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मानस के राम (रामकथा) - 51





मानस के राम

भाग 51



रावण का लक्ष्मण से सामना

दोनों पक्ष पूरे जोश से एक दूसरे का सामना करने के लिए युद्धभूमि में आमने सामने थे। एक तरफ जय लंकेश तो दूसरी ओर हर हर महादेव के नारे लगाए जा रहे थे। दोनों ही पक्ष अब युद्ध का परिणाम निकालने के लिए उद्धत थे।
रावण ने युद्धभूमि में आते ही अपने धनुष की प्रत्यंचा की टंकार से इस बात की घोषणा की कि अब वह युद्ध का अंत करने स्वयं आया है। युद्धभूमि के बीच में उसका रथ खड़ा था। उस रथ पर रावण कवच तथा बहुत से शस्त्र धारण किए हुए बड़ी शान के साथ आरूढ़ था।
विभीषण ने राम की तरफ देखा। उनके शरीर पर कोई कवच नहीं था। पैरों में पादुकाएं भी नहीं थीं। कंधे पर तूणीर और धनुष धारण किए हुए वह रथहीन भूमि पर खड़े थे। यह देखकर उनका मन द्रवित हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा,
"प्रभु रावण तो कवच पहन कर विविध शस्त्रों से युक्त रथ पर सवार है। पर आप बिना किसी सुरक्षा कवच के रथहीन हैं। इस प्रकार आप रावण का सामना कैसे करेंगे।"
राम विभीषण के ह्रदय में अपने लिए जो आदर और प्रेम था उसे समझते थे। उन्होंने कहा,
"आपके ह्रदय में जो मेरे लिए प्रेम है उसके कारण ही आप इस प्रकार चिंतित हो रहे हैं। पर मित्र आपकी चिंता व्यर्थ है। मैंने धर्म का कवच धारण कर रखा है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले की कभी हानि नहीं होती है। रहा रथ का सवाल तो मैं दृढ़ संकल्प के रथ पर सवार हूँ। उस पर साहस और शौर्य की पताका फहरा रही है। मुझे किसी अन्य शस्त्र की आवश्यकता नहीं। मेरे बाण अपने लक्ष्य को भेदने में सक्षम हैं।"
राम की बात सुनकर विभीषण के ह्रदय में जो वेदना थी वह समाप्त हो गई थी।

रावण ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को ललकारते हुए कहा,
"कहाँ हैं दोनों वनवासी भाई। हमारे सामने आओ और हमसे युद्ध करो। हम प्रतिज्ञा करके आए हैं कि अपने स्वजनों की हत्या का प्रतिशोध लेकर ही रहेंगे।"
रावण की ललकार सुनकर हनुमान अपनी गदा के साथ उसका सामना करने के लिए गए। रावण ने भी अपनी गदा उठा ली। दोनों में गदा युद्ध होने लगा। परंतु हनुमान अधिक समय तक रावण का सामना नहीं कर पाए। अंगद उनकी सहायता के लिए गया। पर वह भी टिक नहीं सका।
‌रावण ने एक बार फिर से ललकारा,
"क्या बात है ? दोनों वनवासी भाई भय से कहीं छिपकर बैठे हैं क्या ? क्या रावण का सामना करने की हिम्मत नहीं हो रही है जो इन वानरों को हमारे कोप का सामना करने के लिए भेज रहे हैं।"
रावण की बात सुनकर लक्ष्मण को क्रोध आया। राम से अनुमति लेकर वह रावण का सामना करने के लिए आगे आए। रावण के प्रलाप का जवाब देते हुए बोले,
"व्यर्थ की बातें मत करो रावण। तुम्हारे एक से बढ़कर एक महाभट वीर योद्धाओं को इस युद्ध में अपने प्राण गंवाने पड़े हैं। तुम्हारा सबसे प्रिय पुत्र इंद्रजीत भी मारा गया। परंतु अभी भी तुम्हें बुद्धि नहीं आई।"
लक्ष्मण की बात सुनकर रावण क्रोध में फुंफकारता हुआ बोला,
"आज हम अपने स्वजनों की मृत्यु का प्रतिशोध लेकर ही जाएंगे। तूने ही हमारेरे पुत्र इंद्रजीत का वध किया था। आज हम तेरा शव भूमि पर गिरा कर उसकी मृत्यु का बदला लेंगे।"
यह कहकर रावण ने अपना धनुष उठाकर बाण चलाया। लक्ष्मण ने उसके बाण का उत्तर अपना बाण चलाकर दिया। उसके बाद दोनों के बीच बाणों की वर्षा होने लगी। एक भयंकर युद्ध हो रहा था। रावण ‌जो तीर चलाता उसे लक्ष्मण विफल कर देते थे।
लक्ष्मण साहस के साथ रावण का सामना कर रहे थे। परंतु रावण के एक तीर ने लक्ष्मण के बाण को विफल कर दिया। लक्ष्मण आश्चर्यचकित रह गए। लक्ष्मण को परास्त होते देखकर राम आगे आए।
राम को देखकर रावण ने अभिमान से कहा,
"तुम वनवासी भाइयों को यह भ्रम हो गया है कि तुम रावण को पराजित कर सकते हो। हमारे कुलद्रोही अनुज विभीषण को झुठे प्रलोभन देकर तुमने अपनी तरफ कर लिया। उस द्रोही की सहायता से कुछ सफलताएं भी पा ली हैं। परंतु अब हम तुम दोनों भाइयों को मारकर यह युद्ध समाप्त करेंगे।"
राम ने कहा,
"रावण कहते हैं कि दंभ मति भ्रष्ट कर देता है। तुम्हारी मति भी भ्रष्ट हो गई है। अपने स्वजनों को खोने के बाद भी अपने पापों का तनिक भी पश्चाताप नहीं है। परंतु पाप का फल तो भुगतना ही पड़ता है।"
राम ने रावण पर बाण चलाया। उन दोनों के बीच युद्ध होने लगा।

रावण द्वारा विभीषण पर ब्रह्म शक्ति चलाना

रावण प्रतिशोध की आग में जल रहा था। वह राम का वध करके युद्ध को जीतना चाहता था। इसलिए बहुत ही आक्रामक तरीके से उन पर वार कर रहा था। राम बड़े धैर्य के साथ उसके वार का सामना कर रहे थे। कभी रावण का पलड़ा भारी हो जाता तो कभी राम का।
विभीषण उन दोनों के युद्ध को देख रहे थे। उनके मन में कुछ बात थी जो वह राम से कहना चाहते थे। जब रावण का पलड़ा भारी होने लगा तो वह राम के पास आए। उन्हें देखते ही रावण का क्रोध कई गुना बढ़ गया। वह गुस्से से बोला,
"विभीषण तू हमारे पुत्र इंद्रजीत का हत्यारा है। तूने ही उसका यज्ञ भंग करने में सहायता की थी। तेरे जैसे दुष्ट को जीवित छोड़कर हमने पहले बड़ी भूल की थी। पर अब तू जीवित नहीं बचेगा।"
रावण ने विभीषण पर ब्रह्म शक्ति से वार किया। राम ने देखा कि ब्रह्म शक्ति विभीषण के प्राण लेने के लिए उनकी तरफ बढ़ रही है। वह विभीषण के प्राण संकट में नहीं डाल सकते थे। उन्होंने आगे बढ़कर ब्रह्म शक्ति का वार अपने ऊपर ले लिया। ब्रह्म शक्ति के प्रभाव से राम अर्धमूर्छित अवस्था में आ गए।
वानर सेना में खलबली मच गई। विभीषण क्रोध में गदा लेकर रावण की तरफ भागे। परंतु रावण ने उन पर वार कर चित कर दिया। यह देखकर हनुमान और जांबवंत ने रावण पर अपनी गदा से आक्रमण किया। जांबवंत के एक वार ने रावण को अचेत कर दिया।
रावण के अचेत होते ही उसका सारथी रथ को वहाँ से निकाल कर ले गया।
स्वयं को संभाल कर विभीषण राम के पास आए। उन्होंने हाथ जोड़कर अपने प्राणों की रक्षा के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। उन्होंने पूँछा,
"आपने मेरे लिए अपने प्राणों को संकट में क्यों डाला ? आपका जीवन मुझसे बहुत अमूल्य है।"
राम ने कहा,
"आपने मेरे साथ मित्रता की है। मित्र के प्राण की रक्षा के लिए अपने प्राण दांव पर लगा देना मित्रधर्म है। लंका से निष्कासित होने के बाद आप मेरी शरण में आए थे। शरण में आए हुए की रक्षा करना एक क्षत्रिय होने के नाते मेरा धर्म है। मैंने आपको लंका का राजा बनाने का वचन दिया था। आपके प्राणों की रक्षा कर मैंने अपने उस वचन की रक्षा की है।"
विभीषण ने कहा,
"प्रभु आप अपने शिविर में चलकर विश्राम कीजिए।"
"नहीं मित्र वीर बीच में युद्ध छोड़कर विराम नहीं करते हैं।"

रावण की चेतना लौटी तो उसने देखा कि उसका रथ युद्धभूमि में नहीं है। यह देखकर उसने अपने सारथी पर बहुत क्रोध दिखाया। उसने कहा,
"तुम हमारे रथ को इस प्रकार युद्ध क्षेत्र से बाहर क्यों ले आए ? अब राम यही समझेगा कि हम कायर हैं। डरकर युद्धभूमि से भाग आए हैं।"
सारथी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया,
"महाराज आप अचेत हो गए थे। एक कुशल सारथी का कर्तव्य होता है कि युद्ध में यदि रथी के प्राण संकट में हों तो उसे सुरक्षित स्थान पर ले जाए। मैंने आपके प्राण बचाने के लिए ही यह किया था। मुझे क्षमा कर दें।"
रावण ने आदेश दिया,
"हमें पुनः युद्धभूमि में ले चलो। जिससे मैं उस राम से युद्ध कर सकूँ।"
सारथी रावण का रथ फिर से युद्धभूमि में ले आया।

युद्धभूमि में आकर रावण ने एक बार फिर अपनी प्रत्यंचा की टंकार से अपनी उपस्थिति की सूचना दी। वह गरज कर बोला,
"हम वानर सेना का संहार करने के लिए पुनः उपस्थित हो गए हैं। राम से कहो कि आकर हमसे युद्ध करे।"
राम ने उसके सामने आकर कहा,
"मैं तो तुम्हारे साथ युद्ध कर रहा था। पर तुम ही अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए युद्धभूमि से भाग गए थे।"
राम की बात सुनकर रावण चिढ़ गया। वह बोला,
"तुम अपने प्राणों की चिंता करो। हम अब तुम्हें और तुम्हारे छोटे भाई को मारकर इस युद्ध को समाप्त करेंगे।"
रावण ने अपने धनुष पर तामस अस्त्र का संधान कर राम पर चला दिया। राम ने अपने बाण से उस अस्त्र को काट दिया। यह देखकर रावण परेशान हो गया। उसने एक और दिव्यास्त्र चलाया। उसके प्रभाव से कई वानर और रीछ मारे गए। पर राम ने अपने बाण से उसे भी काट दिया।
खिसिया कर रावण ने माया का प्रयोग आरंभ कर दिया। राम के चारों ओर सुरक्षा का एक चक्र बन गया। जिससे रावण की माया का उन पर कोई प्रभाव ना पड़े। उसके बाद एक बार फिर भयंकर युद्ध आरंभ हो गया।
रावण एक के बाद एक बाण चला रहा था। राम उन्हें काट रहे थे।
सूर्य पश्चिम दिशा में आकर डूब गया। उस दिन के युद्ध का विराम हो गया।
रावण के दिल में जल रही प्रतिशोध की ज्वाला शांत नहीं हो पाई थी। उसने राम से कहा,
"सूर्य ने अस्त होकर तुम्हें कुछ और सांसें दे दी हैं। पर कल इसके उदय होते ही तुम्हारे जीवन का अंत हो जाएगा।"
राम ने कहा,
"रावण यह अवसर तुम्हें मिला है कि कल सूर्योदय तक अपने कुछ पापों का प्रायश्चित कर लो। कल इसका अवसर नहीं मिलेगा।"
दोनों तरफ की सेनाएं रात्रि विश्राम के लिए अपने अपने शिविर की तरफ लौट गईं।





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