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तृष्णा

कहानी-----तृष्णा
"मां हम कहां जा रहे हैं" नन्हे दीपू का का मासूम स्वर जब नीता के कानों में पड़ा। तो उसकी आंखें छलछला पड़ी, गला रुंध गया। पलटकर दीपू को देखा झट से उठा कर सीने से लगा लिया। बंद आंखों से आंसू टप-टप गिर रहे थे और मां का वात्सल्य ममता को बाहों में भींचकर आत्मिक सुख से आश्वस्त हो जाना चाहता था ।
नीता ने खाली अलमारी को देखा। उसमें कपड़े, जूते, खिलौने कुछ भी नहीं थे। सब कुछ बैग में पैक हो चुका था। जिसे उसने खुद अपने ही हाथों से किया था। उसका कलेजा मुंह को आने लगा। उसने दीपू को कसकर गले से लिपटा लिया। कभी उसके गालों को, कभी उसके माथे को, कभी उसके सिर को चूमने लगी। दिल की धड़कन कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। बस एक ही प्रश्न था। जो वह खुद से कर रही थी कि- "आखिर कौन से गुनाह की सजा दे रहे हो प्रभु! पहले तो कलेजे में ममता को भरते हो फिर खड़े हो जाते हो यह कहने की पत्थर का कर लो इसे प्रभु! मैं तेरे हाथों की कठपुतली नहीं हूं, आज मेरी डोर को तुम मेरे हाथों में रहने दे। जी लेने दे मुझे।"
नीता भरभराई सी सोफे पर धँस गई और छ: साल पुराने उस वक्त को याद करने लगी। जब खुशियों ने उसके जीवन में पैर पसारे थे। कितने सुखद थे वह पल, जो वह काव्या को ब्याह कर घर लाई थी। काव्या उसकी प्यारी सी देवरानी जो बड़ी ही सुशील और समझदार थी। नीता अपना सारा प्यार उस पर उड़ेलती थी। बड़ा प्यार था दोनों देवरानी-जेठानी में सारे सुख- दुख एक दूसरे से सांझा करती। अटूट और सच्ची दोस्ती का रिश्ता था उन दोनों के बीच।
अभी देवरजी और काव्या के विवाह को चार महीने ही हुए थे। आज नीता की खुशी का ठिकाना नहीं था। अभी-अभी काव्या ने उसके कान में आकर कहा था- "दीदी मैं मां बनने वाली हूं" नीता को अपने कानों पर पर विश्वास नहीं हुआ। वह इतना खुश थी कि उसके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल पाया। वह काव्या को देख रही थी। काव्या ने आगे कहा- "और दीदी आप बड़ी मां" नीता के लिए खुशी को सहन करना मुश्किल हो रहा था। उसकी पन्द्रह साल की तपस्या आज पूरी हो रही थी इसका विश्वास उसे नहीं हो रहा था। उसने काव्य के दोनों कंधों को पकड़कर डबडबाई आंखों से पूछा -"काव्या यह सच है क्या?" " हां दीदी यह सच है ।" काव्या ने नीता की भरी आंखों को अपने हाथ से पोछा और दोनों कसकर एक दूसरे के गले लग गयीं।
पूरे नौ महीने नीता ने काव्या का ध्यान एक छोटे बच्चे की तरह रखा खाना। फल, दवाई , टेस्टिंग सब कुछ कुछ। नीता काव्या को पलंग से उतरने ही नहीं देती, बस उतना ही जितना जरूरी है। उसने एक काला धागा भी काव्य कि बाँह पर बांध दिया था। ताकि वह नजर से बची रहे।
समय करीब आ गया। बरसों की सूखी नदी में ममता का पानी छलछलाने लगा। काव्या लेबर रूम में थी। नर्स ने बाहर आकर खबर दी -"बेटा हुआ है।" पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई। नीता जो सुबह से बाहर खड़ी थी, सब्र ना कर सकी और अंदर दौड़ पड़ी। फिर अचानक ठिठक गयी- "नहीं, मैं नहीं ..मैं कैसे जा सकती हूं ? मेरी परछाई बच्चे के लिए शुभ नहीं होगी और यह मैं हरगिज़ नहीं चाहती ।"
तभी नर्स नन्हे मुन्ने को लेकर बाहर आई और पूछने लगी- "आप में से नीता जी नीता जी जी कौन हैं?" नीता तेजी से आगे बड़ी, खुशी की हड़बड़ाहट और धड़कता दिल, रुँधे गले से हां में सिर सिर हिलाया। तो नर्स ने बच्चे को उसकी गोद में देते हुए कहा- " पेशेंट ने इसको आपको देने को कहा है।" नीता कुछ समझ ना सकी। बस कभी बच्चे को देखती कभी अपनी सूनी गोद को।
और फिर वह अचानक चीख पड़ी- " मैं बाँझ नहीं हूं कौन कहता है कि मैं मां नहीं बन सकती। देखो, मैं मां बन चुकी हूं। मैं मां बन चुकी हूं ।" वह खुशी से पागल हो गई। नीता के प्रेम की नदी कलवने लगी। छातियों से दूध छलकने लगा। वह भाव विभोर होकर रो पड़ी। पन्द्रह साल से जिस ममता के लिए वो तरस रही थी वह उसे मिल चुकी थी।
चार दिन अस्पताल में रहकर वह काव्या को लेकर को लेकर को लेकर घर पर आ गई थी। समय खुशियों के पंख लगा कर कर भागने लगा। भरपूर जीने लगी वो, उस गर्माहट को, उस ममता को, उस सुख को। बच्चे को नहलाना, खिलाना, सवारना सभी काम नीता ही करती। जब भी नीता काव्या से कहती -"काव्या कहीं तुम्हें ऐसा तो नहीं लगता कि मैंने तुमसे बच्चे को छीन लिया है ।" तो काव्या तुरंत उसको चुप करा देती और कहती- " नहीं दीदी आप ऐसा क्यों सोचती हो ?आप भी तो इसकी मां हो इसकी बड़ी मां ।" कहकर वह मुस्कुरा देती।
इसी तरह आपसी तालमेल से समय गुजर रहा था। दीपू अब तीन साल का हो गया था। काव्या ने कभी भी दीपू पर अपना अधिकार नहीं जताया। वह दो माँओं के लाड प्यार में पल रहा था।
तभी अचानक देवर जी का तबादला बेंगलुरु हो गया। अब काव्या और देवर जी को वही शिफ्ट होना था। उनके जाने की तैयारियां होने लगी। नीता को दीपू के जाने का गम सताने लगा। उसका खाना -पीना सब छूट गया। वह काव्या से छुपकर अकेले में खूब रोती। उधर काव्या भी खुद को संभाल रही थी।
समय पंख लगा कर उड़ कर उड़ गया। सुबह 5:00 बजे उन लोगों को दिल्ली से बेंगलुरु निकलना था। नीता एक पल भी नहीं सोई। देवर जी और काव्या और काव्या के ट्रेन का समय हो गया था। वह भीगी आंखों से विदा ले रहे थे और धीरे-धीरे भारी कदमों से समान उठा कर बाहर निकाल रहे थे। नीता ने दीपू को काव्य की गोद में दे दिया। काव्य ने दीपू को कसकर लिपटा लिया और फिर अचानक आंसुओं को पहुंचकर नाराजगी जताने लगी- " यह क्या दीदी, बस इतना ही प्यार है आपको अपने दीपू से, इस को मेरे साथ भेज कर आप रह पाओगी क्या? नहीं दीदी दीपू कहीं नहीं जाएगा। आप ही इसकी मां हो। यह आप ही के साथ रहेगा।" इतना सुनते ही नीता फफककर रो पड़ी दोनों गले लग कर खूब जी भर कर रोईं। दीपू अपनी बड़ी मां के पास ही रुक गया।
दो साल गुजर गए। इन दो सालों में अक्सर नीता दीपू को लेकर काव्य के पास चली जाती छ:-सात दिन रह कर वापस आ जाती। कभी देवर जी और काव्य आ जाते। इसी तरह सब अच्छी तरह से चल रहा था। दीपू को भनक भी नहीं थी कि उसकी असली मां कौन है।
अचानक एक दिन देवर जी ने फोन पर बताया- " कि भाभी काव्या को यूट्रस ट्यूमर हो गया है। जल्दी ऑपरेट कराना होगा। नीता खड़े से गिर पड़ी- 'यह क्या हो गया ? नहीं जरूर यह कोई गलतफहमी होगी।' घर में एक भूचाल सा आ गया और दुखों के ना जाने कितने बादल छोड़ गया।
नीता दीपू को लेकर कुछ दिन के लिये बेंगलुरु आ गई। आनन-फानन में ऑपरेशन कराना पड़ा। बच्चेदानी को निकाल दिया गया। इस बार फिर नीता ने काव्य की जी जान से सेवा की और उसे मानसिक रूप से टूटने नहीं दिया। लेकिन एक प्रश्न था की काव्य मां नहीं बन सकती थी इस सवाल से नीता अंदर ही अंदर टूटने लगी।
लेकिन अब बारी थी एक कठोर फैसले की। उस पथरीले रास्ते पर चलने की, जिसे नीता ने स्वयं ही चुना था। दीपू को उसकी जन्म दायिनी मां को सौंपने का। यही वह क्षण था जब वह जब वह खुद को टूटने से बचा रही थी।
अतीत की यादों से वह वापस, वर्तमान के धरातल पर आ गई। दीपू आग्रह कर रहा है- " मां बताओ ना, हम कहां जा रहे हैं?"
वह तड़प गई। आंसुओं को पूछ कर बोली- "हम नहीं, बस तू जा रहा है मेरे बच्चे, अब से तू अपनी छोटी मां के पास ही रहेगा। उसे तेरी जरूरत है। "नहीं मां मैं अकेले नहीं जाऊंगा हमेशा तो आप भी साथ जाती हो, फिर इस बार मैं अकेला क्यों जाऊंगा। हम इतना सारा सामान लेकर भी नहीं जाते। मां मैं नहीं जाऊंगा। मैं आपके बगैर नहीं जाऊंगा।" दीपू जिद पर अड़ गया। "नहीं दीपू तुझे जाना होगा पर देख जिद ना कर, तेरी छोटी मां तुझे बहुत प्यार करती है। मुझसे भी ज्यादा।" नीता ने शब्दों को थोड़ा कठोर कर लिया था। ताकि वह कमजोर ना पड़ जाए। वह अपना फर्ज इमानदारी से निभाना चाहती थी ।
तभी नीता के पति संदीप ऑटो रिक्शा लेकर आ गए। दीपू मचल रहा है -'पापा मैं कहीं नहीं जाऊंगा।' संदीप ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया है और रुंधे गले से कहा है- " ट्रेन का समय हो रहा है हमें निकलना होगा।" नीता काठ की बुत बन गई है। दोनों हाथों में दीपू का सारा सामान है। जो दीपू के साथ ही विदा हो रहा है। घर खाली, आत्मा खाली, निशब्द सा मौन।
इसी सन्नाटे को चीरती हुई दरवाजे पर देवर जी की कार रुकी है। उसमें से काव्या बहार आई है और साथ में देवर जी भी। दौड़ती हुई आकर नीता से लिपट गई, और नीता के आंसुओं को पोछती हुई बोली - "दीदी दीपू अब कहीं नहीं जाएगा। आज से हम सब यही रहेंगे पहले की तरह। देवर जी ने मुस्कुरा कर कहा- "भाभी, मैंने नौकरी से रिजाइन दे दिया है। अब मैं भैया के साथ ही उनका बिजनेस संभालूँगा। दीपू हम सबके साथ रहेगा। अपनी दोनों माँओं के साथ। पूरा परिवार खुशियों में डूबा हुआ था। और मां की तृष्णा तृप्त हो रही थी।
छाया अग्रवाल
मो. 8899793319

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