ए मेरे वतन के लोगों .....  Alok Mishra द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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ए मेरे वतन के लोगों ..... 

ए मेरे वतन के लोगों .....
हमारे पोपटलाल जी वैसे तो देशभक्त है लेकिन स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर उनकी देशभक्ति चरम पर पहुंच जाती है । उस पर जैसे ही लता जी '' ए मेरे वतन के लोगों ..... "की आलाप लगाती है ;पोपटलाल का मन कुछ कर गुजरने को होने लगता है । पोपटलाल को यह भी समझ में आ गया कि वे कितने भी बड़े राष्ट्रभक्त हों यदि उनका खून सीमा पर नहीं बहा तो सब बेकार है । पहले पहल तो सीमा याने सरहद पर जाने हेतु अपनी पत्नी सीमा से समझौता वार्ता पर विचार किया । वे यह भी जानते है कि ऐसी द्विपक्षिय वार्ताओं में उनकी पत्नी ''वीटो जैसे शस्त्र का प्रयोग करने से भी नहीं चूकती है । सोच-विचार के बाद उन्हें देश की सीमा पर जाने के लिए घर की सीमा से पूछना उचित नहीं लगा ।
पोपटलाल देश के हृदय स्थल में रहते है । कुछ ही घंटों की दूरी पर अन्य राज्य की सीमा लगती है । उन्हें तो उस ओर जाने में भी ड़र लगता है क्याेंकि उस क्षेत्र के लोग जय कह कर अपने प्रदेश का उदघोष देश के उदघोष से उच्च स्वर में करते है । यहीं कुछ लोग दूसरे प्रदेश के लोगों से विदेशियों सा व्यवहार करते है । पोपटलाल को ड़र लगा इस प्रदेश से होकर देश की सीमा पर जाने में खतरा हो सकता है । रिस्क कौन ले .......... ? अपने को देश की सीमा पर खून बहाना है ; देश में नहीं ।
वे सोचने लगे किसी दूसरे प्रदेश की ओर से जाया जाए । इस ओर तो जातियों का बोल बाला है । लोग व्यक्ति को जातियों की सीमाओं ही देखते है । सरकारे इन सीमाओं को और स्थार्इ करती है । यहाँँ तो जो भी जातियों से हट कर बात करता है ; वो देश के अंदर ही शहादत को प्राप्त होता है । आप को पोपटलाल की जाति मालूम है क्या ?अरे भार्इ......... यह तो मुझे नहीं मालूम ; पोपटलाल को नहीं मालूम तो आप को कैसे मालूम होगी ? अब ऐसा बिना जाति का मानव इस प्रदेश में घुसा तो उसका क्या हाल होगा यह तो कोर्इ भी नहीं बता सकता । पोपटलाल दयनीय भाव से मेरी ओर ताकने लगे जैसे कह रहे हो '' अरे ओ लेखक ............. मुझे कोर्इ जाति तो दे दो । लेखक कभी अपने पात्र की इच्छा पूरी करता है क्या? पोपटलाल बिना जाति के देश की सीमा पर जाने के पहले इस प्रदेश में जाने के विषय में सोच भी नहीं सकते है ।
उन्होंने दूसरी दिशा से जाने पर विचार किया । इधर तो पढ़े-लिखे बेराजगारों की भीड़ है । यहाँँ तो विकास का बजट भ्रष्टाचार पर ही लग जाता है । यहाँँ सूटकेस पहुंचाओ रोजगार पाओ योजना प्रचारित है । अधिकारी नेताओं के चरण छूते है और नेता भी अस्थार्इ रुप से जेलों में निवास करते है । बेराजगार युवा चोरी-चकारी,ड़कैती और अपहरण जैसे स्वरोजगारों में अपना भविष्य तलाशते देखे जाते है । पोपटलाल को अपहरण से बहुत ड़र लगता है क्योंकि लाख-दो लाख तो घर में है ही नहीं और कहीं अपहरणकर्ताओं ने ''पेट्रोल जैसी महंगी चीज ही मांग ली तो...........? अब इधर से जाने का विचार भी कैन्सिल ......कैन्सिल तो बस कैन्सिल ।
इधर से चलते है उन्होंंने सोचा । अब वे जिधर को मुड़े उधर तो भाषाओं की बहस आम है । यहां भाषाओं से ही आदमी और इंसान की पहचान होती है । भाषाआें के आधार पर दंगे होते है , बंदे मरते है और बंद तथा हड़तालें होती है । भाषाओं के आधार पर ही चुनाव होते है ,नेता बनते है और सरकारें बनती है । प्रदेश में दूसरी भाषाऐं विदेशी भाषाओं की ही तरह तुच्छ है । ऐसी भाषा बोलने वाला तो उस भाषा में गालीयां खाता है जिसे वो समझ भी नहीं सकता । पोपटलाल ने सोचा कि यदि वे उधर जाकर रास्ता भूल ही गऐ तो भाषा की समस्या के कारण उनका भटकना निश्चित ही है । याने.......... इधर से भी नहीं जाया जा सकता है ।
पोपटलाल को कुछ कर गुजरने के लिए सीमा पर जाना जरुरी है । उनके इस महान कार्य में अनेंको भौगोलिक और आंतरिक सीमाऐं बाधा बन कर खड़ी है । उन्हें इन भौगोलिक , राजनैतिक और सैद्धांतिक सीमाओं से हट कर महिला अत्याचार ,अशिक्षा ,गरीबी और भुखमरी जैसी समस्याओं के रुप में भी दिखने लगी । अब पोपटलाल को देश के अंदर ही लकीरों के रुप में अनेकों सीमाऐं दिखने लगी है । वो अपने आप को सीमाओं से घिरा हुआ पाता है। उसे लगता है कि हर व्यक्ति अपनी सीमाओं में बंधा है । पोपटलाल के लिए अगला कदम भी किसी सीमा को लांघ ने के समान ही लगने लगा । अनेकता में एकात देखने वाले पोपटलाल को एकता में ...... अनेकता दिखने लगी । उसे लगा कि उसे देश की सीमा पर जाना है तो इन सीमाओं को लांघना होगा लेकिन यहाँँ से बिना कुछ किए कायरों की तरह निकलें तो कैसे ? सीमाओं के इस जाल को काट कर भी तो देश के लिए कुछ किया ही जा सकता है । अब पोपटलाल अपनी क्षमताओं को आंकने में लगे है कि किस सीमा को पहले पार करें । दूर कहीं भावुक और मधुर स्वर गूंज रहा है '' ए मेरे वतन के लोगों ...................।"
आलोक मिश्रा "मनमौजी"