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लाल चप्पल

"लाल चप्पल"



दूर दूर तक कोई भी नहीं था। पूरी सड़क सुनसान थी।दोपहर का वक्त था और गर्मी के दिन थे। चिलचिलाती धूप में रधिया नंगे पाँव जलती हुई सड़क पर लगभग दौड़ती हुई बाजार की तरफ चली जा रही थी। उसे बाजार पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी पर एक पैर सड़क पर रखते ही सड़क की चारकोल पैर जलाने लगती थी तो झट दूसरा पैर खुद ही आगे आ जाता था। सूरज की कड़कड़ाती धूप से सड़क पर बिछी चारकोल इतनी गरम हो चुकी थी कि रधिया का चलना दौड़ने में परिवर्तित हो रहा था। कल की मालकिन ने रधिया को पैसे दिए थे कि वह अपने लिए एक चप्पल खरीद ले। पहले तो उसने सोचा था कि उन पैसों से चप्पल की जगह बुधवा के लिए एक काली वाली छतरी खरीदेगी... बेचारा इतनी धूप में मजदूरी करने शहर के एकदम दूसरी छोर तक जाता है... दिन भर माथे पर ईंटें लाद-लाद कर तीन मंजिलें चढ़ता- उतरता है, फिर जब तक ठेकेदार न बोले, खाना भी नहीं खा पाता है। बारिश हो कि कड़ी धूप..दिन-दिन भर खुले आसमान के नीचे काम करता रहता है। छतरी होगी तो दम भर धूप और पानी से बच कर बैठ तो सकेगा। परंतु,बीती रात को रोटी खिलाते समय जब से रधिया ने बुधवा को मालकिन के लिए पैसों के विषय में बताया था, तभी से वह उसके पीछे पड़ गया था कि पैसे दे दो क्योंकि पिछले महीने उसके दोस्त हरमू ने सब दोस्तों को ताड़ी पिलाई थी, मीट-भात खिलाया था... तो इस बार वह सब को अपनी तरफ से ताड़ी की पार्टी देगा। उसका इरादा समझते ही रधिया ने तय कर लिया था कि चुपचाप चप्पल ले आने में ही उसकी भलाई है, वरना एक बार पैसे बुधवा के हाथ में गए.. तो न छतरी आएगी न चप्पल।वह पैसों को दोस्तों के बीच उड़ा देगा और फिर मालकिन दुबारा पैसे देने से तो रहीं...उलटा कहीं डाँट न सुननी पड़े। इसीलिए रधिया शाम तक बुधवा के आने से पहले ही चप्पल खरीदकर छुपा देना चाहती थी। बुधवा पूछेगा तो कह देगी पैसे कहीं गिर गए, नहीं तो चप्पल देखकर बुधवा उसी चप्पल से उसकी पिटाई कर देगा... कहेगा कि बड़ी महारानी बनती है, चप्पल पहनकर काम करने जाएगी स्साली... दोस्तों के सामने मेरी इज्जत रहे ना रहे, महारानी को चप्पल जरूर चाहिए। रधिया अच्छी तरह से जानती है उसे, भले वह उससे प्रेम करता है, लेकिन उसकी खुद की जो पसंद है, उसे रधिया से ज्यादा प्यारी है...जो बोल दिया सो बोल दिया। बुधवा को बताकर अपनी शामत थोड़े ही न लानी है। रधिया के कदम और तेज हो गए।


बाजार में बहुत कम दुकानें खुली थीं। अधिकतर दुकानें या तो दोपहर की गर्मी की वजह से बंद थीं या फिर दुकानदार खाना खा रहे थे तो शटर आधी गिरा रखी थी। रधिया को समझ नहीं आया कि वह क्या करे। इतनी मुश्किल से तो पाँव जला-जला कर पहुँची थी वह... अब वापस जाकर फिर से आना कहाँ संभव था। दो-ढाई बज चुके थे तीन-साढ़े तीन बजे तक कोठी में काम करने जाना होगा, फिर कहाँ टाईम मिलेगा..?.. अभी अगर चप्पल नहीं खरीद पायी तो फिर तो नहीं ही ले पाएगी। शाम को लौट कर बुधवा फिर पैसे माँगेगा और नहीं देने पर मारेगा... छतरी खरीदेगी तो वह उसे भी बेच कर पैसे ताड़ी पार्टी में उड़ा देगा... नहीं नहीं.. उसे चप्पल खरीदना ही होगा।


रधिया ने इधर उधर देखा, कोने में चप्पलों की एक छोटी सी दुकान दिखी..वह उधर ही बढ़ गई। दुकान का मालिक उन्हीं चप्पलों के बीच बैठकर खाना खा रहा था। छोटी सी दुकान थी पर जूतों-चप्पलों का अंबार लगा था। सामने थोड़ी हिलती-डुलती सी एक बेंच रखी थी।दीवार के ऊपर एक छोटा सा पंखा तिरछा करके लगा था, जो सीधा दुकानदार के ऊपर ही हवा फेंक रहा था हालांकि उसकी गर्म हवा बीच-बीच में थोड़ी बेंच की तरफ भी आ रही थी।रधिया उस गर्मी में तेजी से चलती-चलती थक गई थी। बेंच देखते ही जल्दी से जाकर बैठ गई। दुकानदार ने एक बार खाते-खाते सिर उठाकर उसे देखा,फिर इशारे से गर्दन उचकाकर पूछा कि क्या चाहिए..?

"भईया, एगो चप्पल देखाइए न... मेरे लिए".. रधिया ने कहा।

दुकानदार ने खाते-खाते पूछा-"हवाई चप्पल चाहिए कि फैंसी वाला देखावें?"

"हवाइए चप्पल देखाइए….फैंसिया लेकर का करेंगे भईया,हम लोग त काम-काज वाले आदमी हैं"- रधिया का जवाब था।

दायें हाथ से खाते-खाते दुकानदार ने बायें हाथ से चप्पल का एक डब्बा उठाया, खोला और उसे उलटकर उसमें से चप्पल नीचे गिरा दी-- "पहिन के देखिए, ठीक है..?"

रधिया झट से उठकर चप्पल में एक पैर डाल कर देखने लगी-"लगता तो ठीके है, पर तनी कड़ा है, दोसर देखाइए न।"

"अरे दुन्नू पैर में पहिन के देखिए, एगो पैर में थोड़े पता चलेगा.." दुकानदार बोला।

गर्मी से बेहाल,थकी हुई रधिया का बेंच पर से दुबारा उठने का मन नहीं हो रहा था, पर क्या करती,जल्दी से लौटकर काम पर भी जाना था। बेमन से उठकर दोनों पैरों में चप्पल पहन कर देखा... तलवे के नीचे मोटा का गद्दा..अहा, जलते हुए पैरों को बड़ी ठंडक सी मिली, पल भर के लिए उसने अपनी आँखें बंद कर लीं... बंद आँखों से ही उसे कोठी की मालकिन के पैरों की चप्पल दिखी, जो उनके गोरे से पैर में बड़ी खिलती थी। रधिया का मन मचल उठा, बोली-"ए साइज तो ठीके लग रहा है, लाल कलर में नहीं है..?" लाल वाला देखाइए ना..।"

दुकानदार का खाना भी तब तक समाप्त हो चुका था। हाथ हिला कर रधिया को बैठने का इशारा करते हुए पानी की बोतल लेकर दुकान से बाहर चला गया।हाथ मुँह धोकर तुरंत ही वापस आ गया, फिर एक फटे से तौलिये में हाथ पोंछते हुए बोला-" लाल कलर में है,लेकिन एक साईज छोटा है, आपके पैर में नहीं आवेगा।"

"अरे, देखाइए तो सही, अभी पहिन के देखेंगे.. तब ना"-रधियाया का मन अब लाल रंग की चप्पल पर अटक चुका था।

दुकानदार ने एक दूसरे डब्बे से लाल रंग की चप्पल निकालकर दिखाई।

"अरे,ई का..!ई तो ओही चप्पल है,जैसा मालकिन पहनती हैं".. रधिया की बांछें खिल गयीं... अब वह भी मालकिन जैसी चप्पल पहनेगी...साँवली है तो क्या हुआ.. बड़े लोगों जैसे लाल रंग की चप्पल उस पर भी जचेंगी..।दुकानदार कहता रह गया कि ई चप्पल तुम्हारे साइज से छोटा है, पर रधिया वही लाल चप्पल खरीद कर निकल आई।


लौटते समय तो रधिया मानो फूल पर चलने वाली रानी बन गई।सँभाल-सँभाल कर पाँव रखती, कहीं सड़क पर पड़ी गंदगी से उसकी चप्पल न गंदी हो जाए।चप्पल वाकई में एक साइज छोटी थी,चलने में थोड़ी मुश्किल भी बीच-बीच में आ रही थी परन्तु, रधिया को इस बात का बिल्कुल मलाल नहीं था कि चप्पल थोड़ी महँगी मिली और उसकी साइज से छोटी मिली...वह तो इस बात से ही खुश थी कि अब उसके पास जी मालकिन की जैसी लाल चप्पल है।वह लाल चप्पल झोंपड़ी की रधिया को एक कोठी की मालकिन होने का दर्जा दे रही थी।

अर्चना अनुप्रिया।

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