मानस के राम (रामकथा) - 53 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मानस के राम (रामकथा) - 53





मानस के राम

भाग 53



रावण का वध

रावण महाबलशाली था। तीनों लोकों में उसकी वीरता का डंका बजता था। राम भी शक्ति और पराक्रम में उससे कम नहीं थे। दोनों वीर योद्धा के बीच के महासंग्राम को समय भी सांस रोक कर देख रहा था।
दोनों योद्धा बराबरी से एक दूसरे को टक्कर दे रहे थे। एक के बाद एक शक्तिशाली बाण चलाए जा रहे थे। युद्धभूमि में एक भयंकर कोलाहल था।
रावण ने जब देखा कि किसी भी तरह राम को पीछे धकेलना संभव नहीं हो रहा है तो उसने अपनी माया का प्रयोग करना आरंभ कर दिया। वह अपने रथ को आकाश में ले गया। राम के कहने पर मतालि ने भी रथ को आकाश में स्थापित कर दिया।
अब आकाश रणक्षेत्र बन गया था। आकाश में दोनों तरफ से बाण चलाने लगे। देवराज इंद्र के रथ पर सवार राम अब आकाश में भी रावण को कड़ी चुनौती दे रहे थे। अपनी माया को विफल होते देखकर रावण ने दूसरी चाल चली। उसने अपने सारथी को आदेश दिया कि वह रथ को एक जगह स्थिर ना रखकर आकाश में उड़ाते हुए राम के रथ की तरफ बढ़े।
रावण की नई चाल देखकर राम ने मातलि से कहा,
"रावण का रथ स्थिर नहीं है। वह पूरे वेग से हमारी तरफ आ रहा है। तुम भी रथ को उसी प्रकार वेग के साथ रावण के रथ की तरफ ले चलो।"
राम की आज्ञा पर मातलि ने रथ को अपने नियंत्रण में रखते हुए पूरे वेग से रावण के रथ की तरफ दौड़ाना शुरू कर दिया। रावण भागते हुए रथ से बाण चला रहा था। राम भी उसके वार का उत्तर दे रहे थे। रावण का रथ अब हवा में इधर उधर घूमने लगा। मातलि भी चतुराई के साथ उसके रथ की बराबरी कर रहा था। दोनों तरफ से बाणों की बौछार हो रही थी।
रावण का रथ अब एक जगह स्थिर हो गया। मातलि ने भी रथ को उसके रथ के सामने स्थापित कर दिया। राम ने एक बाण चलाया जो रावण के शीश पर लगा। शीश धड़ से पृथक हो गया। परंतु कुछ ही क्षणों में रावण के धड़ पर नया शीश आ गया। यह देखकर राम हैरान रह गए। उन्होंने दूसरा बाण चलाया। इस बार भी शीश धड़ से अलग हो गया। उसके स्थान पर एक नया शीश आ गया।
राम बार-बार अपने बाण से रावण का शीश काट रहे थे। परंतु हर बार उसके धड़ पर एक नया शीश आ जाता था। उसके कटे हुए शीश उसके चारों ओर हवा में लटके हुए अट्टहास कर रहे थे।
यह देखकर सभी परेशान थे। देवता भी इस बात पर हैरान हो रहे थे कि यह हो क्या रहा है। देवराज इंद्र ने ब्रह्मा जी से पूँछा,
"पितामह यह कैसी माया है ? प्रभु राम द्वारा रावण का शीश काटने के बाद उसके धड़ पर एक नया शीश आ जाता है। राम रावण के हृदय पर वार क्यों नहीं कर रहे ?"
ब्रह्मा जी ने कहा,
"राम उसके ह्रदय में वार इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकी उसमें सीता का वास है। परंतु परेशान होने की आवश्यकता नहीं। रावण का अंत अब निकट है।"
नीचे लक्ष्मण, सुग्रीव, जांबवंत, हनुमान सभी आश्चर्य के साथ यह सब देख रहे थे। उन सभी ने प्रश्न भरी दृष्टि विभीषण पर डाली। विभीषण इस माया का रहस्य जानते थे। वह आकाश में राम के रथ के पास गए। हाथ जोड़कर बोले,
"प्रभु रावण को ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मिला है। उसकी नाभि में अमृत है। उसी अमृत के प्रभाव से एक शीश कटने पर दूसरा शीश आ जाता है। आप सबसे पहले आग्नेय अस्त्र का संधान कर रावण की नाभि का अमृत सुखा दीजिए। तत्पश्चात वार करके उसका संहार कर दीजिए।"
विभीषण द्वारा अपनी मृत्यु का उपाय बताए जाने से रावण ने क्रोध में कहा,
"विभीषण आज मैं उस क्षण पर सबसे अधिक पछता रहा हूँ जब तुम्हें लंका से निकालते समय जीवित छोड़ दिया था। तूने सदैव ही शत्रु की सहायता की है।"
रावण ने विभीषण पर चलाने के लिए एक बाण धनुष पर चढ़ाया। पर विभीषण उससे बच कर वापस भूमि पर आ गए।
विभीषण की सलाह पर राम ने आग्नेय अस्त्र का संधान कर रावण पर चलाया। रावण ने उससे बचने का प्रयास किया‌। पर कर नहीं सका। आग्नेय अस्त्र उसकी नाभि पर लगा। भीषण ऊष्मा उत्पन्न हुई। जिससे रावण की नाभि का अमृत सूख गया।
मातलि ने हाथ जोड़कर आग्रह किया,
"प्रभु ब्रह्मा जी ने बताया था कि आज रावण की मारकेश दशा लगने वाली है। यह वही घड़ी है। आप ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर रावण का अंत कर दें।"
राम ने ब्रह्मास्त्र चलाया। वह जाकर उसके ह्रदय पर लगा। रावण के मुख से अंत समय में श्री राम निकला। वह भूमि पर आ गिरा। उसका अंत हो गया।
स्वर्ग से पुष्पों की वर्षा होने लगी। देवता, गंधर्व आदि राम की जय जयकार करने लगे। धर्म ने अधर्म पर विजय प्राप्त कर ली थी।
वानर सेना में विजय का शंखनाद होने लगा। हर हर महादेव और जय श्रीराम के नारे लगने लगे। वानर सेना में हर्ष और उल्लास छा गया।

विभीषण का विलाप

तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाला रावण निर्जीव भूमि पर पड़ा था। जिस वैभव और ऐश्वर्य पर उसे अभिमान था सब अर्थहीन हो गए थे।
अपने भाई रावण की यह दशा देखकर विभीषण का मन द्रवित हो रहा था। अपने भाई की हत्या का कारण बनकर उनका ह्रदय ग्लानि से भर गया था। राम अपने रथ के साथ भूमि पर आ गए। वह रथ से उतरकर विभीषण के पास गए। उन्हें लेकर वह उस स्थान पर गए जहाँ रावण का शव पड़ा था। रावण के शव के पास बैठकर विभीषण फूट फूट कर रोने लगे। लक्ष्मण ने उन्हें सांत्वना देना चाहा। इस पर विभीषण रोते हुए बोले,
"मैंने अपने भाई रावण को सही मार्ग पर लाने के लिए उसे बहुत समझाया। अपने भाई का अपमान भी यहां। पर मैं उसे समझाने में सफल नहीं हो सका। मैं जानता था कि मेरे भाई का अंत निकट आ गया है। आज मैं अपने भाई के अंत का कारण बना। लंका नरेश आज भूमि पर मृत पड़ा है। लंका अनाथ हो गई है। पुलत्स्य वंश का आधार आज इस दुनिया से चला गया।"
विभीषण को विलाप करते हुए देखकर राम ने समझाया,
"मित्र विभीषण आप इस प्रकार विलाप ना करें। रावण ने अपने और राक्षस जाति के सम्मान के लिए वीरतापूर्ण युद्ध किया। रावण ने अंत समय तक अपने उद्देश्य के लिए लड़ते हुए वह गति पाई जो वीर योद्धा के लिए सर्वोत्तम गति है। अतः आप विलाप ना करें। रावण ने वीरोचित गति पाई है।"
विभीषण दुखी थे। राम उन्हें तसल्ली दे रहे थे।

मंदोदरी का रावण के शव पर विलाप

रावण की वीरगति का समाचार जब लंका पहुँचा तो सारी लंका में शोक की लहर दौड़ गई। मंदोदरी जिस चीज़ के लिए चिंतित थी वह घटित हो गई थी। समाचार पाते ही वह धन्यमालिनी के साथ विलाप करते हुए युद्धभूमि में आई।
अपने पति को रणभूमि में मृत पड़े देखकर उसका कलेजा फट गया। वह रोती हुई रावण के शव के पास बैठ गई। अपनी छाती पीटते हुए बोली,
"इसी दिन के लिए मैं बार बार आपको चेताने का प्रयास करती थी। मैं कहती थी कि सीता हमारे कुल के विनाश का कारण बनेगी। परंतु आप नहीं माने। उसका परिणाम है कि सारे कुल का विनाश हो गया। जिसके सामने देव, दानव, नाग, गंधर्व, आदि नहीं टिक पाते थे वह एक नर के हाथों मारा गया।"
धन्यमालिनी ने कहा,
"जिसके पास सारे विश्व का वैभव और ऐश्वर्य था आज वह इस प्रकार अपना सबकुछ लुटा कर प्राणहीन भूमि पर पड़ा है। अपने भाई और पुत्रों को खोकर भी आप यह नहीं समझ सके कि श्रीराम कोई साधारण नर नहीं हैं।"
मंदोदरी ने कहा,
"आपके जाने से अब कुल में अंधेरा छा गया है। अब इस लंका का अधिपति कोई नहीं है। आप अपनी हठ में राक्षस जाति को अनाथ करके चले गए।"
एक बार फिर मंदोदरी और धन्यमालिनी विलाप करने लगीं। राम ने विभीषण से कहा कि अब वही पुलत्स्य वंश के कर्णधार हैं। अतः वह अपने कुल की विलाप करती हुई स्त्रियों को सांत्वना दें। विभीषण ने मंदोदरी को समझाने का प्रयास किया। इस पर वह क्रुद्ध होकर बोली,
"तुम क्या मुझे सांत्वना दे रहे हो। तुम ही तो मेरे पति की मृत्यु का कारण हो।"
विभीषण ने कहा,
"भाभी आप जानती हैं कि मैंने सदैव भ्राता रावण को समझाने का प्रयास किया। जैसे कि आप करती थीं। मैं तो स्वयं चाहता था कि वह अधर्म का मार्ग छोड़कर आने वाले विनाश को टाल दें।"
जांबवंत आगे आकर बोले,
"महारानी मंदोदरी आपके पूर्वज पुलत्स्य ब्रह्मा जी के पुत्र थे। मैं भी उसी ब्रह्मा जी का मानस पुत्र हूँ। इस प्रकार मैं तुम्हारा संबंधी हूँ। तुम्हें अपनी पुत्री की तरह मानकर मैं कहना चाहता हूँ कि अपने पति की मृत्यु पर इस तरह विलाप मत करो। इस सृष्टि में मृत्यु अटल है। जो भी प्राणी यहाँ जन्म लेता है उसे जाना होता है। कोई कितना भी प्रिय हो मृतक के साथ नहीं जा सकता है। अतः इस प्रकार शोक ना करें।"
"आप जो कह रहे हैं वह सत्य हो सकता है। परंतु जिस स्त्री का पति उसकी आँखों के सामने मृत पड़ा हो उसके लिए धैर्य रखना अत्यंत कठिन है।"
तभी रावण के नाना माल्यवंत भी रोते हुए वहाँ पहुँचे।

माल्यवंत द्वारा राम को विजेता घोषित करना

रावण के शव के पास पहुँचकर माल्यवंत ने कहा,
"हे पुत्र तुम तो परम ज्ञानी थे। पर अपने अहंकार में इतने बड़े सत्य को अस्वीकार करते रहे कि तुम साक्षात नारायण से टकरा रहे हो। यदि तुमने इस वृद्ध की बात सुनी होती तो मुझे इस प्रकार तुम्हारी मृत्यु पर शोक प्रकट ना करना पड़ता।"
माल्यवंत ने राम से कहा,
"हे अयोध्या के नाथ मैं अभागा रावण का नाना माल्यवंत हूँ। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।"
राम ने हाथ जोड़कर कहा,
"आपकी बुद्धि और सदाचार के बारे में मैंने विभीषण जी से कई बार सुना है। आप भी मेरा प्रणाम स्वीकार करें।"
"मैं लंका की तरफ से आपके समक्ष आत्मसमर्पण कर आपको विजेता घोषित करता हूँ। लंका को जीतकर अब आप इसके राजा बन गए हैं। लंका की सारी संपत्ति आपकी है। लंका और उसके निवासी अब आपके आधीन हैं। बस एक निवेदन है कि लंका के निर्दोष वासियों पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखिएगा।"
राम ने विनीत भाव से कहा,
"माल्यवंत जी लंका निवासियों से मेरा कोई बैर नहीं है। मुझे लंका की संपदा और उसके सिंहासन का कोई लोभ नहीं है। मैंने यह युद्ध राज्य पाने के लिए नहीं किया। यह युद्ध करने का मेरा उद्देश्य रावण को उसके अधर्म का दंड देकर अपनी पत्नी सीता को सम्मानपूर्वक ले जाना था। मैंने तो युद्ध आरंभ होने से पहले ही लंका का राज्य विभीषण जी को दे दिया था। लंका सदैव लंकावासियों की ही रहेगी।"
राम की बात सुनकर माल्यवंत बहुत खुश हुए। राम के प्रति कृतज्ञता दिखाते हुए उन्होंने उनके सामने अपना मस्तक झुका दिया।