पथराई हुई औरत Neelam Kulshreshtha द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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पथराई हुई औरत

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

[ अब तक आपने लेखिका की चार कहानियां 'औरत सीरीज़ 'की पढ़ीं हैं -'वो दूसरी औरत', 'कटी हुई औरत ', उस पार की औरत ', 'मोहरा बनाम औरत '. अब पढ़िये कहानी -"पथराई हुई औरत']

निशा ने उसके दोनों कंधे पकड़ कर झिंझोड़ा, " दिया ! होश में आओ. "

दिया इतना झिझोड़े जाने पर भी अचल रही. अपनी भावशून्य बड़ी बड़ी आँखों से उन्हें देखती रही निशा हैरान हो गई कि उस पर कुछ असर नहीं हो रहा. वह वैसी ही प्रतिक्रियाविहीन है. निशा घबरा गई, "इसकी हालत तो बहुत गम्भीर है. "

दिया की माँ रोली का गला भर आया, "एक महीने से यह ऐसी ही हो रही है. बड़ी मुश्किल से दूँ ध या जूस पिलाती हूँ. "

निशा ने शिकायत की, "तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया ?"

'सोचा तो बहुत था किंतु ऐसी बातो के लिये संकोच होता है. ". 

"तो तुम अब मुझे परायों में गिनने लगी हो ?"

"नहीं, ये बात नहीं है खबर करती भी तो क्या कि बेटी इश्क में चोट खाकर पत्थर हो गई है ?" कहते कहते वह सिसक उठी. 

दिया बिखरे बालों में घुटनों पर अपनी थोड़ी टिकाकर ऐसे बैठी थी कि जैसे वहाँ है ही नहीं. निशा ने धी में से उससे पूछा, "दिया !क्या आज मुझसे नमस्ते भी नहीं करोगी ?"

दिया बुत बनी रही. निशा पलंग से उठ खड़ी हुई. फिर उसने दिया की थोड़ी पकड़ कर ऊपर उठाई, "दिया ! मैं तुम्हीं से कह रही हूँ. "

दिया ने अपनी कातर आंखे उसकी आँखों में डालीं, उनमें एक महीन पह्चान उभरी फिर मिट गई. अचानक निशा ने दो चांटे उसके गाल पर इतने ज़ोर से मारे कि वह तिलमिला कर रोने लगी. रोली घबराकार खड़ी हो गई, "निशा !ये क्या कर रही है ? पागल हो गई है. ?"

" मैं जो कर रही हूँ सोच समझकर कर रही हूँ. "कहकर उसने दिया को झिंझोड़ा, " मैं इतनी देर से तुमसे बात करना चाह रही हूँ ---उत्तर क्यों नहीं दे रही ?ये मुठ्ठी में क्या छिपा रक्खा है ?"

"कुछ भी नहीं. "दिया ने और ज़ोर से मुठ्ठी भींच ली. 

"क्या है दिखा तो सही ?" निशा ने ज़बरदस्ती वह खोलने की कोशिश की, पर सफ़ल न हो सकी तो बोली, "रोली ! तुम इसे पीछे से पकड़ो. "

'नहीं निशा ! इसे अपने हाल पर छोड़ दो. "

"आज मैं इसको इसके हॉल पर छोड़ दूँ ?याद नहीं है जब तुम नौकरी पर जाती थी तो मैं बार बार तुम्हारे घर आकर तुम्हारी में ड पर नज़र रखती थी. "

"निशा ! मैं जानती हूँ एक अच्छी पड़ोसन की तरह तुमने इसे चार पाँच वर्ष तक सम्भाला है. इसकी में ड नहीं आती थी तो तू इसे अपने घर ले जाती थी. मैं तेरे वो अह्सान कैसे भूल सकती हूँ ?"

" वो अह्सान नहीं थे. दिया ने में रे भी तो मात्रत्व को पूरा किया था उसी हक से कह रही हूँ इसे कसकर पकड़. ". रोली ने घबराते हुए दिया को पीछे से पकड़ लिया. निशा ने पूरी ताकत से दिया का हाथ खोल लिया. उसमें एक मुड़ा तुड़ा कागज़ था. 

रोली सिसक उठी, "जिस दिन से संजय का कोई दोस्त इसे ये पत्र दे गया है, उसी दिन से ये पत्थर जैसी हो गई है. "

दिया ने उसके हाथ से वह पत्र छीनना चाहा, "ये में रा है, संजय की आख़िरी अमानत ---प्लीज़ ! इसे मत लीजिये. "

निशा ने उसे डांटकर बिठा दिया और ज़ोर ज़ोर से पत्र पढ़ने लगी.. "दिया ! हम लोग शादी के सपने देख रहे थे. में रे पेरेंट्स ने भी तुम्हें पसंद कर लिया था मैंने तुम्हें सगाई की अंगूठी भी पहना दी थी लेकिन एक नई 'सिचुएशन सामने आ गई है जिससे में री ज़िंदगी बदलने जा रही है. तुम्हें तो पता है कि मैं कैरियर के लिए ह में शा से स्वार्थी रहा हूँ और मुझे ये भी अच्छी तरह पता है कि मैं तुम्हें बहुत बड़ी तकलीफ़ देने जा रहा हूँ. हुआ ये है कि कम्पनी की' ओनर '[मालिक] की बेटी मुझ पर में हरबान हो गई है और वह शारजाह में अपनी कम्पनी की एक ब्रांच खोलने जा रहे हैं. उसके लिए मुझे ही भेजेंगे. तुम मुझे एक अच्छे दोस्त की तरह समझने की कोशिश करना ----एक ब्राइट फ्यूचर --विदेश की एक कम्पनी में री झोली में आ गई है -----तुम ही सोचो ---क्या ये छोड़ना सही है ?. ये तुम्हें भी पता है कि मैं तुम्हें कभी भूल नहीं सकता लेकिन तुमसे अलग होना में री मजबूरी भी है - कभी तुम्हारा संजु. "

दिया पत्र सुनते हुए बिलख बिलख कर रो रही थी. 

"प्यार की लाश को ऐसे कलेजे से लगाकर जीया नहीं जा सकता दिया !"कहते हुए उसने पत्र के टुकड़े टुकड़े कर दिए. 

"यह आपने क्या किया ?" वह पलंग पर गिरकर तकिये पर सिर पटकने लगी. 

रोली तो रो ही रही थी, "ये क्या हो गया ? में री तो समझ में नहीं आ रहा. हम लोगों ने खूब धूमधाम से सगाई की थी. "

"हाँ, बहुत बड़ा धोखा हुआ है. "

" मैं तो दिया से मिन्नतें करते करते हार गई हूँ कि कॉलेज जाना शुरू कर दे. बस इसका एक ही जवाब है कि ये आगे पढ़ाई नहीं करेगी. "

"ऐसा कैसे हो सकता है?एक बार तुमने में री सहायता मांगी थी. कुछ वर्ष मैंने इसकी देखभाल की थी. उन वर्षो में मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि दिया में री बेटी नहीं है. क्या हुआ जो हम लोग दूसरी कॉलोनी में रहने चले गए. मैं उसी अधिकार से कुछ दिन इसे अपने पास रखना चाह्ती हूँ . "

इससे पहले कि रोली कोई जवाब दे पाती दिया चीख उठी, "मुझे किसी के घर नहीं जाना ---अब मैं इसी घर में मरूंगी ---अब मैं जीना नहीं चाह्ती. "

निशा दिया के सिर पर हाथ फिराते हुए बोली, " में रे घर चलो तो सही, सब ठीक हो जायेगा. "

"आपके साथ तो हर्गिज़ नहीं जाउंगी. आपने में रा पत्र क्यो फाड़ा ?" दिव्या उसे क्रोधित आंखो से घूरते हुए बोली. 

"अभी तू गुस्से म़ें है ---नासमझ है --लेकिन एक दिन तू ज़रूर समझेगी मैं ने जो किया, वह सही था. ज़िंदगी की अगर एक डाल कट जाये ज़िंदगी ख़त्म नहीं हो जाती. कहीं कोई आशा की कोंपल ज़रूर छिपी होती है जिसे ह में ढूँढ़ना होता है. "

" में रे जीवन में कोई कोंपल नहीं फूटेगी---संजय इतना गिर जायेगा, मैंने कभी सोचा भी नहीं था. "

"आदमी जो कभी नहीं सोचता ज़िंदगी में वही हो जाता है. मुझे व विवेक को देख लो, हमने एक दूसरे का प्यार पा लिया लेकिन एक बच्चे के लिये तरसते रह गये. हम लोग गम में एक बुत नहीं बन गये, अपना बच्चा मैंने तुम में ढूंढ़ लिया था ---चल हाथ मुंह धो ले और मेरे साथ चल. "

दिया जब चलने को तैयार नहीं हुई तो निशा ने रोली से कहा, "जब ये मान जाये तो तुम इसे मेरे पास छोड़ जाना या मैं इसे ले जाऊँगी. "

निशा के घर आकर चार पांच दिन बहुत बेचैनी में गुज़रे दिया फ़ोन पर बात करने को तैयार नहीं होती थी. आखिर एक दिन रोली व उसके पति दिया को निशा के यहाँ छोड़ ही गये. निशा ने दिया के रहने के लिये कोठी की टैरेस वाला कमरा चुना. इस टैरेस पर आठ दस फूलों के गमले थे. व कमरे आगे एक टीन शेड था. खिड़की के पास ही मनी प्लांट की बेल ऊपर से नीचे तक झूम रही थी. कुछ फ़र्न के हैंगिंग पॉट बालकनी में लटक रहे थे. उसके पति इन दिनो फ़्रांस एक ट्रेनिंग के लिये गये हुए थे इसलिये वह रात में दिया के साथ ही सोती थी. 

दिन भर तो निशा दिया को नीचे काम में या टीवी में उलझाये रहती थी. दोपहर को आराम करने वे उपर आ जाती थी. शाम को अक्सर दिया टैरेस पर कुर्सी पर बैठे बैठे गुमसुम आसमान को घूरती रहती थी. --- पिछली बातो को याद करने से उसके गालो पर आंसू बहने लगते थे --कैसे एक बर्थडे पार्टी में एक कोने में संजय ने उसे घेरकर तुरंत ही कह दिया था, " तुम्हें देखकर एसा लग रहा है मेरी तलाश पूरी हो गई है. "

"किस बात की तलाश, "वह उसकी बेतक़्क़लुफी पर हैरान हो गई थी

"अपने प्यार की.”

" वॉट ? अभी आप मुझको जानते ही कितना हैं ?

"आई एम लव इन फ़र्स्ट साइट. "

"आर यू जोकिंग '?"

"नो, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ "

" मेरी ज़िंदगी का फैसला मेरे पेरेंट्स करेंगे. "

"तो चलिये आपके पेरेंट्स से मिल लेते हैं. "

वह अकड़ गई थी, "पहले मुझसे तो ठीक से मिलिये, पहले मैं तो आपको पास कर दूँ. "

संजय से एक महीने नेट पर चैट करके, सी सी डी या बरिस्ता में दो तीन मुलाकातों के बाद उसे ऐसा

लगने लगा था जसे कोई बेशक़ीमती चीज़ उसकी मुठ्ठी में कैद हो गई है, उन दोनों की रुचियाँ भी एक सी थीं, बस उसे शांत संतुलित जीवन पसंद था जबकि संजय तेज़ आसमान में उड़ना चाहता था. उसी तेज़ उड़ान में ये भूल बैठा कि जिसे ज़िंदगी की तलाश माना था, वही ज़िंदगी में पीछे छूट गई. 

उस टैरेस वाले कमरे में जब दिया की नींद खुल जाती तो वह कमरे से बाहर निकल कर कुर्सी पर कोई पुस्तक पड़ने की कोशिश करती बैठ जाती. पड़ते पड़ते अक्सर उसकी नज़र सामने वाले बंगले पर पड़ जाती. उसकी छत को झोंपड़ी का आकार देकर ख़ूबसूरती प्रदान की गई थी. उस छत की फेंसिंग से हरी बेल की पंक्तियां नीचे झूल रही थी. सामने का लॉन एक पंक्ति में सजे गमलो से, रास्ते पर गड़े रंग बिरंगे पत्थरों से भव्य लगता था, जिनके बीच थी झुकी हुई एक भव्य नारी की मूर्ति जिसकी मटकी से फुव्वारा का पानी बहता रहता था. इस में रहने वाले दो बड़ी का रो में काम पर चले जाते थे. इस विशाल अभिजात्य भरी भव्यता से अलग दिखाई देती थी सिर पर मैला लाल स्कार्फ़ बांधे, लकड़ी के से हाथ पैर वाली एक दुबली पतली पिचके गालों वाली सूखी औरत. सुबह शाम उसके कपड़े ठीक ठाक होते थे -कभी मेक्सी या कभी साड़ी लेकिन दोपहर में वह अक्सर पेटीकोट पर पीली या काली टी शर्ट पहने घूमती रह्ती जिसके ऊपर के एक दो बटन खुले होते थे जिन में से झांक रहे होते थे झुर्रियो भरे अंग. 

वह औरत निरुदेश्य इधर उधर बंगले में चक्कर लगाती दिखाई देती, कभी सीढ़ियों पर बैठकार कुछ बड़बड़ाया करती, कभी लॉन में पड़े झूले पर कुछ सोचती बैठी रहती व उसी पर सो जाती थी. उधर दिया को निशा ज़बरदस्ती खाना खिलाने आती. वह कोशिश करने पर भी अधिक खाना नहीं खा पाती. निशा उससे पूछती कब कॉलेज जाना है तो वह बस उसे सूनी सूनी आंखों से देखती रहती या फुसफुसाकर कहती, "कभी नहीं. "

वह उसे बहलाने की कोशिश करती, "चल आज बाज़ार हो आये, मुझे कुछ टॉप व सूट लेने हैं. "

"मुझे कहीं नहीं जाना, मैं घर पर ही ठीक हूँ . "

"दिया ! अपने को संभालने कोशिश कर. "

" मैं किसके लिये सम्भलूँ ? क्यों सम्भलूँ? सब कुछ ख़त्म हो गया है. "

"एक चोट से ज़िंदगी तो ख़त्म नहीं हो जाती ?"

"ज़िंदगी बची ही कहाँ है ?"

एक दिन जैसे ही दिया नीचे से उपर आई देखा वह औरत अपने बंगले के बड़े फाटक की सलाखें पकड़े सामने उसे टकटकी लगाकर घूरते हुए खड़ी है. जो चेहरा दूर से दहशत जगाता था, वही रूखी सूखी बालो की लटो के बीच उसे मासूम लगने लगा. दिया ने उसे देखकर अपना हाथ हिलाया. वह औरत चुपचाप खड़ी रही प्रतिक्रियाहीन सी. दिया ने तीन चार बार कोशिश की लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ. एसा लग रहा था सामने निर्जीव आंखो का कोई पुतला खड़ा है. अलबत्ता उसका बदरंग लाल रंग का स्कार्फ़ ज़रूर फड़फडा रहा था दिया खिसियाकर बुदबुदा उठी, 'पगली !'फिर उसने कमरे में जाकर किताब पढ़ने की कोशिश की लेकिन पढ़ नहीं पाई, फिर सोचते सोचते न जाने कहा खो गई ----किसी ने उसका कंधा झिंझोडा, वह चौंक गई. देखा निशा अंटी हाथ में चाय का प्याला लिये खडी हैं, "पता है, मैं दो मिनट से तेरे सामने खडी हूँ, तुझे दिखाई नहीं दी?"

"जी ----. "वह ख़ुद भीचौंक गई, उसे क्या हो गया है---- वह औरत ?------- उसने चुपचाप उनके हाथ से प्याला ले लिया. उसका दिल कुछ सोचकर बहुत ज़ोर से धड़कने लगा. 

' 'कब से कह रही हूँ दिया ! अपने को सम्भाल. "अपने आंसू छिपाते हुए वह नीचे चली गई. 

दूसरे दिन दिया ने फिर उस औरत को सीढ़ियों पर खाने की थाली लिये हुए बैठे देखा, फिर देखा थोड़ा खाना खाकर वह वही सो गई. उसके खाने से गंदे मुँह पर मक्खिया भिंनभिना रही थी. वह अलमस्त सो रही थी. ------दिया को जुगुप्सा हो आई ---कैसे म्रतप्राय हो गई है ये औरत ? थाली में बचे हुए खाने पर कौये टूट पड़े. जब उसकी नींद खुली तो फिर वह फिर से उस थाली में से खाने लगी. खाना ख़त्म होने पर अंदर जाकर थाली को निर्विकार अंदर रख आई जैसे कुछ हुआ ही नहीं है. 

दो दिन बाद ही उसकी मम्मी आ गई, "दिया ! कैसी हो ?"

उसने होठों को जबरन खींचकर मुस्कराने की कोशिश की. 

"देख में तेरे लिये क्या लाई हूँ. "कहते हुए उन्होने एक हेरम्स पेन्ट, एक थ्री फ़ोर्थ व दो टॉप सामने फैला दिये.. 'तुझे पता है तेरे मामा की बेटी की शादी इसी इतवार को है, अचानक तय हो गई है, लड़का यू. के,. जा रहा है में तुझे लेने आई हूँ. जल्दी पैक कर ले, बाज़ार से तेरे लिये संगीत व शादी के लिये ट्रेडिशनल लहँगे लेते चलेंगे. "

"मुझे किसी की शादी में नहीं जाना. मैं किस मुंह से जाउंगी ?"

"कैसी बाते करती है --क्या एक धोखेबाज़ लड़के के पीछे जीना छोड़ देगी ? "

वह बिलखकर बिलखकर रोने लगी. निशा ने रोली के कंधे पर हाथ रख दिया व इशारा किया की वह उस पर ज़ोर ना डाले. वे दोनो बाहर आ गई, निशा फुसफुसाई, "अभी मेरा लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है. "

"क्या है तेरा लक्ष्य ?"

"ये पूरा होने पर ही पता लगेगा. "

उस स्‍त्री की गतिविधियों पर नज़र रखना दिया की दिनचर्या बन गया था. एक दिन वह स्‍त्री फिर फाटक के पास पर खड़ी थी, उसने गहरा गुलाबी टॉप पहन रक्खा था. दिया ने हाथ हिलाया लेकिन वह खाली आंखो से पत्थर बनी उसे घूरती रही. 

"औरत है या चलती फिरती लाश !"दिया सोच में पड़ गई. --- कहीं वह भी तो ऎसी नहीं होती जा रही ?----उसने इन दस दिनो में किया ही क्या है ? एक किताब तक तो पढ़ी नहीं है ---वह बस आसमान में क्या खोजती रहती है ?या शून्य में क्या टटोलती रहती है ? आंटी जब नीचे कमरे में टी वी के सामने ज़बरदस्ती बिठा देतीं हैं तो भी सिर्फ़ उसकी आँखें टीवी पर गढ़ी रहतीं हैं, दिमाग़ तो खोखला हो न जाने कहाँ भटकता रहता है। ---उसके क्या कुछ हाथ आया है ? भाँय भाँय करता अकेलापन, बस ? ----अरे ! उसे तो इतना भी होश नहीं रहा कि निशा आंटी से इसके अतीत के बारे में पूछती. 

इससे पहले आंटी उसके लिये ऊपर चाय लेकर आती, वह ही नीचे उतर आई, "आंटी ! आज मैं चाय बनाउंगी. "

निशा खुश हो गई, "ज़हे नसीब, आज तुम्हारे हाथ की चाय पीने को मिलेगी. "

दिया ने उसके हाथ में प्याला देते हुए पूछा, "सामने के बंगले में एक अजीब सी औरत घूमती रहती है, वह कौन है ?"

"चलो इतने दिनो बाद ही सही तुमने शिवांगी के लिये पूछा तो सही. यह सामने के बंगले वालों की सबसे बड़ी बेटी है. "निशा मन ही मन ख़ुश हो उठी वह अपने मकसद के करीब जा रही है. 

" में तो समझ रही थी कि कोई पगली नौकरानी होगी, जिसे तरस खाकर इन्होने रख लिया होगा. इसे हाथ हिलाओ तो इस पर कोई रिएक्शन नहीं होता. इसकी प्लेट में से कौये खाना खा जाते हैं, इस पर कोई असर ही नहीं होता. "

" तुम सही कह रही हो। ये दुख से पथरा गई है. ये कभी बहुत सुन्दर लगती थी लेकिन अपनी किस्मत इंसान नहीं बदल सकता लेकिन अपने मन की मज़बूती से अपने जीवन को बिगड़ने से बचा सकता है. अपने जीवन में उदेश्य पैदा कर सकता है. "

"इसकी तो बॉडी भी आड़ी टेढ़ी अजीब लगती है. "

"जिसे अपने शरीर का ही होश न हो, वह क्या संभालेगी ?इसकी एक बहिन अमेरिका में रहती है. यहाँ तो एक भाई व भाभी है. इसके पेरेंट्स मर गये हैं. सुबह शाम भाभी इसके कपड़े बदल देती है. दोपहर में ये मनमानी करती रहती है. तुमने देखा ही होगा बंगले के गेट पर हमेशा ताला पड़ा होता है

" हाँ,. देखा है. क्या ये शुरू से ही ऐसी थी ?"

"नहीं शिवांगी बहुत प्यारी लड़की थी. हर समय बुलबुल सी चहकती रहती थी. बाद में किसी के इश्क में चोट खाकर इसकी ये हालत होती गई. "

'उफ़. "कहते हुए दिया की नज़रो में संजय का चेहरा घूम गया. -----क्या वह भी शिवांगी की तरह -----. 

"मुझे उसके विषय में अधिक तो नहीं पता लेकिन यह जिससे प्यार करती थी उसी से शादी होने वाली थी, 'इन्वीटेशन कार्ड्स ' भी छाप गए थे. शादी में पन्द्रह दिन बाकी थी. इसकी छोटी बहिन अमेरिका में एम बी ए कर रही थी. वह शादी में शामिल होने अमेरिका से आई. फिर पता नहीं क्या हुआ कि शिवांगी के प्रेमी ने इसे छोड़ उससे शादी कर ली. अपना बिज़नेस समेट कर अमेरिका जा बसा. तभी से ये पत्थर जैसी हो गई है. इसके चेहरे पर ना दर्द की लकीर उभरती है, ना कोई सन्वेदना. बस तब से पथरीला बुत बनी अपना जीवन व दुबला होता जा रहा शरीर घसीट रही है. "

दूसरे दिन दिया टैरेस पर खड़ी शिवांगी को देख रही थी. वह आद्तन मौन आकाश को देखती कुछ सोच रही थी. उसे उस पर तरस आ रहा था कि बिचारी की ज़िंदगी को एक पुरुष, पुरुष ही क्यों एक स्त्री, वह भी उसकी सगी बहिन ने शूलों से भेद दिया था. शिवांगी चलते चलते गेट तक आ गई थी. तभी वहाँ से कुछ बच्चे अपने स्कूल बैग लिए निकले. उनमें से एक को शरारत सूझी. वह शिवांगी के पास जाकर चिल्लाया, "पगली ----पगली. "

फिर सभी चिल्लाने लगे, "पगली ---पगली ----पगली. "

शिवांगी मौन रही, ना चिढ़ी, ना गुस्सा हुई, बस अविचल उन्हें देखती रही. 

सभी बच्चे शिवांगी पर पत्थर बरसाने लगे, निश्चित ही वे इस कॉलोनी के नहीं थे. पत्थर उसके बदन पर पड़ रहे थे तब भी वह बुत बनी खड़ी थी. तभी एक पत्थर उसके माथे से टकराया, दिया को लगा उसके माथे पर चोट लगी है, वह चिल्लायी, "ये तुम क्या कर रहे हो ?बच्चो ! ठहरो मैं अभी नीचे आती हूँ . "

दिया को चिल्लाते देख बच्चे भाग खड़े हुए. उस औरत के ख़ून बह रहा था. वह वैसी ही प्रतिमा सी खड़ी थी. 

दिया बेहद घबरा रही थी. उसने तुरंत नीचे उतरकर आंटी को बताया. निशा ने उसकी भाभी को फ़ोन किया. दिया अब भी थर थर कांप रही थी --- कहीं वह भी तो पथरीला बुत नहीं बनती जा रही ? --- महीनों से जड़ बनी हुई है. आगे भी बनी रही तो ऐसे ही चलती फिरती लाश में नहीं बदल जायेगी ? निश्क्रिय -----निरुदेश्य -----किसी काम की नहीं. 

"नहीं -----. "अचानक दिया की चीख निकल गई, " मैं ऎसा नहीं होने दूंगी. "घबरा कर उसने निशा को झिंझोड़ दिया, " आंटी !मुझे इसी समय घर जाना है. प्लीज़ !मुझे जल्दी मेंरे घर पहुंचा दीजिये. कल से मैं कॉलेज जाना चाह्ती हूँ. "

निशा के ये बात सुनकर चेहरे पर एक सफ़ल मुस्कराहट उभर आई. 

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नीलम कुलश्रेष्ठ