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शामियाना

कहानी- शामियाना

"रिश्तों की समझ नही है तुम्हें या रिश्तों की माँग से अनभिज्ञ हो तुम, उठा लेते हो बीच में अपनेपन की खुशबूदार अनुभूति जो पहले ही पीछे छूट चुकी है या पाट दी गयी है अपने नवीन आयामों के दायरों में। सरपट दौड़ती जिन्दगी की पटरी पर तुम यूँ ही मुँह बाये खड़े रहोगे कब तक? जो महकते थे जिनकी भीनी सुगन्ध से अन्तस सरोवार हो जाता था अब कृत्रिम भाव भंगिमाओं से चटख बस समाप्ति की आतुरता में दिखते हैं। यहाँ प्रेम का अस्तित्व तुम ढूँढोगे कब तक? प्रेम अहसास है अनुभूति है जो हाथ से हाथ तक नही दिया जा सकता उससे तो ह्रदयतल स्वत: ही भीगता है, तुम पागल सा उसे पाने की ललक में अपमानित होते रहोगे और तुम्हारे चटखने पर तुम्हें ही दोषी बना कर तुम्हें दिखायेगें अपने ठहाको की गूँज। ये तुम्हारा स्वार्थ है हाँ तुम स्वार्थी है...तुम अब वही हो जाओ जो सब हैं.......क्यों कि रिश्तों की समझ नही है तुम्हे।"
आँसुओं की गरम बूँदों को ऊँगलियों से रगड़ कर सृष्टि ने गहरी साँस ली और डायरी को बन्द कर ड्रार में रख दिया। पैन से हथेली पर चित्रकारी करते-करते असंख्य विचारों से रु-ब-रु होता हुआ दिल कुछ मचलता पर दिमाग कुछ सटीक न कह पाता।
रात का बारह बजकर पैतालिस मिनट हो चुका है सृष्टि ने मोबाइल का नैट ऑफ किया और फिर से सोने का कृत्रिम अभ्यास शुरु हुआ।
कितनी रातें हो गयीं नींद का नामोनिशान नही, सिर दर्द से फट रहा है पेनकिलर भी बेअसर। अभी कब तक चलेगा ये?
बैडरुम की छत को तकते हुये सृष्टि अपनी जिन्दगी के चालिस बरसों का सफर याद कर रही है जिसमें न कोई रंग है, न खुशबू, न गहराई, न सच्चाई, सब दिखावटी ऊपरी सतह पर तैरता हुआ कागज, जिसकी समय सीमा निश्चित है जो डूबेगा ही, जब तक अधूरा है तैरेगा, पूरा भीगने पर गलेगा और अस्तित्व विहीन हो जायेगा। उस पर लिखी हुई कहानी जिसने पढ़ी भूल जायेगा और जिसने नही पढ़ी वह अनभिज्ञ रहेगा। बस यही जिन्दगी का खेला है, गलते हुये कागज को गलने देना, नजर फेर लेना, जिन्दगी आगे बढ़ने का नाम है कौन रुकेगा पीछे?
कंबल ओढ़ कर फिर से सोने का अभ्यास किया है, आँसुओं से गिले-शिकवे, उनकी नासमझी पर कोफ्त, जगहँसाई की चोट से आहत मन सिहरता रहा, आखिर क्यों बहते हैं ये निष्कपट असमय? खुद की आँख का ही पानी राजदार न रहा तो कोई क्या रहेगा?
मगर एक भी सवाल का जवाब नही है उसके पास, सब-के-सब निरुत्तर हैं। एक अजीब सा मौन है जहाँ विचारों का अंधड़ है जो जोर-जोर से चीख रहा है इस अहसास के साथ कि तुम अकेले हो, असहाय हो....भागने का प्रयास मत करो, इसी जंगल में रहो और रोते रहो...आँसुओ की कद्र भी न होगी और हँसने पर पावंदी भी, या मुस्कुराना होगा दूसरों की हाँ में हाँ के उपरान्त, यही जिन्दगी का उबड़-खाबड़ हिस्सा तुम अपना लो बगैर किसी न-नुकुर के।
इस बार कंबल के आगे का हिस्सा गीला होकर ठंडाने लगा। सृष्टि ने अभिनय को बदला और कठोरता का नाट्य किया, ताकि सुबह से पहले थोड़ी सी नींद आ जाये। बेमुरव्वत नींद तो न आई पर आँखों-ही-आँखों में सारी रात कट गयी।
तन्हाई जिन्दगी का अभिशाप होती है अगर उसे ये पता होता तो वो दस बरस पहले आये रिश्ते को न, ना कहती। लड़का अच्छे-भले घर का था नौकरी भी ठीक-ठाक थी एक पैर में थोड़ा सा कज था वो कोई मायने नही रखता था, मायने तो अरविन्द की यादें थी जो भुलाये नही भूलती थी और आज भी जिन्दा हैं कहाँ मरी हैं? या धुँधलाई हैं कैसे किसी को अपनी जिन्दगी में जगह दे पाती? कैसे पलकों पर सजा पाती? कैसे प्रेम जता पाती? कैसे हाथ-में-हाथ डाल कर मुस्कुरा पाती? और फिर किसी को अपने दिल में बिठाने के लिये जगह तो खाली होनी चाहिये जहाँ सब कुछ अरविन्द का था। उस वक्त भाई ने भी कह दिया था -"देख सृष्टि ब्याह नही करना है तो मत कर, किसी को नही अपना सकती तो मत अपना, अकेले जिया जा सकता है मगर किसी को धोखा देकर नही, या तो अरविन्द को निकाल फेक और कर ले ब्याह, या फिर छोड़ दे साथी की कल्पना। ब्याह जिन्दगी की मंजिल नही, जीने को बहुत कुछ है बहुत रिश्ते हैं, जिनसे सुख कमाया जा सकता है। बहुत से काम हैं जिनसे सन्तुष्टी पाई जा सकती है। दुनिया बहुत बड़ी है, हमसफर एक इन्सान न हुआ तो क्या? शिखर को पाया जा सकता है योद्धा की तरह, जहाँ से हर रिश्ता बड़ा ही तुच्छ हो जाता है और फिर मैं हूँ हमेशा तेरे साथ हूँ। जब भी तुझे जरुरत होगी मैं खड़ा रहूँगा। तू हमेशा मेरी लाडली रहेगी। सृष्टि, तेरे जीवन का फैसला सिर्फ तेरा होगा और मैं हमेशा उसका स्वागत करुँगा।"
भाई के अश्वासन और सांत्वना के बाद उसमें आत्मविश्वास लवालब भर गया था। एक ही माँ से जन्मे बच्चों को सगा कहा जाता है। ये सगा रिश्ता अटूट होता है जिसकी एक-एक मरोड़ में अपनापन गुथा होता है। दोनों भाई-बहन अपने रिश्ते की सुगन्ध से महकते रहे। जरुरत-बे-जरुरत भाई खड़े रहे और उसे हौसला देते रहे।
अरविन्द की यादों को दिल के आखरी छोर पर रख कर सृष्टि ने खुद को काम में डुबो दिया। भाई का ब्याह हो गया था वह पत्नी के साथ बैंगलोर चले गये और वह वही थी जहाँ आज है उसी शहर में, उसी मकान में, उन्ही दायरों में बिल्कुल अकेली।
अक्सर छुट्टियों में भाई के बुलावे पर बैंगलोर जाती रही। भरपूर सम्मान मिलता रहा। उसने भाई के बच्चों में सारा अपनापन उड़ेल दिया और बच्चे भी बुआ को सिर पर बैठा कर रखते। यूँ जिन्दगी किसी से कमतर नही थी, रिश्तों की डोर आत्मियता से गूथी गयी थी जिसको कोई भी तूफान नही डिगा सकता। ऐसा घमण्ड, ऐसा गर्व और ऐसा विश्वास ही था जो उसके एकाकी जीवन में मिठास भरता रहा।
दौड़ना और तेज दौड़ना संभव नही होता, उसकी अपनी एक मिंयाद होती है। उम्र के हिचकोले और समाजिक परिवर्तन को पछाड़ना, नये पल्लवित होते पत्तों का अल्प ही सही अपना वर्चस्व होता है, फिर नये ...फिर नये.....यूँ ही जिन्दगी की जमीं पर उगते रहते हैं नित्य नये पल्लव, अपने नये रंग, नयी खुशबू और आकर्षण के साथ, जहाँ पीले, सूखे और मुरझाये पत्तों का बुहारना ही बेहतर होता है। इस सफाई में सृष्टि भी बुहारी गयी थी। हौले-हौले अप्रत्यक्ष रूप से बगीचे से बाहर हुये थे सभी पीले पल्लव।
पन्द्रह दिन की छुटटी लेकर सृष्टि बैंगलोर के लिये उड़ी है सबको जुठला कर, पीछे छोड़ कर, एकाकीपन के भरावन के लिये, जीवन्त पलों की आस में, जहाँ से ऊर्जा लेकर वह बरस भर जियेगी, नीरसता को उखाड़ फेकेगी, हाथ भरे होगें सौहार्द्र से, आत्म सन्तुष्टी से और वह वापस लौटेगी नयी स्फूर्ति के साथ। अपने परिवार से बिछोह कष्टकारी तो होगा मगर बिताये हुये पलों का अहसास सुखद होगा। दवा शारीरिक क्षति की पूरक हो सकती है मगर प्रेम की शक्ति आन्तरिक ऊर्जा का स्त्रोत है यही परिवारिक प्रेरणा उसे कभी खाली नही होने देती।
सफर भर सौहार्द्र की, मेल-मिलाप की और बहुत सी अनकही बातों को साझा करने की काल्पनिक रंगीन तस्वीरे उकेरती रही।
ट्रेन समय से पहुँच गयी। इस बार व्यस्ततायें बढ़ गयीं हैं। भाई ने टैक्सी भेज दी है जो पहले से पेड है।
अटैची को फर्श पर रख कर डोरबैल दबाई। भाभी से लिपटने के लिये हाथों को खाली छोड़ दिया है। धड़कते हुये दिल को संयमी किया..कि दरवाजा तो खुला है मगर सामने भाभी नही है उस घर की मेड है...सृष्टि ने वापस से अटैची को हाथ में उठा लिया है। अन्दर जाने का उत्साह और खुशी अचानक फुरररर हो गयी है, चमकते हुये सितारें टिमटिमाते हुये ओझल हो रहे हैं। 'शायद भाभी किचिन में कुछ गर्मागरम पका रही होगी? दरवाजे तक दौड़ने में जल जायेगा..वरना वह आकर लिपट न जाती?' यूँ ढाँढ़स के आगोश में खुद को लपेटती वह जाकर खुद ही भाभी से लिपट गयी वह भी मुस्कुरा कर लिपटी और तब तक लिपटी रही जब तक उसने नही छोड़ा। सारी शिकायते धरी रह गयीं। यूँ ही मैं जलाती रही थी दिल को, सब तो वैसा-का-वैसा ही है रत्ती भर भी इधर का उधर न हुआ। हमेशा की तरह किचिन में पके खाने को सूँघा और मस्त होकर बेसब्री से कह दिया- "जल्दी लाओ, जोरो की भूख लगी है।"
फ्रैश तो हो जाओ बाबा, लगाती हूँ खाना, कहीँ भागा जा रहा है क्या?" पल भर में ही सारा जोश सिल्ली हो गया। हमेशा की तरह चम्मच उठा कर सब्जी को मुँह में नही ठूँसा है उन्होनें। परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है समय के साथ व्यवहार बदला होगा पर भाभी तो वही हैं पहले सी अपनी।
मगर जल्दी ही ये भ्रम टूटने लगा। इस बार बैंगलोर में पहले जैसा कुछ भी नही है। बच्चे लिपटते, इठलाते फिर छिटक कर अपनी माँ को देखते, अनुमति लेते, अब उनकी पढ़ाई का स्तर बढ़ गया है और उनका भी।
भाई का प्रोमोशन होकर वो कम्पनी के मैनेजमेंट में हाई प्रोफाइल हो गये थे। घर का इन्टीरियर भी बदल चुका है उन्ही के अनुसार कराया गया है, जिसमें भाभी और उनके बेहद करीबी भी शामिल हैं। सृष्टि का स्तर राय मशवरे का नही है इसलिये उसे दूर ही रखा गया। खुशी में कई बार घर की तस्वीरें दिखाने का अनुरोध किया था उसने, मगर किसी को दिखाने की उत्सुकता तनिक न थी सो ये कह कर टाल दिया गया कि जब आओगी तो देख लेना। वह भी न जाने क्या-क्या तस्वीरे सजाये बैठी रही थी, जरुर भाई-भाभी का सरप्राइज का इरादा होगा। जहाँ दालसब्जी पकने की खबर भी पहुँचती थी वहाँ तो ये बहुत बड़ी बात थी, सो सब्र थोड़ा मुश्किल था।
हमेशा की तरह उसने अपनी अटैची से सभी कुछ नया उतने ही चाव से दिखाया मगर भाभी ने खुद से तिनका भी न दिखाया। उसने स्वत: ही घर के इन्टीरियर की तारीफ की, यही तो उसका परिवार है उसका अपना घर है, घर की उन्नति में खुशी की भागीदारी तो की ही जा सकती है इतना अधिकार तो है ही अभी।
भाभी ने न कोई बात छेड़ी, न पूछा..कहीँ इसलिये तो नही? कि वह कुछ माँग न ले, दुखड़ा न रो दे....इतना चमाचम देख कर अपना भी मुँह न खोल दे।
उन दोनों के बीच एक सभ्य दूरी कायम रही। भाभी ने उसके रहने तक का वक्त अपने दिमाग में जमा लिया है और वह पूरा-का-पूरा संयोजित है।
उनका अपना एक संसार बस चुका है जहाँ उसी के क्लास के, उसी विचारधारा के लोग हैं। उन्ही से ठिठोली, रिश्ता और गोपनियता भी। मँहगे तोहफों का आदान-प्रदान, पार्टियाँ, मस्ती, आउटिंग। इन सब के बीच वो अटपटी सी है। यहाँ वो कहीँ नही है। उसका अस्तित्व, उसकी तस्वीर भी नही। उसके दिये उपहार भी दिखाई नही दिये...वो एंटीक पेंटिंग जो वह अजमेर से लाई थी और तब भाई ने गीली आँखों से कहा था- "तुझे याद है मुझे एंटीक चीजे पसंद हैं?" वह भी भाव विभोर हो उठी थी- "भय्या आपकी छोटी बहन जो ठहरी, पसंद- नपसंद कहने की जरुरत अपनो को नही होती, हम एक ही पेड़ की दो शाखायें हैं , पेड़ को सीचाँ गया पानी जितना आप तक पहुँचा है उतना ही मुझ तक, उसके बाद भाई ने उसे गले से लगा लिया था- "सृष्टि ये पेंन्टिग अब हमेशा मेरे साथ रहेगी, माँ, बाबू जी के बाद बस तू ही तो है जिसकी रगों में भी वही खून दौड़ रहा है जो मेरी रगों में है।" हमारा प्रेम और विश्वास और पुख्ता हो चला था। ब्याह न हुआ, परिवार न बना तो क्या? सब अपने ही तो हैं।
उस दीवार पर तस्वीर की जगह भाई के परिवार का बड़ा सा सयुंक्त चित्र है जिसमें वो सभी मुस्कुरा रहे हैं। सृष्टि ने ऊँगलियों से उस बड़े चित्र को छुआ तो दिल भर आया, बच्चे खिलखिला पड़े- "बुआ ये क्या आप तो रो रही हो? आपको पता है ये फोटो पापा ने तब खिचवाया था जब हम आस्ट्रेलिया घूमने गये थे।"
"बहुत सुन्दर लग रहे हो तुम सब..और तू तो पूरा नॉटी" आँसुओं को छुपाते हुये सृष्टि थोड़ा असहज हो गयी है। "नीटू पता है तेरी बुआ ने भी तेरा और मिनी का इतना ही बड़ा फोटो लगवा रखा है, अब की बार जब तुम आओगे तो देखना।"
"नही बुआ, इस बार तो हम स्वीजरलैंड जा रहे हैं आपके वाले घर पर कैसे आयेगें?"
"अच्छा, कोई बात नही मैं वीडीओं कॉल में दिखाऊँगी फिर।" बच्चे चन्द मिनटों के लिये जुड़े फिर अपनी व्यस्त रोजमर्रा में चले गये। वह तस्वीर को ध्यान से देखती रही, पानी भरी धुँधलाई आँखों से मुस्कुराती रही.."मेरे परिवार को बुरी नजर से बचाना मेरे ईश्वर"
उसका यही स्वीजरलैंड है और यही आस्ट्रेलिया..यही परिवार है और यही रिश्ते...कुछ दिन रह कर फिर वही खाली दीवारें..आँगन का सन्नाटा और रात में पेड़ो से झीँगुरों की आवाज़ । कुछ दिन बच्चों की खिलखिलाहट सुन लूँ, दिल की कह-सुन लूँ, भाई को बता दूँ कि अकेले मन घबराता है, रसोई में एक समय ही पकता है वह भी बचता है, अकेले जी नही करता खाने का...शाम को चाय का पानी चढ़ा कर महरी का इन्तजार करती हूँ , अकेले चाय पीना जहर सा लगता है। दिन ढले का सन्नाटा नही कटता, माँ बाबू जी का लगाया नीम का पेड़ खूब घना हो चला है रोज ढेरों पत्तियाँ झड़ती हैं और महरी बुहारते-बुहारते झींकती है। मैं उसकी छाँव में घण्टों बैठती हूँ जैसे माँ ने गोद में बिठा लिया हो और बाबू जी छाँव बन कर खड़े हैं। इन सब में तुम्हें ढूँढती हूँ, जी करता है तुम्हारी आवाज़ से सींच लूँ सूखी हुई टहनी को, जिक्र छेड़ूँ अपने साथ बिताये बचपन का, जोर से हँसू कि घर में ठहाके गूँज जाये, डगमगाती नॉव को पतवार से बाँध लूँ, नीम के आस-पास ही रहने दूँ तुम्हें...मगर तुम अब टहनी नही रहे..खुद का वृक्ष हो गये हो भय्या अब तुम्हारी अपनी टहनियाँ है पत्ते हैं उन्हें सीचना है तुम्हे, जैसे बाबू जी ने सीचा था। तुम भी तो बाबू जी की परछाई हो। उन्ही की तरह सोचते हो जिम्मेदार हो, अपनी सृष्टी के साथ हो, जिसने अरविन्द के गम को भुलाने की हिम्मत दी।
अब ????? अब सोचती हूँ, कैसे कटेगा ये आगे का जीवन? कब तक रहूँगी अकेली? क्या उम्र भर? तुमसे बहुत सी बाते करनी थी मगर तुम भागमभाग में रहे...तुम्हे खीर पूड़ी भी बना कर न खिलाई, उस दिन याद था तो भाभी ने हाथ रोक दिया- "न रहने दे सृष्टि, तेरे भाई का शुगर लेवल बढ़ा हुआ है। वापस लौट आई रसोई से, भाई की सेहत से खिलबाड़ नही।
अब जाने का समय आ गया। जो अधूरा था अधूरा ही रहा। सब कुछ बदला गया पर सृष्टि न बदली। दो पल भी न मिले सुनने-सुनाने को, मैं तो तरस गयी भाई से मिलने को...कभी भाभी के साथ घरेलू योजनाओं की व्यस्ता, कभी बच्चों की जरुरतें तो कभी टी.वी. पर कामेडी शो...और हँसी ठहाके.....
बैंगलोर की समय सीमा पूरी हो चुकी है। जाने का वक्त नजदीक है। कल सुबह ही निकलना है। एक रात बची है। क्या उचित होगा भाई से बात करना? शायद वह खुद ही न चाहते हों इसीलिये चुप रहे, कोई बात न छेड़ी, न जानना चाह चाहतों का एक भी हिस्सा। बदलते दौर में उनका अपना परिवार है मेरा दौर तो वहीँ ठहरा हुआ है जहाँ वो छोड़ कर गये थे।
सृष्टि के लिये ए.सी. थर्ड का रेल की सीट बुक है..यहीँ भाई से आखरी बार गले से लगी है वो....हिचकियों के बीच बचे कुचे शब्द भी गले में ही रह गये......हाथ में मिठाई का छोटा सा डिब्बा है जो तोहफे के रूप में भाभी के द्वारा दिया गया है, भीगने लगा। भाभी स्टेशन नही आई उसे अपने खास मित्र के डिनर की तैयारी करनी है।
ट्रेन ने गति ले ली। दरवाजे पर तब तक खड़ी रही जब तक भाई आँखों से ओझल न हो गये। आँखें उनकी भी नम है पर ये कहने का साहस न कर पाये -"कुछ दिन और ठहर जाती?"
आज चार बरस हो गये कब आयेगें भाई? बच्चे बड़े हो गये। मिनी तो एम. बी. ए. करने अहमदाबाद चली गयी और नीटू सी. ए. की तैयारी में लग गया है। कभी-कभार वीडीओं चैट कर अहसासों को जीवन्त कर लिया करती। अपनों के चेहरे में आत्मियता को पढ़ते-पढ़ते कभी नेटवर्क को तो कभी मोबाइल को दोषी ठहरा कर झूठा ही झुँझलाती। वहाँ सब स्थूल है, उथला है और वह गहरे में डूबना चाहती है। अपनेपन की संजीवनी को तलाशती उम्मीद चरमरा कर टूटती तो तूफान सा उठता, जहाँ कुछ भीगता, कुछ सूखता, कुछ विलीन हो जाता।
ये सिलसिला भी थमने लगा।
झींगुरों की आवाज़ से घबराते दिल को थाम कर, आँसुओं को पोछते हुये सृष्टि ने कंबल को ओढ़ लिया। रिश्तों के नये आयाम अब बहुत शक्तिशाली, भावहीन और परिचित से हो चले हैं......जहाँ पूरी-की-पूरी सृष्टि घुल रही है.....रिश्तों का अस्थायी शामियाना उखड़ चुका है.....।।।।
छाया अग्रवाल
8899793319













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