को देखने पहुंची माला को पिता ठोकर खाकर जीन पर गिरे मिलते हैं तो वह तुरंत उनकी परिचर्या कराती है और अस्तव्यस्त घर को ठीक कर उन्हें खाना बनाती है तथा बिस्तर पर लिटा कर शाम का खाना टेबल पर रख कर अपने घर लौट आती है कि सुबह किसी सपने से उबर के असमय जाग जाती है तो पिता की चिन्ता में उनके घर जा पहुंचती है जहाँ घर सूना पड़ा है पिता कही नही हैँ , वे कहाँ गये होगे ? यह सोच कर उन्हें सब जगह खोजा जाने लगता है और धीर धीरे उम्मीद खत्म होने लगती है कि अचानक एक आश्रम से फोन आता है तो बदहवास माया और वरूण आशा से उस आश्रम में देखने जाते हैँ तो पता चलता है कि एक दिन बेहाशी की हालत में उनके पिता किसी को मिले थे तो इस आश्रम में लाया गया था , जहां अपनी गुम याददाश्त के साथ वे कुछ दिन जिये और एक दिन समाप्त हो गये थे । एक अनाम शख्शके रूप में। मरने के एक साल बाद उनका नाम आश्रम में लिखा जाता है क्योंकि अब तक वे एक नंबर के रूप में दर्ज थे , पिता की स्मृति,उनका व्यक्तित्व और संजीदगी से कहती ये कहानी प्रज्ञा की भाषा के लिए खूब याद की जायेगी।
तेरहवीं दस्तक उम्र की तेरहवीं पीड़ी चढ़ रहे किशारों खासकर लड़कियो के मनोविश्लेषण की कहानी है। टीन एजर सिम्मू की मां को आसपास की लड़कियों में अपने मांग बाप के प्रति एक अलग तरह का गुस्सा नजर आता है तो वह चैतन्य हो कर अपनी बेटी के आचरण पर भी नजर रखने लगतीे है। वह उसके मानसिक द्वंद्व को पहचानने का प्रयास करती है , पड़ोसी और उनकी पत्नी अपनी किशोरावस्था की नौकरानी राधा के लिए थाने तक जाते हैं, क्योंकि उसकी बड़ी बहन आशा उसे डांटती है , यह डाँटना राधा को पसंद नही है और जब एक शाम पूरे दिन भर बाहर रह कर वह लौटती है तो बहन उसे पीट देती है जो राधा को अखरता है। जिसकी वजह से राधा को थाने ले आये हैं बत्रा लोग। इस कहानी में किशोर बच्चों पर लादे जा रहे मां बाप के सपने, पढ़ाई के पाठयक्रम, घर के काम सीखने की हिदायतें "बड़ी हो गयी हो लिहाज से रहो " जैसे अभिभावकीय निर्देशों के कारण द्वंद्व में जीती किशोर लड़कियों का मनोजगत खूब उभर के आया है , जिसमें कि अंत में पड़ौसी मित्तल साहब के घर में नए टेलीविजन की मांग पूरी न होने की वजह से बेटी द्वारा पंखे में फांसी लगा लेने की घटना होने पर घबराई हुई नायिका अपनी बेटी सिम्मू से कहती है कि "बेटा हम हर दुख में तुम्हारे साथ है और रहेंगे , पर तुम नही जाना कहीं ।" यह वाक्य एक संदेश भी है और मॉ की आर्त्त पुकार भी।
"तबाह दुनिया की दास्तान " नामक कहानी में कॉरपोरेट जगत में एक छोटी सी नौकरी करते विनय की कथा है । कहानी कहने वाला (उत्तम पुरुष )भी उसी कम्पनी में वही जॉब करता है। विजय अपनी पत्नी एक बेटी भाई , बहन और पिता व मां के साथ रहता है और अपनी छोटी सी कच्ची पक्की गृहस्थी की बातें सुनाता रहता है। अचानक एक दिन विनय फोन पर कहता है कि "मेरे सारे सपने बिखर गए कल..-" और फोन कट जाता है। चिंतातुर साथी के मन में विनय के घर व परिवार की अनेक चिंताऐं उभरने लगती है और जब विनय मिलता है तो पता लगता है कि उसे महज यह दुख हुआ कि उसकी पसंद का मोबाइल फोन नही मिला है। छोटी से डिवाइज को ऐसा जानलेवा प्यार करने वालों का जमाना है यह।
"एक झरना जमींदोज" में इत्मीनान से प्यार करते एक प्रौड़ युगल की कथा है ।
प्रज्ञा की इन विवेचित कहानियों समेत संग्रह की बाकी सब कहानियां एक नये तेवर की कहानियां हैं, जो दूसरी लेखिकाओं से काफी अलग है। इन कथाओं का शिल्प, कथा कथन का बर्ताव, भाषा, मुहाविरा और विषय चयन अलहदा किस्म का है। स्त्री लेखिकाओं की स्त्री विमर्श की चिंरतन स़ी कथायें यहाँ नही हैँ। कहने का आशय यह कि यदि इन कथाओं से लेखिका का नाम हटा दिया जाये तो यह कहानी जिसने लिखी वह पुरूष है या स्त्री यह कदापि ज्ञात नही हो सकता। यह कला यह हुनर और अभिव्यक्ति प्रज्ञा की अपनी विशेषता है।
दिल्ली के पंजाबी उच्चारण भरे माहौल में रह कर भी प्रज्ञा की इन कहानियों की भाषा ठेठ भारतीय कस्बे , देहातों की भाषा है, जिसमें किस्सागोई और बतरस तो ऐसे टपकता है कि पढ़ने वाला मुंह बाये देखता रह जाता है। बतकुच्च कहानी में तो यह गुण चरर्मोत्कर्ष पर है। युवा पीड़ी के कथाकारों में प्रज्ञा तेजी से उभर के आई हैँ , उन्होंने कुछ बरस पहले ही लिखना शुरू किया है और जल्दी ही कथा विधा पर अपना अस्तित्व सिद्ध कर दिया। इस संग्रह की शीर्षक कहानी " मन्नत टेलर्स" तो सर्वश्रेष्ठ कहानी है ही ,अंधेरे के... तेरहवीं दस्तक, लो बजट, पिछली ब गली और उलझी यादों के रेशम भी अपने वर्ण्य विषय में अदभुत कहानियां है।

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