"एक कबूतरी का मदर्स डे"
आसमान में काले बादल उमड़ घुमड़ रहे थे। तेज हवाएँ एक अजीब सी आवाज के साथ आँधी का रूप ले चुकी थीं। अपार्टमेंट के हर फ्लोर से कभी खिड़की तो कभी दरवाजे के अचानक आई तेज आँधी की वजह से पटका-पटकाकर बंद होने की आवाजें आने लगी थी। मैं भी झटपट खुले दरवाजे और खिड़कियाँ बंद करने में जुट गई। गृहस्थी बड़ी निराली चीज है….गृहिणियों को एक साथ कई कार्य करने पड़ते हैं। घर के खुले दरवाजे बंद करते-करते मुझे याद आया कि गैस पर दूध चढ़ा हुआ है। अपने बेटे को बाकी की खुली हुई खिड़कियाँ-दरवाजे बंद करने के लिए कह कर मैं रसोई की तरफ लपकी। दूध उबल कर गिरने ही वाला था कि मैंने गैस के चूल्हे का स्विच ऑफ कर दिया। दूध धम्म से पतीले में नीचे जा बैठा। एक विजयी मुस्कान के साथ मेरी जान में जान आयी। आजकल इस लॉकडाउन में मिल्क पार्लर से लाने से लेकर रसोई में उबालने तक दूध के पैकेट के ऊपर जितना परिश्रम जरूरी हो गया है,उस हिसाब से मैंने जंग जीत ली थी। रसोई की खिड़की भी खुली थी और तेज हवा अंदर आ रही थी। मैं खिड़की बंद करने के लिए ज्योंहि आगे आयी, मेरी आँखें फैल गईं। खिड़की के आगे बने छोटे से छज्जे पर एक कबूतरी पंख फैलाकर अपने दो नन्हें-नन्हें बच्चों को हवा से बचाने की कोशिश में एक कोने में दुबकने की कोशिश कर रही थी। दोनों बच्चे बहुत ही छोटे थे।लग रहा था कि पिछले एक-दो दिनों में ही अंडे से बाहर आए थे और अभी उड़ना नहीं सीखा था। तभी तेज बारिश शुरू हो गई और बौछारें उन्हें भिगोने लगीं। कबूतरी ने पंख थोड़ा और फैलाने की कोशिश की। शायद वह अपने बच्चों पर एक भी बूंद पड़ने नहीं देना चाह रही थी। उसके इस प्रयास से मैं द्रवित हो उठी-"क्या करूँ... कैसे उन्हें बचाऊँ"...वे मेरी पकड़ से दूर थे। मैं रसोई में इधर-उधर देखने लगी कि शायद कुछ ऐसा मिले जिससे उन्हें भीगने से बचाया जा सके परंतु एक टूटी टोकरी के अतिरिक्त मुझे कुछ ऐसा नजर नहीं आया जो उनकी रक्षा में काम आ सकता था। लेकिन, मुसीबत यह थी कि टोकरी थोड़ी बड़ी थी और खिड़की की सलाखों के बीच से नहीं निकल सकती थी... "हे भगवान क्या करूँ अब मैं..?" मैं थोड़ी विचलित सी हो रही थी। तब तक बेटा भी सब खिड़कियाँ, दरवाजे बंद करके रसोई की तरफ आ गया था। मुझे खिड़की से बाहर गरदन उचकाकर देखते देख कर वह मेरे पास आ गया- "क्या कर रही हो?... भीग जाओगी... हवा भी बहुत तेज है.."उसने कहा। मैंने उसे उस माँ कबूतरी के विषय में बताया। उसने छज्जे की तरफ झाँक कर देखा फिर तुरंत अपने कमरे में जाकर एक छतरी ले आया। फोल्डेड छतरी आराम से सलाखों के बीच से निकल गई। बाहर निकाल कर धीरे से उसने छतरी खोल दी और अंदर से ही हैंडल को पकड़े-पकड़े उस छतरी को कबूतरी के आगे लगा दिया। अँधेरे जैसा देखकर तीनों अपनी नन्हीं गोल-गोल आँखों से इधर-उधर देखने लगे। मैंने देखा छतरी की सुरक्षा पाकर उस कबूतरी ने धीरे से अपने पंख बच्चों के ऊपर से हटा लिए थे और अपनी चोंच से उन्हें प्यार से सहलाने लगी थी।दो सफेद से दिखने वाले कोमल से नन्हें बच्चे डरे- सहमे से अपनी माँ से सटे जा रहे थे।बेटे ने मुझे अनाज के कुछ दाने लाने के लिए कहा। मैं झटपट चावल और गेहूँ के कुछ दाने ले आयी तो बेटे ने धीरे से उन दानों को छज्जे पर फैला दिए। कबूतरी ने एक नजर उन दानों को देखा, एक नजर हमारी तरफ देखा और फिर एक-एक कर उन्हें उठाकर बच्चों के मुँह में डालने लगी। बच्चे भी भूखे थे।धीमी आवाज में चूँ- चूँ करके अपनी माँ से माँग-माँगकर खाने लगे। फिर, मेरे बेटे ने मुझसे एक कटोरी में पानी माँग कर सलाखों के बीच से उनकी तरफ सरका दिया। माँ कबूतरी कभी दाना खिलाती तो कभी पानी में मुँह डालकर अपनी चोंच भिगोकर अपने बच्चों का मुँह गीला करती। खिड़की के अंदर हम मांँ-बेटे और बाहर छज्जे पर माँ कबूतरी अपने बच्चों के साथ…. "मदर्स डे" पर ऐसा स्वर्गिक आनंद लेकर हमारी आत्मा अंदर तक तृप्त हुए जा रही थी। सचमुच, माँ चाहे किसी की भी हो, किसी भी रूप में हो,स्वयं से अधिक अपने बच्चों के लिए ही सोचती है...माँ,ईश्वर का एक ममतामयी, सुरक्षा से भरा अनोखा रूप, जो हर छोटे-बड़े जीव के साथ हर क्षण विद्यमान रहता है। हम दोनों भी छतरी की हैंडल पकड़े तब तक वहीं खड़े उन्हें देखते रहे जब तक बारिश बंद नहीं हो गयी। मन को असीम संतोष और आनंद मिल रहा था और मन का रोम-रोम पुकार कर कह रहा था- "हैप्पी मदर्स डे"..."हैप्पी मदर्स डे"...।