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माफ करना पृथ्वी

कहानी -- माफ करना पृथ्वी
मृणालिनी के बालों में गजरा लगाते हुये धीरज ने कहा-"आज तुम बहुत प्यारी लग रही हो एकदम अप्सरा, मन कर रहा है तुम्हे देखता रहूँ और यूँ ही तुम्हारे पास बैठा रहूँ।"
"धीरज, तुम पृथ्वी को बहुत प्यार करते हो न ??" मृणालिनी ने धीरज की बात को अनसुना करते हुये कहा।
धीरज उसके प्रश्न से असहज जरुर हो गया था मगर अन्दर ही अन्दर वो उसके उत्तर के लिये पहले से तैयार था। मुस्कराते हुये उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुये बोला-" हाँ मृणालिनी बहुत प्यार करता हूँ पर तुमसे ज्यादा नही"
"झूठ.....तुम झूठ बोल रहे हो"
"नही मृणालिनी मैं सच बोल रहा हूँ और तुमसे कभी झूठ बोल सकता हूँ क्या..??
"धीरज, कभी-कभी मेरा यकीन डगमगाने लगता है।न जाने क्यो मुझे बहुत डर लगता है"
"कैसा डर मृणालिनी..?"
"यही कि मैं बड़े से रेगिस्तान में अकेली खड़ी हूँ, तुम्हे जोर-जोर से पुकार रही हूँ और तुम दूर एक साये की तरह नजर आ रहे हो।मैं जितना तुम्हारे नजदीक जाने की कोशिश करती हूँ, तुम मेरी पकड़ से दूर होते जाते हो और फिर मैं चक्कर खाकर गिर जाती हूँ।"
"मृणालिनी... तुम भी न...क्या- क्या सोचती रहती हो..? मैं तुम्हे कभी छोड़ कर कहीँ नही जाऊँगा।विश्बास करो मुझ पर।"कह कर धीरज ने उसे बाँहों में भर लिया।
"धीरज, मैं तुम्हारे बगैर नही रह सकती"
"मैं भी स्वीट हार्ट.....कहाँ रह पाता हूँ बताओ..?"
मृणालिनी के आँख से अश्रुधारा बह निकली। कहीँ धीरज का दानी व्यक्तित्व उसके जीवनदान की जद्दोजहद में तो नही लगा है..? या ये उसका निश्छल प्रेम है--? या फिर...सहानुभूति..? ऐसे प्रश्नों का ज्वार- भाटा उसके बीमार चेहरे को दयनीय बना रहा था।
"नही बिल्कुल नही....इन मोतियों को यूँ मत बहाओ" धीरज ने अपनी तर्जनी पर उसके आँसू की बूँद को लेते हुये कहा- "ये बहुत कीमती हैं मैं इन्हे बहता हुआ नही देख सकता"
काफी देर तक वो यूँ ही बैठे रहे। मृणालिनी ने अपना चेहरा उसके सीने में छुपा लिया था। धीरज उसके बालों में यूँ हाथ फेर रहा था जैसे वो अबोध, नादान सी बच्ची हो।
समय का चक्र अपनी धीमी गति से चल रहा था। धीरज पलंग की पुश्त पर सिर टिकाये अतीत के उस गहरे सागर में खो गया जिसकी चाल वर्तमान को पीछे धकेल रही थी। मृणालिनी जो अभी असुरक्षित और डरा हुआ महसूस कर रही थी मीठी-मीठी नींद में सो चुकी थी।
उस रोज शाम का झुटपुटा उजालों से विदा ले रहा था। हाइवे पर दौड़ती हुईं कार में एक नया नवेला जोड़ा इश्क में डूबा हुआ था। "धीरज संभाल के......गाड़ी चलाओ..और देखो मत करो ये सब.." पृथ्वी ने एक मीठी सी फटकार धीरज को लगाई। बदले में धीरज ने मुस्कुरा कर अपने बायें हाथ से पृथ्वी का हाथ कस कर पकड़ लिया और शरारत भरे अंदाज में बोला- "छुड़ाओ इसे....."
पृथ्वी ने लजा कर उसकी तरफ देखा फिर रुख बदल कर, डपटते हुये बोली- " डा०धीरज, ये बैडरुम नही है हमारा "
"जानता हूँ पर पत्नी तो है न..?"
लाज से दोहरी हुई पृथ्वी ने मौका पाकर अपना हाथ छुडाया और गंभीर होने का अभिनय करती हुई बोली- "वो देखो सामने....सामने देखो जानू "
धीरज ने सामने देखा। दूर-दूर तक सड़क खाली पड़ी हुई थी।स्तिथी को ताड़ते ही वो समझ गया कि ये पृथ्वी की शरारत थी।धीरज खिसिया कर बोला- "अच्छा...अच्छा चलो घर फिर बताता हूँ तुम्हे।" उसकी खिसियाट को देख कर पृथ्वी खिलखिलाकर हँस पड़ी।
अभी चन्द मिनट ही बीते थे। उसकी नजर एक कार पड़ी जो एक पेड़ से टकराई हुई थी। "अरे ये क्या..?? देखो धीरज..कोई दुर्घटना हुई है।" धीरज ने देखा पृथ्वी सही कह रही थी। दाईं तरफ एक कार पेड़ में बुरी तरह भिड़ी हुई थी। उसने तेजी से ब्रेक लगाया। टायरों के घसीटने की आवाज के साथ ही उनकी कार रुक गयी। धीरज ने कार को बैक किया। उसे ये समझते देर नही लगी कि दुर्घटना अभी -अभी ही हुई है।
एक डाक्टर होने के नाते उसका ये फर्ज भी था कि घायल को समय से इलाज मिल सके। "धीरज कुछ करो प्लीज...देखो अन्दर कोई महिला है" पृथ्वी की आवाज में घबराहट थी।
"देखता हूँ पृथ्वी तुम घबराओ मत" धीरज और पृथ्वी दोनों गाड़ी से बाहर आये। 'अकेले तो हाथ लगाना सम्भव नही होगा ' अभी वो यह सोच ही रहा था कि आस-पास के खेत खलिहानी किसान इकट्ठे होने लगे। वहाँ हडवड़ी सी मची हुई थी। कुछ मद्द के लिये कमर कस चुके थे और कुछ केवल तमाशवीन ही थे। धीरज ने भी हाथ लगाने से पहले पुलिस को इत्तला कर दी थी।
वहां इकट्ठा हुए लोगों ने जैसे-तैसे गाड़ी का दरवाजा खोला। ड्राइविंग सीट पर एक महिला बेहोश पड़ी थी। उसका सर स्टेरिंग पर टिका हुआ था । ऐसे मौकों पर तमाशबीन लोग जरूर होते हैं मगर जांबाज और बड़े दिल वालों की भी कमी नहीं होती ।धीरज के दिशा -निर्देश में उस महिला को बाहर निकालने की कवायद शुरू हो गई। इससे पहले जिस बात का शक था धीरज को उसकी पुष्टि करना उसने जरूरी समझा उसने स्टेरिंग पर पड़ी उस महिला की कलाई को थाम कर जाँचा और संतोष की सांस ली। उसने पृथ्वी की तरफ देखकर हां में सिर हिलाया। बस फिर क्या था सभी का जोश दुगना हो गया। आनन-फानन में उस महिला को बाहर निकाल लिया गया उसका पूरा चेहरा खून से लथपत था। हालांकि उसे पहचानना मुश्किल था फिर भी ये अन्दाजा लगाया जा सकता था कि महिला गोरी और खूबसूरत होगी।
अब जल्दी थी तो बस, उसे बचाने की। धीरज एक डाक्टर होने के साथ-साथ एक नेक इन्सान भी था। ये बात अलग है कि कालेज के दिनों में वो उतना गम्भीर नही था, मगर दिल से हमेशा उदार ही रहा। पृथ्वी भी दिल की बेहद कच्ची थी सो उसकी हालत देख कर एकदम तड़प उठी- "धीरज प्लीज जल्दी से इसको अस्पताल ले चलो।"
"हाँ, हम चलते हैं पृथ्वी....तुम घबराओ नही और गाड़ी में बैठो।इसे कुछ नही होगा। हम समय से अस्पताल पहुँच जायेंगे और इसको बचा लेंगे।" कह कर धीरज ने बगैर समय गँवाये ड्राइविंग सीट को संभाल लिया और पिछली सीट पर उस महिला को लिटा दिया गया। हलाँकि ये काम इतना आसान नही था। कई सवाल थे जो रह -रह कर दिमाग में दस्तक दे रहे थे। पर दिल था कि उन सवालो को धूल की तरह झाँड़ रहा था। न जाने क्यों धीरज को ऐसा लग रहा था जैसे उससे उसकी पहले से कोई पहचान हो।
गाड़ी सौ, एक सौ बीस की गति से दौड़ रही थी। आगे बैठी पृथ्वी बार-बार पीछे मुड़ कर देख रही थी। उसकी धड़कने और तेज होने लगीं। कभी जाम, कभी रेलवे फाटक का बन्द होना, ये एक इम्तहान से कम नही था। ऐसे में एक-एक पल भारी हो रहा था।फिर भी वो लोग समय से अस्पताल पहुँच ही गये। धीरज ने फोन पर ही स्टाफ को सारी स्तिथि से अवगत करवा दिया था ।
आपरेशन थियेटर की लाल बत्ती बन्द हो गई थी। धीरज बाहर ही था। चूकि वो सर्जन नही था और फिर मानसिक तौर पर भी अभी संतुलित नही हो पाया था। इसलिए वो पृथ्वी के साथ ही था। दूसरे डाक्टर राहुल ने आकर बताया- खून काफी बह चुका है सर जैसा कि आपने देखा ही है, दोनोंं पैरों में मल्टीपल फ्रैक्चर है। बाकि रिपोर्ट्स आने पर पता लगेगा। डा०धीरज आप पेशेन्ट को देख लीजिये। उसे आई०सी०यू० में शिफ्ट करा दिया गया है।
धीरज आईसीयू में अपने लाये पेशेंट को ढूंढने लगा- ' मैं उसे पहचानूंगा कैसे..? हड़बड़ी में ना तो उसका चेहरा ही देख पाया ना ही कोई पहचान कर पाया..' धीरज से मन ही मन सोचा। तभी नर्स ने आकर उसको बताया कि-' सर आप जिस पेशेंट को लाये थे वो दो नंबर बैड पर है।'
बेड नंबर दो के नजदीक पहुंचते ही धीरज चौक पड़ा 'यह क्या..? मृणालिनी ...? मृणालिनी तुम.....तो. तुम .ही थी...?? ये मैं क्या देख रहा हूं यह सब.... यह सब कैसे हुआ..?' धीरज पाँच मिनट तक यूँ ही खड़ा रहा। एक बुत की तरह। उसने सिस्टर को बुला कर कहा- "इनकी देखभाल में किसी तरह की कोई कोताही नही होनी चाहिये। किसी भी चींज की जरूरत हो तो मँगवा लेना। उसके शब्दों में कम्पन था और पाँव जैसे बेजान से हो रहे थे। कह कर धीरज भारी कदमों से बाहर आ गया। उसे समझ नही आ रहा था कि वो मृणालिनी के मिलने से खुश होये या दुखी ' तुम कहां थी अब तक..? और अब मिली हो तो इस हाल में....???' वो अपने केबिन में निढ़ाल सा बैठ गया। उठ रहे उद्वेगों की इवारत को वो खुद से ही छिपाने लगा।
वो समय बहुत दूर नही था जब वो और मृणालिनी एक साथ कालेज में पढ़ते थे। कितने हसीन पल थे। साथ घूमना-फिरना, हँसना, मस्ती करना। कभी-कभी झगड़ना और फिर मना लेना।
कितना कुछ दिया था इस गरिमामयी, दानी व्यक्तित्व की इस औरत ने उसे..?कैसे भूल सकता है वो इसे? मृणालिनी उसके जीवन में महज एक दोस्त ही नही थी। उसकी परिभाषा तो अवर्णनीय है। उसका दोहरा रुप आज भी याद है उसे। एक तरफ हँसमुख और सच्चे दोस्त की भूमिका और दूसरी तरफ हालात समझने की गम्भीर समझ। मैं ही नही समझ पाया कभी उसे। उसका निश्छल और निशब्द प्रेम हमेशा इन्तजार ही करता रहा। उसने कभी कुछ माँगा ही नही,बल्कि विना की स्वार्थ के देती रही। कभी ट्यूशन की फीस, कभी नोटस, और कभी मानसिक मजबूती। मैं कितनी बार हारा था, टूटा था कि अब नही हो पायेगा। पापा के जाने के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी, बहन की पढ़ाई और माँ की लगातार बिगड़ती मानसिक स्तिथी, इन सब में वो हमेशा साथ रहीं। उसने कभी साथ नही छोड़ा। वो मेरी दिनचर्चा में शामिल भर थी, जैसे ब्रश, टाविल, पेन और किताबों की तरह। इससे ज्यादा और कुछ नही। इससे ऊपर कभी उसे देखा ही नही। उसकी अनकही बातों का खूबसूरत पन्ना तब खुला, जब वो निराशा की सीढी का आखरी पाया उतर गयीं और चुपचाप बगैर बताये कहीँ दूर चली गयीं। उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी। इस बात को समझने के लिये भी वक्त कहाँ था मेरे पास।
जब डाक्टर की डिग्री हाथ में आई तो मैं आसमान में उड़ रहा था उसे उपेक्षित, अपमानित कर मैं अनजान था। भूल गया था वो त्याग, वो समर्पण जो उसने मेरे लिये किया था। वो भी स्वाभिमानी चरित्र पर बेरुखी की चोट कब तक सहतीं...???
मृणालिनी... तुमने क्यों नही बताया कि तुम.......उफ्फफ...मैं ही तुम्हारे प्रेम के योग्य नही था।
आत्मग्लानि से बाहर आने का भरभस प्रयत्न कर रहा था धीरज। ये यथार्थ का कर्कश फैसला था। जिन्दगी के इस मुहाने पर एक बार फिर लाकर खड़ा कर दिया था कुदरत ने। एक ठंडी साँस लेकर उसने खुद को टटोला....पृथ्वी तेरी पत्नी है, तेरा प्यार है धीरज, तू ये क्या सोच रहा है ? आज क्यों मृणालिनी का अनदेखा प्रेम कसक बन के चुभ रहा है..? वो जैसे रहती है रहेगी। वो माफी माँग लेगा उससे, अफसोस जता लेगा और...और कर भी क्या सकता है..? उसने भी तो शादी कर ली होगी? अपने जीवन के नये आयाम बना लिये होगें ?..फिर....फिर मैं ये सब क्यों सोच रहा हूँ..? क्यों द्वन्द की रस्सी से खुद को बाँध रहा हूँ...? क्यों आत्मलीनता में धंस रहा हूँ..? नही...मृणालिनी तुम्हे होश में आते ही मैं खुद तुम्हे, तुम्हारे घर छोड़ कर आऊँगा।
बस अब एक ही सवाल था जो बैन्टीलेटर की मोनीडर स्क्रीन पर आने वाली जीवन रेखा की तरह अपना संतुलन खो रहा था....'मृणालिनी का सामना कैसे कर पाऊँगा.....? क्या कहूँगा उससे..? और पृथ्वी से..? कि क्यों मैं उसकी देखभाल कर रहा हूँ..?
नर्स ने केबिन में आकर बताया-'सर पेशेन्ट को होश आ गया है और पुलिस भी बयान लेना चाहती है।'
'ठीक है मैं आता हूँ और सुनो पुलिस से कहना पाँच मिनट से ज्यादा ना लें। पेशेन्ट की स्तिथि ऐसी नही कि वो ज्यादा बात कर सके।'
'ठीक है सर ' कह कर वो बाहर निकल गई।
रिकॉर्ड वयान से पता लगा कि एक्सीडेंट स्वतः ही हुआ है।मृणालिनी ने बताया कि गाड़ी चलाने वक्त अचानक चक्कर आया और फिर आँखों के आगे अँधेरा छा गया। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ भी पता नही। घर के बारे में पूछने पर उसने बताया-पति या रिश्तेदारों के नाम पर कोई नही है। वो अकेली रहती है। घर में बच्चों का क्रैच खोल रखा है। बस यही उसकी छोटी सी दुनिया है।
सुन कर धीरज को झटका लगा। वो भावशून्य सा खड़ा रहा। मृणालिनी तुमने शादी नही की...? आखिर क्यो...? क्या तुम मुझे भूली नही हो...? क्या तुम अभी भी मेरा इन्तजार कर रही हो...? ऐसा कैसे हो सकता है...? इतना बड़ा त्याग क्या मेरे लिये...? नही मृणालिनी तुम ऐसा नही कर सकती। कैसे जीती होगी ये तन्हा जिन्दगी...? तुम्हारा ये मूक संघर्ष किसके लिये....?ओह.. जिसे मैं धुँध समझ रहा था आकार लेने के लिये बिलख रहा है....ये कैसा इम्तिहान है..?और तुम्हारा भाई भी तो था...वो कहाँ है...? क्या तुम उसके साथ नही रहती..? अपने माता -पिता को तो तुमने बचपन में ही खो दिया था।सिर्फ भाई ही तो था। क्या अब वो भी......?पतझण के बगैर ही हरे-भरे पत्तो का टूटना और फिर पेड़ का ठूठ में बदल जाना...उफफफफ.....कितना दफन किये बैठी हो...?तुम्हारे लिये पर्याप्त भावुकता कहाँ से लाऊँ..? बरसों से लंबित पड़ा मुकदमा जिरह के लिये तैयार खड़ा था। धीरज दिल के कटघरे में बिल्कुल अकेला था।
कुछ सवाल धीरज से भी पूछे गये। पृथ्वी को घर भेज दिया था चूकि वो इस हादसे से मानसिक तनाव में आ गयी थी। उसका न होना ही ठीक था। अगर वो होती तो धीरज उसकी नजरों से खुद को नही बचा पाता।
आज दूसरा दिन था। अभी तक धीरज उससे नही मिला था।या यूँ कहें कि मिलने की हिम्मत नही जुटा पाया था।
मृणालिनी को आई.सी.यू. से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था। बेशक धीरज उससे अभी तक नही मिला था मगर उसे इतना पता था कि कोई फरिश्ता है जो उसे यहाँ लेकर आया है और उसकी देखभाल कर रहा है। वो उससे मिलने के लिये बहुत उत्सुक थी।
आज लैब से सभी रिपोर्टस आ गयी थीं। "डा०धीरज, पेशेन्ट की पोजीशन बहुत ही क्रीटिकल है। सी.टी. स्कैन के मुताबिक ब्रेन ट्यूमर फोर्थ स्टेज पर है, और यही बजह रही है एक्सीडेंट की। पैरो में मल्टीपल फ्रैक्चर। ऐसी स्तिथि में क्या किया जाये। ऐसे वक्त में उन्हे दवा से ज्यादा, दुआ और प्यार की जरुरत है ।"
डा०राहुल ने धीरज से कहा।
"राहुल इस केस को अब तुम ही देखोगे। मैं इमोशनल होकर ट्रीटमैंट नही कर पाऊंगा। ये मेरे लिये सिर्फ पेशेन्ट नही है इससे मेरा एक पुराना रिश्ता है।" कह कर धीरज सोचने लगा- अब मृणालिनी का सामना करना और मुश्किल होता जा रहा है।
"आई नो डा०धीरज, जरुर कुछ ऐसा है जो आपको परेशान कर रहा है। अगर आप चाहे तो शेयर कर सकते हैं।"
धीरज तो जैसे इसी बात का इन्तजार कर रहा था। पर एक झिझक थी कि कैसे और कहाँ से शुरु करूँगा..?अक्सर अपने ही बात मायने बदल देते हैं। अब वो समय गँवाना नही चाहता था। सो दिल का एक-एक पन्ना राहुल के सामने पलट दिया। ऐसा करना बेहद जरुरी था। बादल आने के बाद, अगर न बरसें तो उमस और बढ़ जाती है। धीरज की बात से राहुल भी चिन्तित हो उठा। वो पेशे के साथ-साथ एक अच्छे दोस्त भी थे। इस बात को वो दोनों ही जानते थे। राहुल उम्र और तजुर्बे में धीरज से कम जरुर था मगर अपने फन में माहिर था।
"डा०धीरज, एक बात कहूँ..?" आपको आपके सभी पुराने कर्ज चुकाने का वक्त आ गया है। मृणालिनी जी को अकेला नही छोड़ा जा सकता। नियति यही कहती है और हालात भी।
"जानता हूँ राहुल..मगर पृथ्वी इसके लिये तैयार नही हुई तो..? मैं पृथ्वी को धोखा नही दे सकता।"
मृणालिनी जी के पास वक्त बहुत कम है ये तो आप जानते ही हैं।और ये भी कि आपके अलावा और कोई नही है उनका, और रही बात धोखे की तो आप ऐसा कुछ नही कर रहे जिसे धोखा कहा जाये। बेशक आप विवाहित हैं मगर ये मत भूलिये कि आपको एम. बी. बी. एस. कराने वाली मृणालिनी जी ही हैं।
डा०राहुल की बात सुन कर धीरज के सवालों का गुच्छा सुलझने लगा। वो मृणालिनी का सामना करने की हिम्मत जुटाने लगा।
धीरज प्राइवेट वार्ड में दाखिल हुआ । सामने मृणालिनी अधसोई सी लेटी थी। दवाइओं का नशा और दुर्घटना का दर्द उसके चेहरे पर मातम की तरह छाया हुआ था पैरो की आहट को सुन कर उसने बंद आँखों को खोलने की कोशिश की। पहले धुँधला फिर धीरे-धीरे साफ दिखाई देने लगा। जैसे ही दिखाई दिया उसने धीरज को पहचान लिया। आठ बरस का अन्तराल इतना बड़ा नही कि कोई खास बदलाव आये। वो चौंक पड़ी....."धीरज......तुम..?
"हाँ मैं...मृणालिनी.. कैसी हो तुम..??
धीरज की बात का जबाव दिये बगैर उसके आँख की कोर से खुशी के आँसू ढलक आये....तुम यहाँ कैसे धीरज...? सवालों का समन्दर था जो तूफान की शक्ल लेने लगा, मगर देह की शिथिलता ने उसे रोक दिया।
"मृणालिनी अभी ज्यादा मत बोलो तुम्हारी सेहत के लिये ठीक नही है। तुम्हारे हर सवाल का जबाव मिलेगा बस पहले तुम ठीक हो जाओ।"
"धीरज....मुझे यहाँ लेकर तुम ही आये हो न????क्यों आये हो लेकर, मरने दिया होता.... वैसे भी कौन सा मैं जी रही थी।"
"मृणालिनी मेरे डाक्टर बनने की बजह तुम हो। मुझे सब याद है।मैं तुम्हारा कर्ज कभी नही उतार सकता। तुम मेरी जिन्दगी में क्या जगह रखती हो मुझे भी नही पता" धीरज उसकी भावनाओं के अपमान की माफी माँग रहा था। दिल तो कह रहा था कह दूँ कि मैं ही जिम्मेदार हूँ तुम्हारी इस हालत का...मगर अब जो भी हो तुम जिन्दा रहोगी। छ: महीने की मेहमान के रुप में जरुर लेटी हो। वादा करता हूँ तुम्हारे जीवन के ये अन्तिम पल मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा। तुम्हारी सेवा टहल में कोई कसर नही छोडूँगा। तुम मेरे प्यार की दवा से जिन्दा रहोगी।
उसके बाद धीरज मृणालिनी को उसी के घर ले आया था। उसकी सेवा टहल में कोई कोर- कसर नही छोड़ी।
मोबाइल की घण्टी से धीरज की तन्द्रा टूट गयी। "कहाँ हो धीरज? घर कब आओगे..?"
"थोड़ा लेट हो जायेगा। तुम डिनर कर लेना।" कह कर उसने फोन को डिस्कनैक्ट कर दिया। मृणालिनी ने धीरज की बाहँ को पकड़ते हुये कहा- "धीरज मुझे छोड़ कर मत जाना।" धीरज ने मुस्कुरा कर उसे तकिये का सहारा देकर लिटा दिया।
उसने दीवार पर लटके कलैंडर को देखा और मन ही मन कहा- "पृथ्वी मुझे माफ कर देना..बस तीन महीने ही बचे हैं...उसके बाद मृणालिनी.... कहते -कहते धीरज का गला रूँध गया।
छाया अग्रवाल

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