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जूठन

कहानी - जूठन
कभी-कभी जीवन में इतने उतार -चढ़ाव दिखाई देते हैं, लगता है जैसे गमों का सारा समंदर ही, भीतर समा गया हो। कभी उथला, कभी गहरा जैसा भी हो, चुभन का दर्द गहराता ही जाता है, और मायूसी यदा -कदा उगने लगती है, बिल्कुल कटीली झाड़ की तरह। भीतर कुछ टूटता- फूटता है मगर स्थाई नहीं होता। थोड़े से आश्वासन का मरहम उसे जोड़ देता है। क्यों चटखता है कुछ? क्या बजह इतनी विशाल होती है जो उसे क्षीण कर देती है? या इतनी कमजोर की मरहम से भर जाती है। ऐसे चन्द सवाल हैं जो दिमाग में कौधँते हैं।
उससे मिलकर मुझे लगा था। वह कठिन काम करती है तमाम पीड़ा, दुख और जख्म के बाद भी टूटती, दरकती नही, और मैं आसान काम करती हूं, थोड़ी सी चोट बर्दाश्त नही कर सकती और दया, सहानुभूति और सहयोग की अभिलाषी बन जाती हूँ। ये जानते हुये भी, पीड़ा से डट कर मुकाबला करने वाला एक-न-एक दिन जीतता है और हारने वाला उपहास का पात्र। फिर भी इन्सान वही करता है जो सरल होता है।
वह डेढ बरस से हमारे घर में बर्तन माँज रही है। उम्र अभी सोलह-सत्तरह बरस ही होगी। उस अनाथ को काम पर रखते समय एक बजह दया भी रही थी। जो धीरे-धीरे सुद्रढ़ होती चली गयी। गठा हुआ जिस्म और पक्का रंग इस बात का प्रमाण देते हैं कम से कम उसे वासना ग्रस्त पुरुषों से मुक्ति मिलेगी। वैसे ये तथ्य झूठा भी हो सकता है, क्योंकि अक्सर कामांध पुरुष तृप्ति के आवेग में तन, मन, उम्र और सौन्दर्य कुछ भी नहीं देखते। उन्हें चरित्र, पवित्रता और नैतिकता का पता नहीं होता। वह तो छटाक भर तृप्ति के लिए पूरा समुंदर लाँघ जाए।
मैंने होले से पूछा- "आज उदास क्यों है सरोज? वह कुछ ना बोली और रगड़े हुए पतीले को बार -बार रगड़ने लगी। आँखें चुराते हुये उसने मुझसे पल्ला झाड़ना चाहा। मेरा मन शंका से भर उठा। मुझे लगा, उसकी आँख का पानी टप से पतीले पर गिरा, पर उलझे हुए बालों के भीतर से देख पाना मुश्किल था। अनुमान तो सौ टका पक्का था, वह किसी तूफान को भीतर-ही-भीतर समेटने की जद्दोजहद में लगी थी। मैंने उसे छूना चाहा, मगर मेरे हाथ उसे छूने से परहेज कर रहे थे। क्या उसका पक्का रंग और भोंडे नाक -नक्श इस बात की गवाही थे, कि उसे छुआ जाना आसान नहीं था? फिर ऐसा क्या हुआ होगा? जिसकी वजह से उसके होंठ सिल गए थे। मायूसी ने उस बदसूरती को और भी भयावह बना डाला था। एक बार को मुझे लगा कि यह किसी छोटे बच्चे की दुष्टता जैसी है, जो बार-बार पुकारने पर भी नहीं बोलता।
अब उसकी सारी उथल-पुथल मेरे भीतर समाने लगी थी। मैं उसके सारे बर्तन मांजने का इंतजार नहीं कर सकती थी। ये पल निहायत ही भारी थे। एक स्त्रीमन की छटी ज्ञानेन्द्री प्रबल होने लगी थी। जो कुदरत का बहुमूल्य उपहार होता है। जहाँ से वह आने वाली विपदा या संकेत को पहले से ही भाँप लेती है और मेरे साथ भी वही हुआ। किसी अनहोनी के अनुमान से मेरे भीतर कुछ पिघलने लगा। वह कभी खामोश और उदास नही रहती, आये दिन गाली-गलौज और पिटने के बाद भी हसँती रहती थी। उसे इसकी आदत हो गयी थी। प्राय: शिक्षा के आभाव में मानसिकता ठहर जाती है और उसका शिकार ये निम्न वर्ग बहुतायत में बनता है। आज उसके चेहरे पर तूफान से पहले का संन्नाटा था। जिसे कोमलता से नही तोड़ा जा सकता था।
हमेशा की तरह दया के लिबास से बाहर आना कठिन था। इस वक्त दया से बड़ा, जिज्ञासा का आवेग था जिससे मैं चीख उठी- "छोड़ दे इसे, और बता सच- सच क्या हुआ है तुझे? डरावनी हवाईओं से भरा हुआ चेहरा, छुपने को कोना तलाशने लगा था। "ना बीबी जी, कुछ ना हुआ" उसका सफेद रंग का झूठ उसके काले रंग पर साफ दिखाई दे रहा था। "छि:... इस सड़ाँध को धो कर आ, कैसे इतनी बदबू बर्दाश्त करती है तू? फिर आकर साफ-साफ बता क्या बात है? और रोज नहाती क्यों नही? देख कपड़े कितने मैले हो रहे हैं। कितनी बार कहा है साफ-सुथरी रहा कर?
वह चुप थी। अपनी स्मृतियों को खंगाल रही थी, जो कुछ खास पुरानी नही थीं। अच्छी थीं या बुरी पर मानस पटल को घेरे हुये थीं। वही स्मृतियां जिससे मन भयभीत था और मैं उसे कसैला समझ रही थी। क्या वह सच में कसैली थी? या किन्ही तृप्त अनुभव में डूबी हुई थी? जहां से कुछ भी बोलना, सुनना, देखना बेमानी लगता है और आंखें चुराना डरावने सवालों से बचने का रास्ता भर होता है। ऐसा ही तो कर रही थी सरोज। तमाम चुभते सवाल मेरे भीतर को बैठे कुतर रहे थे, और उसके दर्द का जैसे, मेरे अन्दर स्थानांतरण हो गया था।
वो मेरे सामने ही डरी-सहमी सी आकर खड़ी हो गयी, और गन्दे पानी में भीगे दुपट्टे को, ऊँगली से मरोड़ने लगी। बेशक वह डरी हुई थी। पर पाँव मेरे उखड़ रहे थे। मैं जल्दी से बैडरूम में लगे आइने का एक चक्कर लगा आई। ऊपर से लेकर नीचे तक खुद को भरपूर निहार लिया। गोरा-चिट्टा और साँचें में ढला हुआ बदन देख कर गुमान से भर उठी। जैसा मैं सोच रही हूँ, ऐसा कुछ भी नही होगा। जरुर सरोज की भाभी ने उसे फिर से मारा-पीटा होगा। बेचारी बिन माँ बाप की औलाद जो ठहरी। चलो पूछती हूँ। कयास क्यों लगाऊँ? खुद को सन्तुलित करते हुये बाहर आई। वह वैसे ही अडिग टिकी थी। उसके कम्पन में भय से ज्यादा सन्तुष्टी झलकती दिखाई दी, तो मैं वास्विक भय से काँपने लगी। मैंनें क्रूर लिबास ओढ़ना चाहा।
"बोल क्या बात है?" मैंने उससे डपटते हुये जरुर पूछा था। मगर कहीँ -न -कहीँ सहानुभूति भी थी। उसने सिर्फ मेरे कड़े रुख को महसूस किया और थोड़ा सहम गयी। मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ और सुर को नरम कर पूछा- "क्यों री बोलती क्यों नही? काहे चुप खड़ी है? मैं कौन सा तुझे खा जाऊँगी? हमेशा तो तू अपनी राम कहानी पटर-पटर बताती है, फिर अब क्या हुआ?"
सरोज ने मेरी बात को नजर अंदाज करके घड़ी की तरफ देखा- "बीबी जी, कल से मैं देर से आऊँगी।"
"क्यों, देर से क्यों आयेगी? और बात बदलने की कोशिश मत कर। जो पूछ रही हूँ उसका जबाव दे।" मुझे लगा, क्या इतना लम्बा संघर्ष ये जबाव सुनने के लिये किया था मैंने?
उनकी बातचीत का मुद्दा आगे बढ़ता, इससे पहले ही आलोक भीगा हुआ, तौलिया लपेट कर बाशरुम से बाहर निकला। वह आफिस के लिये तैयार हो रहा था। होठों पर कोई गीत था जिसकी सिर्फ धुन ही समझ में आ रही थी। शब्दों को विना जीभ की मद्द से जब गाया जाये, तो बस धुन ही रह जाती है और ऐसा तब होता है जब किसी अहसास के रस से मन सरावोर हो। वैसे भी अक्सर आलोक मूड फ्रेश होने पर टूटा-फूटा गाया ही करता हैं। वह जल्दी में था उसने मुझे देखा और फिर सरोज को। गुनगुनाना भूल गया, वह मेरी बातचीत से खफा दिखाई दे रहा था। उसकी आँखों ने कुछ कह कर, गिरे हुये शब्दों को वापस ले लिया। स्तिथि को भाँप कर एक चिर- परिचित मुस्कान बिखेरनी चाही। मगर अगले ही पल उसका ये प्रयास विफल हो गया। सरोज ने आँख की कोर से उसको देखा और पलट कर खड़ी हो गयी। मुझे लगा आलोक असहज हो गया है । उसकी शारीरीक भाषा रोज से अलग थी।
आलोक के जाने के बाद मैंने थूक से गले को तर करते हुये फिर पूछा- "बोल री, जल्दी आने में क्या दिक्कत है तुझे?" वह बगैर जबाव दिये मुँह फेरे ही खड़ी रही।
उसकी चुप्पी विकृत तस्वीरों को जन्म दे रही थी। जहाँ सफेद, काले और स्लेटी रंग के चित्र धुँआ-धुँआ होकर बिखरे हुये थे। मैं सिर्फ अपाहिज द्रष्टा ही थी। इससे ज्यादा कुछ नही। कही मेरा कयास सही तो नही? इतना उद्वेग? जैसे कोई तूफान हो? नागफनी के चार काँटें मेरी गरदन पर उग आये। जो अन्दर तक खाल को खरोंच रहे थे। क्या सारी वर्जनाओं को लाँघ कर बहना इतना आसान है? बेशक ये बहाव गन्दे नाले का था, मगर बड़ा चुनौतीपूर्ण था। इतना समझना मुश्किल काम नही था।
नही, ऐसा नही हो सकता। वह तो हमेशा कठिन कार्य ही चुनती है। ये कार्य सरल था या कठिन? नही पता, पर अपने बहम की दुनिया बसाने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी थी मैंने। मैंने पीले रंग का क्रोशिए से बना हुआ बटुआ निकाला, जो मैंने ही उसको दिया था। पूरे एक सौ ग्यारह रूपये थे उसमें, जो उसने पाई-पाई कर जोड़े थे। अपनी भाभी के भय से मेरे पास ही रखती थी और मैंने भी उसे अमानत के तौर पर संभाल के रखा था। याद आ गया वह दिन, जब मेरे दिये पैसों से वो गुड़ खरीद के खाया करती थी। तब मैंने उसके पैसों को जमा करने की ठानी और रोज गुड़ का एक ठेला देने लगी। अब उसके पैसे जमा हो रहे थे। वह तो खुश थी ही मैं भी खुश थी। वह बार-बार अपने जमा पैसों को गिनती और छोटे-छोटे सपनें बुनती थी। ये बटुआ उसकी जान से ज्यादा कीमती था। इसीलिए मुझे लगा वह बटुये को देख कर खुश हो जायेगी। मगर इस बात ने मुझे विस्मय में डाल दिया कि, न तो वह बटुये को देख कर खुश हुई और न ही रुपयों को। उसने कुर्ते के अन्दर बिल्कुल छाती के बीचोंबीच हाथ डाल कर, पाँच सौ का खरा-खरा नोट निकाल कर मेरे तरफ बढ़ा दिया- "बीबी जी, इसे भी बटुयें में रख दो।"
"ये कहाँ से आये तेरे पास, इतने सारे पैसे?" मेरी शुष्क सांसें भीतर जाने से पहले ही वापस लौट आईं। मन स्थिति अच्छी नहीं थी। सब कुछ डूबा -डूबा सा था। वह पाँच सौ का नोट मेरे हाथ में था। एक सर्प की तरह, जिसने छूते ही मुझे ढँस लिया था और उसका जहर मेरे बदन की जान खींच रहा था।
अब की बार मैंने सीधा-सीधा पूछने की हिम्मत जुटा ली थी सब्र के बाँध को टूटने से रोकना आसान नही था - "क्या तेरी मर्जी से हुआ है यह सब?" मैंने छपाक से अपनी शंकाओं का भाला उसके सीने में उतार दिया। उसने आंखों को जमीन पर गहरे धँसा लिया और धीरे से बोली- " बीबी जी मेरी कोई गलती नहीं, वह बहाव इतना तेज था और मुझे तैरना नहीं आता था, मेरी मजबूरी थी और मैं बह गई। मुझे नहीं पता था कि ये बहाव इतना आनंददाई होता है? जो आत्मा को तृप्त कर देता है। क्षणिक तृप्ति के पाँच सौ रूपये पुण्य हैं या पाप, मैं नहीं जानती, मगर इतना जानती हूं, कि मैंने सौंदर्य को हरा दिया है। मेरी कुरूपता तीखे नैन नक्श के ऊपर भारी पड़ गई है। जिन्हें घिन आती है मुझ पर और जो मुझे छूने से कतराते हैं, वह बार-बार आईना देख कर हार जाएंगे।"
सरोज ने अपना मुँह काला किया था, ये तो मैं समझ ही चुकी थी। मगर .....कहाँ..? वैसे ये एक सवाल नही रह गया था। इसका जबाव प्रतिध्वनि के रुप में आ चुका था। मेरे कानों से गर्म लावा बह कर दोनों पाँव को जला रहा था और दिमाग चेतना शून्य हो गया था। आलोक ने बैडरुम की खिड़की में से चोर निगाहों से झाँका। उससे मेरी आँखें चार हो गयीं। कब? कहाँ? और कैसे? इन सभी सवालों के जबाव मरियल घोड़े की तरह दम तोड़ रहे थे। "आलोक, तुमने ऐसा क्यो किया? तुम्हारे चेहरे पर नाले की सारी कीचड़ चिपकी हुई है। तुम भयानक लग रहे हो। तुम्हारा पूरा मुँह काला हो चुका है। तुम्हारे बदन की चिपचिपाहट में कितने कीड़े रेंग रहे हैं? और तुम्हारी लिबलिबी सोच गिरी तो कहाँ जाकर ?
कहीं गहरे से मुझे उसी सड़ांध की बू आ रही थी जिसे अभी-अभी मैंने सरोज के शरीर से सूँघा था। जिससे मेरा जी मिचला गया और उबकाई आने लगी।
मैंने एक जोरदार थप्पड़ आलोक के गाल पर दे मारा। वह बिलबिला गया, उतना , जितना मेरे पीठ पीछे कुकर्म करते वक्त भी न बिलबिलाया होगा। काला मुँह तो उसने किया था। वह कलमुँही तो निमित्त मात्र है कारण तो वह ही है। पाँच सौ का नोट भी उसका ही है और वासना भी उसकी। कामान्ध भी वह ही हुआ और आग्रह भी उसी का था। उस निर्बल में इतना साहस कहाँ? जो एक सबल पुरुष का बलात्कार कर सके। वह आभावों से चटखी कठपुतली मात्र है जिसकी आँखें रोशनी को देखते ही चुधिँया गयीं। स्वार्थी और बेखौफ भी उसने ही उसे बनाया है। पौरुष बल के समक्ष एक स्त्री को धाराशायी करने वाला, सम्मान तो क्या दया का पात्र भी नही होता।
भागीदारी तो उस कलमुँही की भी बराबर की है उसकी शिराओं में भी तूफान उठा होगा और वह उस आवेग के संघर्ष में हार गयी होगी। आनन्द के थपेड़ों को धकेल न सकी। माफी तो तुझे भी नही मिलेगी।
मैं अपराधी न होते हुये भी, एक भयभीत अपराधी के लिबास में थी यह एक बिडम्बना है जल्दी ही उससे बाहर निकल आई। पुरुष के समक्ष, स्त्री का क्षीण होना ही पौरुष बल को बढ़ाता है। अतः अपनी ऊर्जा को निर्णायक क्षमता में लगाना होगा।
सरोज बेवाकी से मेरे बेडरूम में घुस गई और बेड पर पड़ी चादर की सिलवटों को हाथों से ठीक करने लगी। सफेद रंग की चादर पर जगह-जगह उसके हाथों के गन्दे निशान उभर आये। जो सजीव होकर तरह-तरह के मुँह बना कर चिढ़ा रहे थे। जैस्मिन का रूम फ्रैशनर, कमरें की आवो -हवा को, सड़े हुये खाने के अवशेषों से सड़ाने लगा था और उसकी बदबू मेरे जहन इतने गहरे उतर गयी थी, मैं बाहर खड़ी की खड़ी रह गयी, हाथ में उसका बटुआ लिए। जिस पर वह इतराया करती थी, झूमा करती थी। उसमें अब एक सौ ग्यारह रुपये नही, एक पाँच सौ का नोट भी था। मैंने उस नोट को घृणा से देखा और जमीन पर फेंक दिया अपने हाथों पर उसके निशानों को तलाश कर पोछने लगी - "छि: यह जूठन है। एक विकृत वासना और कामान्ध की उजली दिखने वाली कीमत।"
छाया अग्रवाल
बरेली (यू.पी.)
मो. ८८९९७९३३१९

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