उपन्यास-मुख़विर- राजनारायण बोहरे
डाकूजीवन पर एक बृहद उपन्यास
कथाकार के आइने में मुखबिर उपन्यास
समीक्षक रामगोपाल भावुक
चंबल क्षेत्र का इतिहास काफी लम्बे समय से डाकुओं के जीवन से जुड़ा रहा है। याद आती है डाकू डोंगर बटरी की। सुना है वे कभी गरीबों को नहीं सताते थे बल्कि उनकी मदद करना उनका लक्ष्य था। वे गरीबों की लड़कियों के ब्याह का पूरा खर्च भी उठा ल्रते थे। वे लम्बे समय तक डाकू जीवन व्यतीत करते रहे और पुलिस के हत्थे चढ़ने से बचे रहे थे।
कुछ डाकू ऐसे भी हुए हैं जो केबल अपनी एक जाति का ही पक्ष लेते दिखे हैं। हमने महसूस किया है उनका जीवन लम्बा नहीं चल सका है।
मैंने भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए ‘बागी आत्मा’ उपन्यास पर कलम चलाई है, इसलिये यह विषय मेरे चित्त में रचा पचा है।
संयोग यह रहा देश के चर्चित कथाकार महेश कटारे की इसी विषय पर ‘पार’ कहानी का रात में ही पारायण कर उठा हूँ। आदरणीय कटारे जी ने एक महिला डाकू के जीवन को लेकर कथा कही है। उनका विषय ऐसा रहा है कि पाठक उसे पढ़ना शुरू भर कर दे, उसे बीच में छोड़ नहीं पाता। लेकिन बोहरे जी ने महिला पात्र नायिका के बिना सफलता पूर्वक कहानी कही है।
आदरणीय महेश कटारे जी ने एक महिला डाकू कमला के जीवन की बात कह कर नारी विमर्श पर सफलता पूर्वक कलम चलाई है। नारी डाकू बनने पर भी नारी की भावनाओं से पृथक नहीं हो पाती। वे सम्वेदनायें उसे घेरे रहतीं है। भले ही वह उनका उपभोग कर उनकी हत्या कर डालती है। दल की नेता होने पर भी प्रणय निवेदन में नारी होते हुए संकोच नहीं करती। उसके सारे व्यवहार मर्दों जैसे हैं। वह मर्दों जैसी ही गालियाँ देती है। उसकी ठसक उसकी डांटडपट बदहवासी से बलात्कार तक...., सभी बातें मर्दों की तरह। उसके द्वारा पकड़ा गया पन्द्रह सोलह बर्ष का लड़का भी है। कमला ने उसे अपने साथ लद्दू बनाकर रखा है। वह कमला के पैर दाबता है तो उससे कहती है-‘भैंचो...। हाथों में जान नहीं है क्या? अभी छूट दे दो तो भैंस को गाभिंन कर देगा।’ ऐसे बाक्य सुनकर उसकी नियत पर सन्देह हो जाता है कहीं ये उसका भी उपयोग न कर डाले।
अब हम राजनारायण बोहरे के मुखबिर उपन्यास पर दृष्टि डाले कि उनके उपन्यास के पात्र किस रास्ते के पथिक हैं।
बोहरे जी के उपन्यास मुखबिर में डाकुओं द्वारा बस लूटते समय अपहृत की गई केतकी बहादुरी के साथ सामने आती है। वह छीना झपटी का पुरजोर विरोध भी करती है। वह इतनी भोली है कि वह परिस्थिति का आकलन नहीं कर पाती। जिसके परिणाम स्वरूप वह डाकुओं द्वारा बुरी तरह नोंची जाती है। वे सब उसके साथ रखैल की तरह व्यवहार करते हैं। लेखक चाहता तो कैसे भी उसके हाथ में बन्दूक थमा देता और डाकू समस्या का अन्त करा देता, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका है। वह पता नहीं किस दृष्टि से उसे जिन्दा रखना ही श्रेष्ठकर समझता है और उपन्यास के अन्त में उसे मरवा भी देता है। कैसे भी एक नायिका पैदा की, वह भी मरवा दी, पाठक इससे दुःखी को जाता है।
लेखक भी क्या करें? जब केतकी का पिता उसे मरा समझ ले । ससुराल वाले भी पीछे हट जाये। उसको मरवाने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता।
मुखबिर उपन्यास की खास बात यह रही कि वह छोटी- बड़ी छबबीस कहानियों का संकलन है। सभी का अस्तित्व अलग अलग होकर भी एक सूत्र में पिरोया हुआ है। इसी कारण वह डाकू जीवन पर एक बृहद उपन्यास के रूप में हमारे सामने है। कटारे जी की एक छोटी सी इस विषय पर कहानी है। जो पाठक को पूरी तरह तृप्त नहीं कर पाती। उनसे इस विषय पर इतने छोटे काम की आशा नहीं की जा सकती।
मुखबिर की खास बात यह है कि कारसदेव की लोक कथा को चरवाहे जातियों से जोड़कर उन्हें गौरवान्वित किया है। इस जाति के लोग शुरू से ही कारस देव को अपना इष्ट मानते हैं। वर्तमान में ये चरवाहों के देवता के रूप में इसी क्षेत्र में पूजे जाते हैं।
प्रथम अध्याय ‘सुराग’ में पुलिस दल दो मुखबिर गिरराज कायस्थ और लल्ला पण्डित को साथ लेकर डाकुओं का सुराग लगाने निकलता है। डाकू लोग मुखबिर का जितना सम्मान करते हैं पुलिस वाले उन्हें उतनी अच्छी दृष्टि से नहीं देखते। उनकी भूख-प्यास का ख्याल नहीं रखते। लल्ला पण्डित कहते कहते रुक जाता है- सहसा मेरे कन्धे पर भी पुलिसिया बेंत का दबाव महसूस हुआ।
लेखक की सबसे अच्छी बात यह रही है कि उसने सारे कथानक को मुखबिर की दृष्टि से देखा है। इससे वह सीधे सीधे पाठक से सम्वाद करने से बच जाता है। यही इस उपन्यास की कलात्मकता भी रही है।
साथ ही देश के प्रसिद्ध साहित्यकार सीता किशोर के दोहे गिरराज के मुंह व चम्बल घाटी के लोक गीत गायकों के मुंह से सुनवाकर सीता किशोर के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है।
उपन्यास का प्रथम अध्याय उसकी भूमिका के तौर पर सामने आता है। जिसमें गाँव का सजीव वर्णन पाठक को बांध लेता है।
इसी अध्याय से ही दृश्य बदल जाता है। वे स्मृमि में डाकुओं की पकड़ में पहुंच जाते हैं।
चम्बल क्षेत्र का आदमी अपना स्वाभिमान बचाने कें लिये डाकू जीवन स्वीकार करता है। कृपाराम चार भाई हैं। चारों ही मजबूरी में डाकू जीवन स्वीकार कर लेते हैं। गुस्सा और भूख में गिरराज को याद आता है कि उसके घर में एक बच्ची विकलांग है, दूसरे बच्चे के समय सोनाग्राफी कराके जांच कराने को लेकर दद्दा और वाई को यह अच्छा नहीं लग रहा था। जब उन्हें आकार समझाया तो वे मेरी बात से सहमत होगये। जबकि उसे दोस्त के बारे में याद आता है कि धीरे धीरे तीस साल के होगये लल्ला महाराज। वे अपनी गुजर करने के लिये ग्वालियर के उस पार भवभूति मुनि के पंचमहली इलाके से मांग कर लाते हैं, जिससे खाने की गुजर चलती है।
अगले अध्याय़ में पटवारी और लल्ला महाराज ठसाठस भरी बस में बैठे, उस बस को कृपाराम घोसी गेंग लूट लेती है। जिसमें लूटने के अलावा छह लोग जाति पूछकर पकड़ लिये जाते हैं। साथ में जैन समाज की पढ़ी लिखी केतकी नामकी नव व्याहता कों भी पकड़ लिया जाता है। पहले वह अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये संघर्ष करती है किन्तु निर्दयी लोगों के चंगुल में फंस कर विवश हो जाती है।
कचोंदा जैसा भोजन, अखबारों की सूचनायें, चुनाव में घोसी गिरोह ने प्रचार , पुलिस की सर्च प्रारम्भ। घोसी गिरोह की तलाश में पुलिस का चरवाहों को पकड़ना, सब कुछ पाठकों को नया लगता है।
दास्तान प्रकरण में बहस विवाद में पशुपालकों की पंचायत में उनके किये जा रहे शोषण के किस्से रखे गये। कारस देव की जय के वाद गोटियों ने उनके गोटें गाईं। इन्दौर की रानी अहिल्यावाई होल्कर की कविता सुनाई। इसी प्रकरण में व्याह के समय बामन के न आने से समाज की विवाह परम्परा उनके समाज के पंच लोग भाँवर पड़वाने लगे।
हिकमत में कृपाराम ने अपना किस्सा आरम्भ किया। गाँव की सरपंची का चुनाव मजदूरी में कृपाराम को साठ रुपये मिलना आता है। गाँव की राजनीति में दखलनदाजी मानकर हिकमत की शह पर उससे मजदूरी कराने से सभी मना करने लगे। लेकिन कृपाराम को यह बात स्वीकार नहीं हुई। इस तरह वह हिकमत सिंह के विरोध में सामने आ गया।
इधर सुन्दर रूपवती सन्तो श्याम बाबू के चंगुल में फंस गई। कृपाराम का एक चाचा एक महिला के चक्कर में कृपाराम को गाली गलौज करने लगा। इस पर चारों भाइयों का खून खौल गया। वे उससे उलझ गये। उसे सभी मिलकर पीटने लगे। पटते पिटते वह मर गया, तो चारों भाई भाग निकले। इस तरह न चाहते हुए वे अनायास डाकू बन गये। उन्हें दूसरे डाकुओं का सहारा मिल गया। कृपाराम ने निश्चय कर लिया कि ‘ जितने दिन जियेंगे शान से जियेंगे।’ यहीं से शुरू होगया एक नया सफर। उनकी विरादरी का डाकू उन्हे डाकुपन सिखाता है।
बँटवारा में उनके गुरू और उनके दो दलों में आपस में सन्देह होने पर कैसे अपने अपने रास्ते चुन लेते हैं । इस तरह इनका मिलना बिछुड़ना चलता रहता है।
अब सामने चिट्ठी प्रकरण है। मुखबिर की खबर से पुलिस की घेराबन्दी के कारण कृपाराम और उसके साथी विचिलित हो उठे। कृपाराम ने पुलिस सुप्रिन्टेंण्ट को डरा धमकाने पत्र लिखवा भेजा। मुठभेड़ में श्याम बाबू के मुठभेड़ में मारे जाने की झूठी खबर अखबार में छपी थी।
गलतफहमी में बड़ी बड़ी गल्तियां हो जातीं हैं। पता चलता है ऐसे में तो लोग इतलने तैश में आ जाते हैं कि वे एक दूसरे की जान तक ले लेते हैं। कहानी किस्से सुनाने की आना कानी गलतफहमी मानकर उनकी जूतों से पिटाई की जा सकती है।
अगला अध्याय कारस देव का है। इसे मैंने तीन चार बार पढ़ा है। एक दिन कुछ गोठिया पधारे। एक कम्बल विछाया और उस पर ढ़ाँक नामक बाद्य संभाल कर रखा, उसे बजाना शुरू किया। उसमें से ढुक ढुक का एक अनूठा स्वर निकलना शुरू हुआ। एक मिट्टी का घोड़े पर बैठे राज पुरुष की मूर्ति सामने रखी। महादेव के अवतार कारस देव से प्रार्थना की कि कृपाराम को राजी खुशी बनाये रखें। गोटियों ने कान पर हाथ रखकर सुर निकालना शुरू किया।
ये वरदानी कहिए, ये रजबोला नाम
एलादी करी तपस्या, भोला रे.......।
वरदान ले आई भोला से, निरभैया रे....।
जब कार्यक्रम समाप्त हुआ खीर का भोग लगा, उसके बाद गोटियों संग बैठकर सभी ने भोजन किया।
एक बुजुर्ग सज्जन कथा सुनाने लगे-‘एक गड़राजोन नगर था। वहां राजू नामके एक पशुपालक महाराज रहते थे। वे बहुत सम्पन्न थे। उनका छोटा भाई गोरे था। उनके एक लड़का सूरज पाल एवं एक लड़की एलादी थी। एलादी बहुत सुन्दर थी। उस गांव में बस एक उन्हीं का घर था बाकी सभी जाटों के घर थे। जाटों की ओर से एलादी के व्याह के प्रस्ताव आने लगे। राजू अपनी विरादरी से बाहर व्याह नहीं करना चाहता था। सीधे मना करना उचित नहीं था। अतः वे अपना भरापूरा घर छोड़कर एलादी की सुरक्षा में निकल पड़े और चलते चलते जाटों के राज्य की सीमा पार कर गये। राजपूताने में जा पहुंचे। झाँझ नगर के किलें गेट पर उनने अपना परिचय दिया-‘नाम राजू निवासी गड़रा जोन, वहाँ विपता आन पड़ी सो काम-घन्धे की तलाश में आए हैं। मौसम परिवर्तन के कारण साथ आईं भैंसे बीमार पड़ गईं और वे भी साथ छोड़ गईं। एक दिन रात में सब को सोता छोड़ कर राजू औॅर भाई गोरे गायव हो गये। उसके एक दो दिन की प्रतिक्षा के बाद सोड़ा मां बच्चों के खली पेट भरने के लिये झाँझ के राजा के यहाँ मजदूरी मांगने जा पहुंची। वहां उसे गेंहूं पीसने का काम मिल गया। इस तरह उसके साहारे उनका जीवन कटने लगा।
एलादी दिन भर क्या करती? जंगल में भटकते हुए एक मन्दिर पर जा पहुंची। वह वहां मिट्टी के शिवलिंग बनाती और भक्ति भाव सो उनकी पूजा करती। भूंख लगती तो पत्तों का अहार कर लेती। पिता और काका भी वहां के लुहार राजा के यहाँ जा पहुंचे। वहां उन्हें काम मिल गया। इस तरह बारह वर्ष व्यतीत हो गये। भगवान शंकर प्रश्न हो गये। वे ग्वाला के वेश में उसके पास आये और बोले-‘ तुम ये सब क्यों कर रही हो?’
वह बोली-‘साक्षत शिवजी कहां मिलेंगे?
वे बोले-‘ऊपर पहाड़ पर शिवजी की पिण्ड़ी है वहां जाओं।’
वह वहां जाकर शिवलिंग ढूढ़ने लगी। वहां वे नहीं मिले तो एक चट्टान पर ही जल चढ़ाया। वहां भोले बाबा प्रकट होगये।
पूछा-‘ बोल बहन क्या चाहती है?
वह बोली-‘ आपने मुझे बहिन कहा है। आप मेरी मां की गोदी में जन्में।’
वे बोले-‘ तेरी मां बूढ़ी डोकरी हो गई है। उनसें कैसे सम्भव है?’
बड़े सोच विचार के वाद उन्होंने कहा-‘ जा बहन तेरा कहा पूरा होगा।’
भगवान शंकर के कहे अनुसार जब उसकी माँ नदी में स्नान कर रहीं थीं। लब फूल उनकी गोद में आ गये। वे फूल सूप में जाकर रखे। वे फूल पांच वर्ष के बालक बन गये।वे बोले बहन मैंने तेरा कहा पूराकर दिया। जा पिता जी को बुला ला। वे आयेंगे और मेरे जन्म के संस्कार पूरे होंगे।
उनके कहें अनुसार पिताजी को खोजा गया। उन्होंने आकर उनके जन्म के संस्कार कराये। पण्डित जी ने कहा-‘ ये अवतारी पुरुष कारस देव के नाम से प्रसिद्ध होंगे। इन्हें हीरामन भी कहा जायेगा।
इसके बाद तो राजू का घर धन-धान्य से सम्पन्न हो गया। समय से एलादी का व्याह हो गया। उसके सुन्दर सा बच्चा हो गया।
इनकी वीरता की कहानियां तो बहुत हैं। मैंने तो यहां कारसदेव के जन्म की कथा कही है। इस तरह लेखक ने यह कथा कह कर पशुपालक जाति का गौरव बढ़ाया है।
अगले अध्याय फिरौती में गिरराज और लल्ला पण्डित फिराती देकर छूटे। लेकिन जब आई जी साहब ने पूछा तो जो डाकुओं ने रटवाया था वही उत्तर इन्होंने दिया-‘ साहब हमने एक रुपया भी नहीं दिया। जब डकैत सो रहे थे तो हम दोनों ने मौका देखा तो भाग आये। पुलिस ने डाकुओं की खोज में हमें मुखबिर बना लिया। अब वे ह जंगल जंगल डाकुओं को खोजते हुए हमें साथ लेकर चलने लगे।
शिनाख्त में कृपाराम के अपने साथियों के समर्पण के बाद की घटना है। ये दोनों वहां भी जा पहुंचे। कृपाराम ने इन्हें पहचान लिया। बाद में इन दोनों को इनकी शिनाख्त के लिये बुलवाया गया। जेल में तमाम केदियों के मध्य इन्हें पहिचान लिया। इस आधार पर चारों को फाँसी की साज हुई तो वे डाकू लोग पुलिस की आंखों में मिर्ची झोककर रास्ते से ही भाग निकले।
अब तो शिनाख्त करने वालों की जान पर बन आई। दिन-रात इसी सोच में कटने लगे। इधर पुलिस ने डाकुओं की सर्च में इन्हें मुखबिर बना लिया। इन्हें लगता रहा न ये डाकुओं का आत्म समर्पण देखने जाते और न इस उलझान में फँसते।
संवाद और मुखबिर में मुखबिर का अर्थ देकर हर जगह उसके महत्व को दर्शा दिया। चाहे देश हो अथवा समाज हो, चाहे राजनीति हो हर जगह डाकू औरं मुखबिरों का समन्वय देखा जा सकता है। जहां भी घोखा लगे, मुखबिर ही मारा जाता है।
फेहरिस्त में क्षेत्र और व्यक्ति का पूरा लेखा जोखा रहता है। जिसके आधार पर पुलिस अपनी कार्यवाही करती है।
कहानी का अन्त होने वाला है लेकिन लेखक ने अपनी लोक संस्कृति की झलक दिखाना नहीं छोंड़ा-‘ शाबास में हेतम सिंह ने प्रचलित व्याह गीत गाकर दिखलाया। बीच बीच में पाठक केतकी को नहीं भूल पाया। दोनों मुखबिरों की स्मृति में वह बनी हुई है। उसकी सम्पूर्ण कथा इस प्रसंग में दी गई है। उसका पढ़ा लिखा एवं सघर्षशील होने के बावजूद वेवश बन कर रह जाना खटकता रहा। लगता रहा ये मौका पाकर बन्दूक उठा लेगी और चारों को ठांय ठांय कर देगी पर ऐसा नहीं हो सका। अन्त में वह भी मरी पड़ी दिखाई गई। शायद लेखक यर्थाथबाद के चक्कर में ऐसा नहीं करवा पाया हो। काश ! ऐसा करा पाता तो यह नारी जीवन की एक श्रेष्ठ कथा बन जाती।
हेतम एवं हत्या प्रकरण में पुलिस वालों की मजबूरी दिखाई गई है। अब तो पाठक इस कृति का अन्त जानने के लिये व्यग्र हो उठा है। उपसंहार में यही सोचकर वह प्रवेश करता है। केतकी के अन्त के साथ ही उपन्यास की उत्सुकता की इति श्री हो गई है। गिरराज की अम्मा की तवियत खराब होने से उसे पुलिस मुखबिर के काम से मुक्त कर देती है।
उपसंहार में समाचार पत्र में छपा-‘डाकुओं से मुटभेंड़: चार मरे एक घायल’ जब यह समाचार गिरराज पढ़ता है तो उसे लल्ला पण्डित की बहुत याद आती है कहीं उसे कुछ न हो गया हो। वह उसकी लम्बी उम्र के लिये प्रार्थना करने लगा।
उपसंहार से पाठक सोचने लगता है अब तो रचना का यहीं समापन हो गया। मुझे तो लगता है लेखक ने इसीलिये यह शीर्षक दिया होगा किन्तु उनका इस अन्त से मन नहीं भरा होगा। नये नये विचार घेरे रहे होंगे। इसी करण रचना और आगे बढी। पुलिस की मुहिम आगे चली। केतकी मृत देह को देखकर गिरराज चीखने लगा-‘-बहन केतकी। निर्मम रघुवंशी ने उसे हटाया। डाकू फिर हाथ से निकल गये थे।... अंतिम प्रकरण .....और इन दिनों में तरह तरह की चर्चायें देकर समापन किया गया है। लोगों में आज भी भ्रम बना हुआ है वे अभी भी जिन्दा हैं। उनके घर के लोग भी उन्हें आज भी मरा हुआ नहीं मान रहे हैं। इस तरह उनका भय आज भी लोगों मन में समाया हुआ है।
इस तरह अपना भय छोड़कर समाप्त होने वाली रचना समाप्त नहीं हुई है। अब हम रचना के अन्य बिन्दुओं पर दृष्टि डालें। इस रचना में शिल्प बहुत तरह का है- एक आत्मकथ्य नुमा। दूसरा किस्सागोई। तीसरा अखबार की कतरन। चैथी लोक कथा को साथ लेकर चलने वाली।
अब हम भाषा के वारे में बात करें-‘ इसमें भदावरी, बुन्देली, पुलिसिया वार्ता, डाकुओं एवं मुखबिरों की भाषा के साथ उनकी पंचमहली बोली साथ साथ चलती रही है। सारा किस्सा पंचमहल का ही है किन्तु वे भदावर बुन्देल खण्ड में भी जाते आते रहे हैं।
क्षेत्र के राजनैतिक, सामाजिक एवं लोक संस्कुति की झलक पाठक को बाँधे रखती है। पंचायत चुनाव में डाकुओं की भूमिका दर्शनिय रही है।
इन सभी बातों को समाहित करके ही इस उपन्यास के साथ न्याय किया जा सकता है। ऐसी रचना के लिये रचनाकार को बहुत बहुत बघाई।
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पुस्तक समीक्षा रामगोपाल भावुक
पुस्तक का नाम मुखबिर उपन्यास
लेखक राजनारायण बोहरे
प्रकाशक प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली110002
मूल्य ₹ 250
सम्पर्क.
कमलेश्वर कोलोनी ;डबरा भवभूतिनगर
जि0 ग्वालियर म0 प्र0 475110
मो0 9425715707