मुख़विर - वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त राज बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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मुख़विर - वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त

उपन्यास-मुख़विर- राजनारायण बोहरे
समीक्षा दृष्टि- वेदराम प्रजापति ‘‘मनमस्त’’

मनुष्य का महत्व इस बात में नहीं है कि वह कितना धनी, कितना यषस्वी, कितना बली अथवा उच्च पदासीन है बल्कि मनुष्य का महत्व और मूल्यांकन इस बात में है कि वह कितना उदार, संवेदनषील एवं रचनात्मक है। मानवीय सदगुण जिस मनुष्य में जितने अधिक हैं वह उतना ही अधिक मूल्यवान है और मानवीय गुणों से रहित व्यक्ति मनुष्य की काया में होकर भी मनुष्य नहीं है बल्कि अन्य कुछ। अतः मानव मूल्य ही मनुष्य की पहिचान है। ये ही उसकी अस्मिता के चिर पुरातन एवं नित्य नूतन चिन्ह हैं। इन्ही चिन्हों का रेखांकन कथाकार श्री राजनारायण बोहरे जी के उपन्यास ‘‘मुख़बिर’’ में किया गया है।
यह मुख़बिर उपन्यास चम्बल की दस्यु समस्या से ग्रसित भूमि की अपनी कथा-व्यथा को बड़े मार्मिक भावों में दर्षाता है जो सत्य कथाओं की परिधि से हटकर सत्यता की भूमि निर्मित करता है।आज भी इस भूमि को दस्यु भूमि पर्याय से जाना जाता है। इसी भूमि को अपना मूल लक्ष्य रखकर, जन जीवन के त्र्रासित चित्रों को प्रदर्षित किया गया है जो आज के समय की भयावह बिडम्बना है। मानव सम्वेदनाओं का एक मुखर आईना भी है कृति मुख़बिर उपन्यास। इसमें क्षेत्र की विषेषता और विस्तार को सीता किषोर खरे के मार्मिक दोहों से स्पष्ट करने का अनूठा चिंतन है।

यथाः- जो भरका,बीहड़,नदी,जंगल, खार, कछार।
बागी की, अपराध की, सम्भावना अपार।।

दम्भ भरी कुछ वीरता, बान चढ़ो अभिमान।
बागी बन विचरन लगत,कर चामिल असनान।।

तकलीफें तलफत रहत, मजबूरी रिरियात।
न्याय,नियम चुप होत जब,बंदूकें बतियात।। पृष्ठ.18

कथा विस्तार की दृष्टि से उपन्यास के पच्चीस सोपान है जो उपयुक्त पात्रों की भाव-भंगिमाओं को व-खूबी दर्षाते है। उपन्यास के आवरण पृष्ठ का चित्रांकन ही उसकी कसौटी है। सम्पादकीय की संक्षेपिका भी कथा बाहुल्य का सांकेतिक उदार चित्रण है। अनुक्रमणिका पाठक की जिज्ञासा को सम्बल देती है पढने की सुविधा का। कथा विस्तार में ‘‘सुराग’’ को प्रथम स्थान देकर, गुस्सा और भूख के साथ, पकड़, कचैंदा, महमान, दास्तान, बहस-विवाद, हिकमत, चिठ्ठी एवं मुठभेड़ जैसे जघन्य पहलुओं को लिये बटवारा, गलतफहमी, कारसदेव, फिरौंती, सिनाख्त, संवाद एवं मुख़बिर के साथ फेहरिस्त, साबाष, केतकी, हेतम तथा हत्या, उपसंहार के साथ मुहिम तथा और इन दिनों....षीर्षकों के आईने में रखकर सारी समस्या मूलक पहल को बड़ी पैचीदी कथा व्यथा के साथ, सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोंणों को मनो वैज्ञानिकता लिये जन जागरण पटल पर, कथाकार श्री बोहरे जी ने बड़े साहस के साथ रेखांकित किया है।

उपन्यास की भावभूमि पटवारी गिरराज कायस्त(लाला) और उन्हीं के बालसखा लल्ला पंडित की व्यथा भरी जीवन दास्तान से किया गया है जिसमें चुनावी घोषणा के दायरे में मुख़बिर जीवन की दुर्दषा का भयावह मार्मिक चित्रण दर्षाया गया है।

यथाः- ‘‘मैं लल्ला पंडित के कान में फुसफुसाया- लल्ला जे लोग सांचऊॅं जालिम दीष रये है, दो बज गये और अब तक न खायबौ न पीयबौ हम जौंईं बेगार में इनके पीछे-पीछे भूखे-प्यासे भाजते फिर रहे है।’’पृ.9

मुख़बिर होने का अनूठा बिम्ब दर्षाया है। मुख़बिरी में ही तो गणेष को नीम के पेड़ से बाॅंधकर गोली मारी गयी थी। इस भयानक दृष्य में मुख़बिरों की जिंदगी कैसी होती है, का चित्रांकन है। पुलिस और डाकू तथा मुख़बिरों के व्यवहारों पर गहरी पकड़ है। गुस्सा और भूख सोपान में पटवारी और लल्ला पंडित के परिवार की व्यथा का दर्दीला चित्रण दिया गया है एवं बागी कृपाराम की दहषत भरे वातावरण का दृष्य उकेरा गया है।

तीसरा पायदान पकड़ में बस का लूटना तथा छः लागों को पकड़कर साथ ले जाने का दुर्दांत चित्रण है जिसमे केतकी का चीर हरण और सील हरण दृष्य मानव संवेदना को लज्जित होने के साथ द्रवित भी करता है। नारी जीवन की त्रासदी आज भी कितनी भयावह है। बागी लोग बीहड़ों में अपनी भूख ‘कचैंदा’ यानि गेंहूॅं के आटे में षक्कर और घी मिलाकर बनाए गये लड्डू खाये जाते हैं जिन्हें कचैंदा भोग कहा जाता है। यह बीहड़ जीवन में जीने का एक नए भोजन का तरीका है।

अगला सर्ग- मेहमान में मास्टर की खिरकारी का दृष्य है जहां हम मास्टर की जीप में भरकर लाये गये थे। ये मास्टर कहलाने वाले जीव पुलिस और बागियों के मुख़बिर थे यहाॅं मेहमानी में हमें कैसे रखा गया दर्द भरी दास्तानें हैं। यहाॅं पर हमें अखबार औैैैर मीडिया के कई खुले कारनामे पढ़ने को मिले जिसमें मीडिया द्वारा अखबार में अनूठी खबरें प्रकाषित की गईं थीं जो भटकावे भरी थीं।

यथाः-‘‘पुलिस ने घोसी गिरोह पर सिकंजा कसा, रेत खदानपर छापा’’

‘‘घोसी गिरोह की तलास में चरवाहे पकड़े- पुलिस की सर्च आरम्भ’’

‘‘गिरोह का सफाया होगा- पुलिस अफसरो ने दृढ़ता से सौगंध ली’’

‘‘डाकुओं से मुठभेड़ चार मरे एक घायल- मुड़कट्टा का हार चम्बल(रविवार 14 मार्च)’’ आदि आदि

दास्तान सर्ग में- बागी भी सामाजिक जीवन की तरह जीना चाहते हैं लेकिन मजबूरियां कहीं से कहीं ले जातीं हैं इस जंगली जीवन में भी मनोरंजन के कई साधन खोजते है जैसे पकड़ों से ही कहानी दास्तानें आदि सुनकर अपने आप को सामाजिक प्राणी बनाने की कोषिष करते हैं। समय को काटने और सार्थक बनाने का यह एक नवीन प्रयोग भी है लल्ला पंडित से ईष अवतार की कथाऐं सुनते हैं तो रामकरण से सीता किषोर के दोहे और विरहा। पटवारी से लूट-खसोट, दोनों ठाकुरों से आल्हखण्ड तथा केतकी से फिल्मी गीत सुनाए जाने के अनूठे प्रयोग कथाकार श्री बोहरे जी ने किये हैं। साथ ही बागी कृपाराम से अपबीती और परबीती दास्तानें जिसमें सामाजिक जीवन की हकीकतों को उजागर करने का कई लोकोक्तियों द्वारा नए तरीके से किया गया है।

यथाः- ‘‘अहीर, गड़रिया, गूजर, पासी ये चारों हैं सत्यानाषी’’
‘‘सुबह कौ निकरौ संझा घर आव,गड़रिया का जानें गेहूॅंअन कौ भाव’’

इस प्रकार दास्तानों के माध्यम से कृपाराम बागी द्वारा जातिगत दोषों को ही कहलाया गया है। जाति स्वभाव को उजागर करने का सुंदर प्रयास रहा है। षादी विवाह की रस्मों का जिक्र भी अनूठा है।

यथाः- ‘‘पंडित मार पटा तन दाबौ, होजा मौड़ा-मौड़ी चाईं-माईं’’
‘‘अहीर गड़रिया गूजर ये तीनों चाहें ऊसर’’

इस प्रकार से कई लोकोक्तियों को स्थान दिया गया हैैैै इस उपन्यास में कथाकार श्री बोहरे जी द्वारा मुठभेड़ सर्ग में सरकार और पुलिस की झूठी कार्यवाही में षासन की पोल खोली गई है। झूठी मुठभेड़ में बागी ष्यामबाबू का मारना बताकर प्रमोषन प्राप्त करने की रीति नीति दर्षाई गई है। बागी आपसी विवादों को आपस में बैठकर सुलझा लेते थे यह भी एक उत्तम प्रयोग हैै।

अतः अंतिम सर्ग....और इन दिनों...में सारी मुहिम निष्फल रही थी। ष्याम बाबू गिरोह नहीं मिल पाया था। सभी सोलह टीमें चप्पा-चप्पा छान रहीं थीं। यहाॅं पर सरकार की झूठी सच्चाई को पटल पर लाने का अच्छा प्रयास किया गया, पुलिस सूचना के क्रम में-

यथाः- ‘‘पर ताज्जुब था कि वह गायब था या हमारी नजरों से...और मीडिया पर छाया हुआ था। ष्यामबाबू या कृपाराम मूॅंछ मरोड़ते, हवा में गोलियाॅं दागते लगभग हर चैनल पर दिख ही जाते थे, व्यवस्था को ललकारते से।’’पृ.179

यहाॅं पर कथाकार बोहरे जी द्वारा षासन व्यवस्था की गहरी पोल खोलने का अच्छा प्रयास किया गया है।इसी क्रम में मुख़बिर षब्द की भी गहरी व्याख्या की गई है। गनपतिया मुखबिर के अनूठे चिंतन द्वारा-

यथाः- ‘‘गिरराज लल्ला- मुखबिरी कोई इज्जतदार काम नहीं है, कोऊ अपनी मर्जी से मुखबिर बनबौ भी नहीं चाहत, बो तौ कछू न कछू मजबूरी सामने होती है सो आदमी मुखबिर...यौं कहते-कहते लम्बी सांस ली थी उसने।’’पृ.179

यहाॅं पर श्री बोहरे जी ने क्या नहीं कह दिया मुख़बिर जीवन की सच्चाई का जो मानव जीवन के दर्दों की बड़ी गहरी पड़ताल है। यह मुख़बिरी की दास्तान कई संदर्भों को परोसती है चिंतनषील पाठक के सामने। श्री बोहरे जी अपने मन की बात कहने के लिये कई पात्रों को सामने लाकर उनके मुॅंह से अन्दर की दबी सच्चाई को कहते दिखे है।

यथाः- ‘‘एक बार गनपतिया बोला था कि हर ताकतवर आदमी के लिए मुख़बिरों की फौज चाहिए होती है, सो वह हर कीमत पर मुख़बिर ढूढ़ता है। कभी पैसे के लालच से तो कभी डरा धमकाकर अच्छे भले आदमी को मुख़बिर बना लेता है।’’

इस प्रकार बोहरे जी सामाजिक जीवन के दर्दीले पहलू को छूते दिखे हैं जिसमें सारी की सारी व्यवस्था वे-नकाब होती दर्षाई है साथ ही षासन तंत्र की छली व्यवस्था पर गहरी चोट भी की है जिसमें हर आदमी को किसी न किसी का मुख़बिर होना दर्षाया है।

यथाः- ‘‘एक जगह की खबरें दूसरी जगह देने वाला हर आदमी मुखबिर कहा जाता है। मैं तो सारे पत्रकारों और सारे किस्साबाजों को मुख़बिर ही मानता हूॅं। यौं कहते-कहते गनपतिया चुप रह गया था एकाएक।’’

इस उपन्यास में श्री बोहरे जी ने अनेक आषाओं के साथ समस्या के निदान का भी प्रयास किया है यह मुखबिरी और बागी समस्या जीवन के हर पहलू को छूती है फिर भी मानव जीवन निरंतर आषावादी भावनाओं के साथ चलता रहता है उपन्यास के द्वारा जीवन के कई अछूते प्रष्नों को छुआ है भाषा भी भावों के साथ कई गलियारों से गुजरी है। सैकड़ों पुराने दबे षब्दों को जुवान दी गयी है। सच कहें तो ये ग्रामीण षब्द ही भाषा के मूल षब्द है जो बाद में साहित्य का चैंगा पहनकर गुर्राते है अपनी साज-सज्जा पर। यदि उपन्यास के इन ऐसे षब्दों को संजोया जाय तो एक वृहद षब्दकोष भी बन सकता है जो साहित्य की षब्दावली का एक सम्बर्धन मानक भी हो सकता है।

इस प्रकार उपन्यास के सभी पायदान समृद्ध होकर वर्तमान को अनेक जागरुकता देते दिखे है जो समस्या के निदान में सहायक सिद्ध होंगे। भाषा का कलापक्ष और भावपक्ष काफी सषक्त रहा है भाषा उनकी अपनी है जो अपनी तरह बोलती है जिसे नकारा नहीं जा सकता है। इतनी गहन संवेदनाओं की और समाधानों की उड़ानों से भरी कृति मुख़बिर साहित्य संवर्धन में एक नए अध्याय का स्थान लेगी। इन्हीें समृद्ध आषाओं के साथ कथाकार श्री राजनारायण बोहरे जी साहित्य जगत के कुषल हस्ताक्षर है। धन्यवाद के साथ कलम की धारा अनवरत बहती रहे।
उपन्यासः-मुख़बिर कथाकारः-श्री राजनारायण बोहरे ’
प्रकाषनः 4715/21,दयानन्द मार्ग दरियागंज नई दिल्ली-110 002
मूल्यः- रू 250

सुभेच्छु
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त
गायत्री षक्ति पीठ रोड गुप्ता पुरा
डबरा,ग्वालियर (म.प्र.)