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घर की देहरी लाँघती स्त्री कलम- समीक्षा

"घर की देहरी लांघती स्त्री कलम"
( एक समीक्षा)
- अर्चना अनुप्रिया


नारीवादी साहित्य और स्त्री विमर्श के क्षेत्र में नीलम कुलश्रेष्ठ बहुत ही जाना पहचाना नाम है।औरतों की कोख से लेकर भूमंडलीकरण तक की जीवन-यात्रा के हर पहलू को नीलम जी ने बहुत करीब से देखा और साहित्यबद्ध किया है।’रिले रेस, व `आप ऊपर ही बिराजिये `जैसे स्त्री विमर्श कहानी संग्रह व’धर्म की बेड़ियाँ खोल रही है औरत’(३संस्करण)जैसी नारी -प्रधान रचनाएँ ,इन पांच पुस्तकों के संपादन उनकी स्त्री-परख क्षमता को दर्शाती हैं।उनके इसी स्त्रीपरक शोध की अगली कड़ी है, कविता संग्रह-”घर की देहलीज़ लांघती स्त्री कलम”।

नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा संपादित यह कविता- संग्रह “घर की देहलीज़ लांघती स्त्री कलम”,एक बड़ा ही अनूठा काव्य-संग्रह है।जैसा कि नाम से ही अवगत है,इस संग्रह की अधिकांशतः कवयित्रियाँ मूलतः गृहस्थी सँभालने वाली वे स्त्रियां हैं, जो घर और रसोई के साथ-साथ नारी-अस्तित्व के उज्जवल भविष्य के लिए भी प्रयत्नशील हैं।सच कहें तो यही इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता भी है। आमतौर पर, घर के अंदर रोजमर्रा के कार्य मेंं व्यस्त रहते हुए स्त्रियों के मन में अपने दैहिक, मानसिक और आर्थिक संघर्षों को लेकर जो भाव उठते हैं, उन्हीं को लेकर कविता पिरोयी गयी है।वस्तुतः ,घर ईंटों से नहीं, मन से बनता है [ डॉ . नलिनी पुरोहित ] ।इंदु मित्तल ,विनीता ए कुमार ,लीना खेरिया ग्रहणी के वजूद पर प्रश्नचिन्ह लगातीं हैं।
एक कुशल गृहिणी होते हुए स्त्री अपने सृजनात्मक मनोभावों से घरेलू चीजों जैसे- चप्पल, ऐयरबैग[ मल्लिका मुख़र्जी ],सलाइयाँ [डिम्पल गौड़ `अनन्या `]आदि मेंं जीवन के विभिन्न रंगों को उतारकर देखती है और उसकी संवेदनशीलता ऐसी ही रोजमर्रा की वस्तुओं पर कविता गढ़कर उसे साहित्य में परिवर्तित कर देती है। नीलम जी ने ऐसी ही घरेलू वस्तुओं के माध्यम से नारी-मन में उमड़ते सवालों-जवाबों पर लिखी कविताओं को इस संग्रह में इकट्ठा किया है,जो इस पुस्तक को अन्य किसी भी कविता-संग्रह से अलग करके व्यक्ति के अंतर्मन में उतार देता है।
तीनों खंडों की कविताएं स्त्री के हर रूप को भली- भांति चित्रित करती है। तभी तो नीलम जी ने यह संग्रह गुलजार जी की उस औरत को, जो” दौड़कर रसोई तक दूध गिरने से पहले बचा लेती है “और नीलम जी के ही द्वारा स्थापित संस्था `अस्मित` को, जो समस्त नारी जगत की अस्मिता का प्रतीक है , समर्पित किया है ।इसकी प्रस्तावना लिखते हुए गुजरात के हिंदी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ,श्री विष्णु पंड्या जी ने साफ शब्दों में लिखा है -” मेरे लिए भी ये कविताएं मनुष्य -संसार को पहचानने में संवेदनशील प्रमाणित हुईं... स्त्री क्या है- चटनी ? प्याज ? कबाब? जलेबी ? दही बड़ा या आलू ?ये सवाल भी एक अलग दुनिया तक पहुंचता है ।``
यूँ तो पहले भी कविताओं के कई संग्रह आये हैं,जिनमें महिलाओं के अनेक पक्षों पर चर्चा हुई है,पर वे सभी संग्रह लेखन-जगत में प्रसिद्ध कवियों, रचनाकारों द्वारा लिखे गए हैं ।बड़े-बड़े रचनाकारों ने जो देखा, सुना उसे कलमबद्ध कर दिया।परंतु पहली बार नीलम जी के इस कविता-संग्रह में कविताएं उन कवयित्रियों द्वारा रची गई हैं, जिनमें से अधिकांशत: कवयित्रियाँ लेखन-जगत में बहुत प्रसिद्ध भले न हों,पर घर के अंदर रहकर सभी भावनाओं को खुद जीती रही हैं और इस क्रम में जो प्रश्न, जो शंकाएं, जो विचार उनके मन में आते रहे हैं, उन्हीं को कविता के रूप में कलमबद्ध किया है। डॉ.अंजना संधीर की नायिका को होश जब आता है जब प्रेमी पति बनकर उसके उसके पंख कतरने लगता है। वन्दना भट्ट ने बहुत अच्छी पंक्तियाँ लिखीं हैं ;
`प्लीज़ !मेरे पंख लौटा दीजिये
जो आपकी जेब में पड़े हैं .

इस दृष्टिकोण से यह पुस्तक नारी साहित्य-जगत की अन्य पुस्तकों की अपेक्षा हकीकत के बहुत करीब है और स्त्रियों के खुद के अनुभवों पर आधारित है। इस कविता-संग्रह में तीन खंड हैं- प्रथम,’देहरी, घर और कोख’; द्वितीय,’घर व बाहर’;और तृतीय,’सायबर फ़ेमिनिज्म’। स्त्री के कोख में आने से लेकर विश्व पटल पर भरने वाली उसकी उड़ान तक के पूरे आयाम को कविताओं के माध्यम से नीलम जी ने इस पुस्तक में दर्शाने की कोशिश की है। कैसे गर्भ में स्त्री के आते ही “स्व”को बचाने की जद्दोजहद शुरू होती है ,बेटी की चिंताएं,गृहिणी के मनोभाव ,रोजमर्रा की वस्तुओं में छुपे जीवन के कई रंग ,मन के भाव कि मैं “मैं “हूं ,जेहन में उमड़ती शिकायतें .यह शायद साहित्यिक रचना के पटल पर इसी कोख में वंदना भट्ट की कलम `गर्भनाद `करती है ,नलिनी रावल प्रश्न करतीं हैं। यही कोख` बेटी`[संतोष श्रीवास्तव , उर्मिला शुक्ल , डॉ. मीरा रामनिवास , डॉ . रंजना अरगड़े, निशा चंद्रा ] या बेटे को जन्म देती है। प्रज्ञा रावल की ये पंक्तियाँ ,जो बेटे की दाढ़ी[युवा बेटे को ] को देखकर बेहद खुश है ;
`अभी अभी मैंने बना दिया है ,सारे आंसुओं का इंद्रधनुष `

देहरी के बाहर की दुनिया में बनाए जाने वाले लक्ष्य, स्त्रियों के आंसू ,उनका मन, उनके विचार और इन सबके साथ घर और बाहर संतुलन बनाती और अपना अस्तित्व तलाशती नारी - इन सभी मनोभावों और मनोदशाओं को दर्शाती कविताएं इस अनूठे संग्रह का अंश
भूमिका में ही नीलम जी ने स्त्री के देहरी लाँघने से लेकर स्त्री -जीवन के भूमंडलीकरण के बदलते हुए परिवेश को बखूबी लिख दिया है। जो नारी कल तक केवल बच्चे पैदा करने की मशीन थी ,अब जिंदगी के अलग-अलग क्षेत्रों में अपना मुकाम बना रही है ।साइबर फेमिनिज्म में 21वीं सदी और उससे भी आगे जाने की चाह रखने वाली औरतें अपने लक्ष्य और अपने घर दोनों को साथ लेकर चलने की महत्वाकांक्षा रखती हैं। सब कुछ संभालते हुए घर और लक्ष्य दोनों में संतुलन बनाए रखने की स्त्री भावनाएं बहुत खूबसूरती से इस संग्रह में एकत्रित हुई हैं। स्त्री के आगे बढ़ने की चाह पुरूषों के सहयोग के बिना संभव नहीं - नीलम जी ने इस तथ्य को बखूबी स्वीकारा है और इस संदर्भ में उनकी कवयित्री ने पुरुष प्रधान समाज पर “टूटी चप्पल” (मंजू महिमा)को माध्यम बनाकर बड़ी खूबसूरती से पुरुषों के अहं पर कटाक्ष किया है ।साथ ही, पुरुष- समाज को यह संदेश भी दिया है कि” स्वयं को पा लिया है मैंने “(डॉ प्रणव भारती)।उनकी कवयित्री साफ शब्दों में कहती है कि यह मेरे” मैं” की ख्वाहिश है कि मैं अपनों के लिए जीना चाहती हूं ,किसी के दबाव का परिणाम नहीं। डॉ .प्रणव भारती की कविता के अंश यहां ले रहीं हूँ ;
`चूड़ी भरी कलाइयाँ जब उठा लेतीं हैं
अलौकिक शक्ति का होता है संचार
और भी शिद्दत से चलता है उनका घर- बार `
मंजु महिमा की कुछ कविताओं ने इस पुस्तक में अनूठे रंग भर दिये हैं। स्त्रियां जो रोज़मर्रा में चीज़ों के उपयोग करतीं हैं उन्हीं से इनकी कलम सशक्त रूप से विमर्श या जीवन रचतीं हैं। क्या पहले कल्पना की जा सकती थी कि प्याज ,अचार, रोटी ,चटनी ,दही बड़ा ,आलू से कोई स्त्री विमर्श रचा जा सकता था जो मंजु महिमा रच सकीं ?चावल [नलिनी पुरोहित ], `काजल` [डॉ . ऊषा उपाध्याय ] मसालदानी [अन्नदा पाटनी ] ` चूड़ियाँ व बिंदी [अलकनन्दा साने ],से स्त्री जीवन अभिव्यक्त किया जा सकता है ? साड़ी भारतीय स्त्री का पर्याय है. पारमिता शतपथी त्रिपाठी , इनकम टेक्स कमिश्नर ,देल्ही की `साड़ी `कविता साड़ी के माध्यम से बहुत दर्दनाक सा कह जाती है जैसे मंजु महिमा जी की शरीर को लेकर लिखी गई कविता।
स्त्री चाहे 40 पार की हो (चालीस पार की औरतें, कलावन्ती)या 50 पार की ,उसका जीवन नि:संदेह ही बदला है . वीणा वत्सल सिंह व कलावंती की तरह चालीस बरस के होने पर ऐसी पंक्तियाँ लिखने का साहस रखती है , वीणा लिखतीं है ;
` ` पुरुष में प्रेम नहीं
प्रेम में पुरुष को
तलाशतीं हैं। ``
कलावंती कहतीं हैं ;
`करतीं हैं थोड़ा सा पाप
ईश्वर को लोरी गाकर सुला देतीं हैं ``
या इन्हीं की पंक्तियाँ हैं जिससे औरत होने की मर्मान्तक मजबूरी चित्रित हो रही है ;
``अपने अपवित्र मालिकों के सामने
लेतीं हैं पवित्रता की शपथ जीवन भर ``
अंजु शर्मा की कविता `फेसबुक की चालीस साला औरतें `, प्रीति `अज्ञात `की `मैं ज़िन्दा हूँ `व `पूर्णिमा मित्र की `धरती में मत समाओ ` मैं अपने वजूद को पहचानने का दुस्साहस है। पूनम की कलम सपना देख रही है। स्त्री पुरुष के बीच के संघर्ष के विरुद्ध लड़ाई का आवाहन कर रही है.वह चाहती है कि ये सारे द्वन्द छोड़कर इंसानियत भरा समाज बनाया जाए .घर बाहर सुन्दर स्त्री पुरुष समानता का स्वप्न देखते हुए पूनम ज़ाकिर के शब्दों में ;
``आज तुम्हें
मिट्टी का पिंड बनाना चाहती हूँ
दोबारा अपने निर्माता का
आवाह्नन करना चाहती हूँ
थोड़ी अपनी माटी तेरी मजबूत काठी में
गूंथना चाहती हूँ

सम्वेदनाओं की एक जैसी ही
प्राण प्रतिष्ठा चाहती हूँ.`
स्टेज पर पुरस्कृत होकर घर लौटते हुए भी वह बच्चों और घर की जरूरतों को नहीं भूलती(मैं और मेरा लक्ष्य,भार्गवी पंड्या) । - उसके स्वाभिमान ने द्वार की सांकल खोल दी है ।ऊंची उड़ान लक्ष्य जरूर है उसका, पर वह घर के ‘अपने लोगों के लिए’ छोटी-छोटी चीजें जुटाना नहीं भूली है। 21वीं सदी की औरत महज हाड़-मांस की नहीं रह जाती है,वरन्,इस्पात में ढलकर शोषण का इतिहास बदल देती है(शतरंज के मोहरे,सुधा अरोड़ा)।वह कलम लेकर दुनिया को चुनौती देती है कि,तिनके नहीं हैं कि फूँक से उड़ जायेंगे(देहरी लाँघकर, नीलम कुलश्रेष्ठ) । भारत क्या विश्व भी अभी तैयार नहीं है स्त्री के इस रूप के लिए इसलिए ऐसी महत्वाकांक्षी व इस व्यवस्था में बदलाव चाहने वाली स्त्रियों से समाज की दूसरी स्त्रियों को बचना चाहता है बकौल डॉ .प्रभा मुजुमदार। डॉ .मालिनी गौतम भी इसी चिड़िया के पैरों में बंधनों की डोरी बांधे जाने से नाराज़ हैं।

प्रकाशिका डॉ. नीरज शर्मा की कविता में `सुनो पुकार `में वो पौराणिक स्त्री चरित्रों के माध्यम से यथार्थ दिखाने का सशक्त प्रयास करतीं हैं कि त्रेता युग में सीता ने घर से बाहर कदम रक्खा तो क्या हुआ ?अहिल्या व द्रौपदी को भी अपने घर में ही उद्धार या रक्षा के लिए किसी की राह देखनी पड़ी । इस युग में भी स्त्री अत्याचारों को देखकर भी वे किसी अवतार का आवाहन कर रहीं हैं लेकिन पूनम ज़ाकिर कविता `धर्मयुद्ध `में ;

`इसके लिए
तुम -----किसी शक्ति के अवतार
लेने का इंतज़ार मत करो `
यही है आज की स्त्री चेतना ,उसकी शक्ति की पराकाष्ठा ------

स्त्री-जगत के इस बहुमूल्य पुस्तक के लिए नीलम जी का तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हुए मेरा सविनय अनुरोध है कि स्त्री जीवन के लिए पुरुषों के सकारात्मक योगदान पर भी वह एक पुस्तक संपादित करें।


पुस्तक ---- "घर की देहलीज़ लांघती स्त्री कलम"
सम्पादक -नीलम कुलश्रेष्ठ
प्रकाशक---वनिका पब्लिकेशन्स
मूल्य -- ३०० रूपये
समीक्षक --- अर्चना अनुप्रिया
पता--- नयी दिल्ली

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