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प्रेम की विदाई

कहानी - प्रेम की विदाई
ब्हील चेयर को आगे बढ़ाते हुये सुप्रिया ने दीपक से कहा- " दीपक, एक बात कहूं?"
"हाँ कहो ना," दीपक सुनने के लिए उत्साहित हो गया और उसने अपने पैरों पर पड़ी चादर को ठीक करते हुये, अपने चेहरे को थोड़ा पीछे की तरफ मोड़ लिया।
"मैं सोच रही थी, अब हम शादी कर लें" सुप्रिया ने गंभीरता से कहा। उसने दीपक के चेहरे का मुआयना किया और पाया वह एकदम शांत निरुत्तर सा हो गया था।
"कुछ बोले नहीं तुम ? क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?"
"तुम जानती हो ऐसा नहीं है और यह भी जानती हो यह नहीं हो सकता।"
"क्यों, क्यों नहीं हो सकता? आज मेडिकल साइंस की टेक्नोलॉजी कितनी डेवलप हो गई है। सब कुछ संभव है। मैंने विशाखापट्टनम के डॉक्टर नीरव से बात भी कर ली है। उन्होंने तुम्हारी सारी रिपोर्टस मांगी है बस तुम हाँ कर दो, तो मैं आज ही उन्हें सारे पेपरस मेल कर दूँ।"
"नहीं सुप्रिया यह सपनों की बातें हैं मेरे पैर अब कभी ठीक नहीं हो सकते। मैं अपाहिज हूं और हमेशा अपाहिज ही रहूँगा"
"तुम डॉक्टर हो? या कोई भविष्यवक्ता? जो अपनी भविष्यवाणी खुद कर रहे हो।"
"यथार्थ की जमीन बड़ी खुरदुरी होती है, उस पर पैर वही जमा सकता है जो संयमी हो, सच को कहने -सुनने की हिम्मत रखता हो।"
"तुम पागल हो दीपक, तुमने अपने अवचेतन मन को नकारात्मक उर्जा से भर लिया है।"
"जो भी है, मगर झूठ तो नहीं है?"
"तुम पागल के साथ-साथ जिद्दी भी हो और स्वार्थी भी, सिर्फ अपने बारे में सोचते हो।"
"तुम्हारे बारे में बहुत सोचता हूँ, खुद से भी ज्यादा, मेरे पास मापने के लिए पैमाना नहीं है।"
"मेरा मजाक का मूड नहीं है दीपक मैं सीरियस हूँ।"
मैं तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाता रहूँ, इतना अच्छा नहीं हूँ।"
"तुम कैसे हो? यह सिर्फ मैं जानती हूँ।"
"थोड़ा सा बताओ न प्लीज।"
" चुप रहो दीपक और सुनो, मैं जा रही हूँ। आते रहना खुद ही।" उसने रुठने का अभिनय बखूबी किया।
"जा सकती हो तो चली जाओ।"
"ये इम्तहान की घड़ी नही है।"
"जिन्दगी भी एक इम्तहान ही तो है।"
"अगर जिन्दगी इम्तहान है तो हम अब्बल दर्जे से पास होने वाले विद्यार्थी।"
"मैं जानता हूँ सुप्रिया, मगर हर चीज का अन्त निश्चित है।"
"तुमने पिछले जन्म में फ्लासपी पढ़ी थी क्या?" इस बार उसने नाराजगी से चिढ़ कर कहा।
"सुप्रिया, इस हादसे ने मुझे, लोगों को पढ़ने की काबलियत सिखा दी है और ये भी कि, बेचारगी का दुनिया में कोई इलाज नही।"
"आई लव यू दीपक, छोड़ो ये बातें।"
"लव यू टू डियर, मैंने तो तुम्हे बहुत पहले ही पा लिया है। बेशक अब तुम्हे मुझसे कोई नही छीन सकता, मगर फिर भी तुम मेरी कैद में नही हो। तुम आजाद हो। मैं चाहता हूँ तुम जियो, जी भर के जियो।"
"तुम जीने दोगे तब न?"
"इतना बड़ा आरोप न लगाओ, मैं बर्दाश्त नही कर पाऊँगा।"
"तुम तो महान हो गये हो। त्याग की मूर्ति हो। इस खिताब को पाकर चैन से जी पाओगे?"
"चैन का मतलब जिन्दगी देना होता है, लेना नही। चैन का मतलब, अपनों को खुश देखना होता है। इसी चैन का मैं अभिलाषी हूँ। क्या यह चैन तुम मुझे नही दोगी?"
"दीपक, इन दो बरसों में कितना कुछ भर लिया है तुमने? कितना बदल गये हो तुम? मुझे लगता है तुम दीपक नही, सिर्फ प्रकाश हो। जो निस्वार्थ है। किसी से कुछ नही माँगता, देता ही रहता है। छोटे बच्चे की भय से सुरक्षा। दोस्तों की वफादारी से और अपनों की प्रेम से। बस प्रेमिका ही होती है जो पेंदीं में बैठी रहती है, जहाँ प्रकाश की एक भी किरण नही पहुँच पाता। बस वह प्रकाशमान संसार को निहार सकती है। उसे गले नही ला सकती।" उसके गालों से लुढ़क कर एक गरम बूँद दीपक के काँधें पर जा गिरी।
दीपक ने ब्हील चेयर के ब्रेक वाले बटन को दबा दिया। वह अह्लादित हो गया। एक आसूँ की तपिश में वह पूरा जलने लगा। "क्या सोच रही हो?"
"तुम जान कर क्या करोगे? मेरी सोच, मेरे विचार, मेरी आशायें तुम्हारे सामने बहुत तुच्छ हैं।" ये उसका व्यंग जरुर था, कुछ न समझा पाने की तिलमिलाहट भी थी और प्रेम की पराकाष्ठा भी, मगर अन्तस की चटकन को छुपाना आसान नही होता। वह तो कभी आँखों के पानी में, कभी शब्दों में और कभी शारीरीक भाषा में झलक ही जाती है।
"सुप्रिया, मुझे माफ नही करोगी? दीपक ने उसके दिल पर लगे एक-एक आघात को पढ़ लिया था। वह जानता था, इस पीड़ा को देने वाला वही है मरहम के नाम पर क्या ऐसा दे? जिससे वह पराकाक्षीं न रहे। वह अपनी तरह से गिलास को आधा खाली देख रहा था और सुप्रिया आधा भरा। दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर ठीक थे। दीपक ने पुनः दोहराया- "मुझे माफ कर दो न सुप्रिया?"
दीपक के विन्रम निवेदन के आगे, हमेशा की तरह वह झुक गयी, मगर भीतर- ही -भीतर। बाहर से तो अभी भी वह खफा होने का संकेत ही दे रही थी। उसने सपाट और शान्त कदमों से ब्हील चेयर को आगे बढ़ाया।
दोनों ओर से बराबरी का मौन था। बिल्कुल वैसा ही, जैसा परिचय न होने की स्तिथी में होता है। पार्क के दूसरे छोर तक पहुँच कर फिर वापस लौटते हुये, दीपक ने गहरी साँस ली और इस चुप्पी को तोड़ा- "सुप्रिया, अगर तुम चाहती हो ठीक है, भेज दो सारे पेपरस, मगर ये सिर्फ एक बहलावा है। खुद को ठगने का तरीका है।" उसे याद आया बचपन में जब हम खिलौनों में झूठमूठ की चाय बनाते थे और उसी तरह पीते थे जैसे सचमुच की चाय हो, तब हम जानते हुये भी ये स्वीकार नही करते थे 'ये चाय नही है' और वैसा ही स्वाद आता था। तुम भी वही तो कर रही हो ? मेरे साथ तुम्हे क्या मिलेगा? क्यों खुद को नरक में धकेल रही हो? प्रेम अन्धा होता है, इस बात का प्रमाण है, तुम्हारे रुप में है मेरे पास।
"दीपक, प्रेम का मुकदमा जिरह का मोहताज नही होता। वह तो अपना निर्णय स्वतः ही ले लेता है। दरिया बहने के लिये रास्ता नही माँगता, खुद-व-खुद रास्ता बन जाता है।
"दरिया बन बहना आसान नही होता।"
" फिर भी मुझे बहने दो, सोच कर देखो, क्या तुम मुझे छोड़ कर जा सकते थे? अगर ये हादसा शादी के बाद हुआ होता? अगर इस हादसे में तुम्हारी जगह मैं होती? क्या करते तुम?"
"अनुमानित और ख्याली बातों के बीज एक लेखक के मन में पनपते हैं और वह उन्हे रचता भी है अपनी कहानी, कविता या किसी रचना के लिये, मगर सामान्यतः उसे जीना या हू-बहू उतार लेना असम्भव होता है। तुम वर्तमान की जमीन पर आकर देखो वही महत्वपूर्ण है।"
"हमने अपनी बातों का सिरा जहाँ से पकड़ा था, वहीँ खड़े हैं। इस तरह का ठहराव क्या उचित है।"
"नही, बिल्कुल नही, वही तो मैं भी समझाने की जुगत लगा रहा हूँ, बदलाव प्रकृति का नियम है। हर रात के बाद सुबह होती है और फिर सुबह के बाद रात। हर बीता हुआ दिन 'कल' हो जाता है। लेकिन वर्तमान, वर्तमान ही रहता है।"
"क्या प्रमाणित करना चाहते हो तुम?"
"तुम्हारी खुशियां, एक अपाहिज के साथ तुम कैसे चल सकती हो? क्या ये ब्हील चेयर हमारी अवरोधक नही बनेगी? तुम्हारे पैरो के साथ मेरे पैर, समुन्दर की ठन्डी रेत पर चल सकेंगे? मेरे कान्धे पर सिर रख कर क्या तुम चैन की नींद सो सकोगी? हाथों में हाथ डाल कर झूम पाओगी? मेरे घर लौटने का इन्तजार कैसे करोगी? मेरी आहट पर तुम्हारा मन गुदगुदा पायेगा? नही सुप्रिया प्रेमान्ध होकर कोई फैसला नही लिया जा सकता। एक दिन थक कर चूर हो जाओगी। तब वहाँ से सारे रास्ते बंद हो जायेगें। कब तक तुम खीचोगी इस खौफनाक लोहे को? अभी भी वक्त है। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो और जाओ एक खूबसूरत दुनिया तुम्हारी राह देख रही है।"
"दीपक, तुम कौन सी दुनिया की बात कर रहे हो? मेरी तो पूरी दुनिया ही तुम हो। अब अपनी दुनिया छोड़ कर कहाँ जाऊँ?"
तुम समुन्दर हो, समन्दर कभी सूखा नही करते, मुझे एक चुल्लू ही काफी है। अमृत की एक बूँद, मृत्यु शय्या से उठा कर खड़ा कर देती है। वैसे भी मैं डूब चुकी हूँ और डूबना मुझे अच्छा लग रहा है। अब पीछे लौटना आसान नही है।"
"सुप्रिया, एक बात कहूँ?"
"दीपक, तुम एक क्या? कितनी भी कहो, मगर कोई ऐसी बात मत बोलना जो असहनीय हो।"
"अगर मेरी रिपोर्ट्स फेल हो गयी तो?"
"तुम हमेशा बुरी और खराब चीजों को ही क्यों आकर्षित करते हो? क्यों सकारात्मक नही सोचते?
"क्यों कि मैं जानता हूँ। बगैर पँखों के उड़ा नही जा सकता।"
"किसी शायर ने कहा है- उड़ान पँखों से नही हौसले से होती है.."
"मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ, मगर एक शर्त है।" दीपक ने गहरी सोच में डूब कर कहा।
"मुझे प्रेमान्ध कह कर तुच्छ प्रमाणित करते हो। खुद प्रेम में शर्ते? ये कैसा न्याय है। गुनहगार ही न्यायाधीश बन बैठा?"
"मेरी शर्त तुम्हे माननी ही पड़ेगी।" दीपक इस बार कुछ कटु हो चला था। जिसे देख कर वह कछुये की तरह अपने कबच में लौट आई।
"कल सुबह ही सारी रिपोर्ट्स मेल कर दो और जबाव अगर अच्छा हो तो हम कल ही शादी कर लेंगे। नहीं तो तुमको वही करना होगा जो मैं कहूँ।"
ये गरजने वाले मेघ नही थे। काले और घने बादल थे जो बरसने के लिये मचल रहे थे। सुप्रिया की प्रेम पिपासा बिलख उठी। उसने मौन सहमति को ही बेहतर हथियार समझा। 'आखिर क्या होगी दीपक की शर्त? वह जानती है। इस कल्पना से ही तड़प उठी।
तीन दिन के बाद मेल का जबाव आ गया था। जिसे पढ़ पाने की हिम्मत वह न कर सकी। प्रेम एक ऐसा अहसास है जहाँ सारे रीति-रिवाज, तथ्य, साक्ष्य निर्ममता से टूट जाते हैं और सारी वर्जनायें दरकने लगती हैं। वह तो अपनी ही सौम्यता में नृत्य कर रही होती है। ऐसे में बज्र पात का होना, नये पल्लवित कोपलों को बेपरवाही से कुचलना हैं।
दीपक की शर्त के समक्ष बचे-कुचे अवशेष दरकने लगे थे। अन्तस के टुकड़े आइने में तबदील हो रहे थे। जिसे बैठ कर देखते रहना और उस हवन कुंड में कूद जाना, एक द्रश्य की तरह था। शर्त की वेदी पर चढ़ते हुये , प्रेम की पराकाष्ठा से अविभूत वह शारीरिक रुप में किसी और को पाने से तृप्त हो पायेगी? सुप्रिया सुर्ख आँखों को पोछने लगी। प्रेम बलिदान माँग रहा था। कभी प्रेमी से मिलन के लिये, कभी प्रेमी के लिये। वह इस बलिदान के लिये तैयार थी।
दरवाजे पर बारात की आवाज से सहेलियाँ भाग गयी। दुल्हन सोलह श्रँगार में बैठी हथेलियों में प्रेम को समेट कर सिसक पड़ी। उस आलीशान पंडाल मे संगीत लहरी की धुन पर लोग थिरक रहे थे। सब की अपनी-अपनी धुन थी। लजीज खाने की खुशबू में कुछ डूबे हुये थे। आधुनिक परिधानों मे लड़कियों का इतराना और मनचलों का छेड़ना कही किसी अपरिपक्व प्रेम को न जन्म दे दे? डरी हुई सुप्रिया के मन में कुछ परिद्रश्य कौधने लगे। 'नही, तुम प्रेम मत करना' भीतर से उठते उद्वेगों को नियन्त्रित करने का प्रयास वह कर रही थी।
गैलरी से आती हुयी चिर-परिचित आवाज को सुन कर सुप्रिया उठ खड़ी हुई। उसे पहचानते देर नही लगी, वैसे भी यह आवाज तो उसके दिल का हिस्सा है। उसका दिल धड़कने लगा। कलेजा काँपने लगा। वह भाग कर दरवाजे को खोल आई- "दीपक?" ब्हील चेयर पर बैठा वह उसे आखरी विदाई देने आया था। प्रेम की विदाई। अनियन्त्रित भावनायें उछाल खाती इससे पहले उसने दरवाजे को बन्द कर दिया। "दूर रहो दीपक, आज क्यों आये हो यहाँ? मेरे आसूँओ पर रो पाओगे तुम? या आज भी उपदेशों की, शर्तों की बलि चढा़नी है। अब कौन सी शर्त बची है? चले जाओ.. फिर कभी लौट कर मत आना। तुम्हारा सारा प्रकाश सिर्फ तुम्हारा है। मैं तो सदा पेंदीं मे ही रहुँगी। लेकिन हमारा रुहानी प्यार अमर रहेगा। उसे तो तुम नही छीन सकते, कभी नही।
छाया अग्रवाल
मो. 8899793319






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