बाल यात्रा वृतान्त
महाकवि भवभूति
रामगोपाल भावुक
इन दिनों कालीदास अकादमी उज्जैन एवं जीवाजी विश्व विदयालय ग्वालियर तथा मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं साँस्कृति समिति(डबरा) भवभूति नगर के तत्वाधान में में आयोजित अखिल भारतीय भवभूति समारोह समाचार पत्रों में चर्चा में है।
शिक्षक कल्यान सिंह रावत जी के कक्षा में आते ही उत्सुकता में प्रलेख ने पूछा-‘सर जी, ये भवभूति कौन थे?’
हाई स्कूल के छात्रों के मन में उठ रहे प्रश्न का उत्तर देते हुये रावत जी बोले-‘देखिये, संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति का जन्म तो विदर्भ प्रान्त के पदमपुर नामक कस्वे में हुआ था। इनके बचपन का नाम श्री कण्ठ तथा उनके पिताश्री का नाम नील कण्ठ था। ये भटट गोपाल के पौत्र तथा इनकी माताश्री का नाम जतुकर्णी था।’
पलाश ने प्रश्न किया- महोदय, भवभूति का जन्म विदर्भमें, किन्तु महाकवि भवभूति समारोह इस क्षेत्र की प्राचीन नगरी पदमावती के निकट डबरा नगर में कैसे?’
रावत जी ने बालकों को समझाया-‘छात्रो, आपको ज्ञात होना चाहिये, महाकवि भवभूति पदमावती नगरी में गुरुदेव ज्ञान निधि के पास आठवी शताव्दी में अध्ययन करने हेतु आये थे। आज युग बदल गया है। पहले डबरा नगर वाला क्षेत्र पदमावती नगरी के अन्तर्गत आता था ,जिस तरह भितरवार (डबरा) में यह प्रचीन नगर स्थित है।’
एक दूसरा छात्र संजय ने खड़े होकर प्रश्न किया-‘महोदय, आश्चर्य की बात है, आठवी शताव्दी में यहाँ अध्ययन की व्यवस्था थी? इतनी दूर से छात्र यहाँ अध्ययन के लिये आते थे!’
‘छात्रो, व्याकरण, न्यायशास्त्र और मीमान्सा का अध्ययन करने के लिये देश के विभिन्न हिस्सों से छात्र यहाँ आते थे। गुरुदेव ज्ञाननिधि परमहंस अंगिरा ऋषि के समान धर्मी थे। इन विषयों के अध्ययन के लिये गुरुदेव ज्ञाननिधि का नाम सम्पूर्ण भारत वर्ष में लिया जाता था।’
एक छात्र ने खड़े होकर प्रश्न किया-‘महोदय,क्या यहाँ इतना श्रेष्ठ विदया विहार था। इस बात के आज क्या प्रमाण उपलब्ध है?’
‘छात्रो, पदमावती नगरीनागवंश की राजधानी रहा है। यह शिक्षा का भी प्रमुख केन्द्र था। नागवंश के समय के सिक्के आज भी यहाँ मिलते रहते हैं। महाकवि भवभूति की तीन नाटय कृतियाँ हमें प्राप्त हैं।’
एक अन्य छात्र ने पूछा-‘ महाकवि भवभूति की कृतियों के नाम बतलायें ?’
‘उनकी कृतियाँ हैं महावीर चरितम् , मालती माधवम् एवं उत्तर राम चरितम्।’
बसन्त ने प्रश्न किया-‘ किस विषय पर ये कृतियाँ लिखी गई हैं?’
‘देखिये,महावीर चरितम् में श्री राम के जीवन की कथा है। इसका प्रारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से किया गया
एक अन्य छात्र ने बीच में ही प्रश्न कर दिया-‘ श्री राम का चरित्र तो है। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को यज्ञ की रख वाली के लिये लेकर आये है। रास्ते में राम अहिल्या का उद्धार करते हैं। राम तलवार से ताड़का का बद्ध करते हैं। विश्वामित्र राम को दिव्यास्त्र प्रदान करते हैं। उसके बाद विश्वामित्र राम को जनक के यहाँ लेजाकर पहुँचते हैं। कुशध्वज राम को देखकर पश्चाताप करते हैं, यदि मैंने धनुर्भग की प्रतिज्ञा नहीं की होती तो सीता का विवाह राम के साथ होकर रहता। इसी समय रावण का दूत सीता को मांगने केलिये आता है। उसके प्रस्ताव को टाल दिया जाता है। विश्वामित्र की आज्ञा से राम घनुर्भंग करते हैं। चारो भाइयों का कुशध्वज की चारों पुत्रियों से विवाह सम्पन्न होता है।
छात्रो, उसके बाद परशुराम जी का आना, गुरुचाप भंज्जन कारण वे राम का वध करना ही चाहते हैं किन्तु राम उन्हें संन्तुष्ट कर देते हैं, तो वे तप करने के लिये चले जाते हैं। इस बात को सुनकर रावण भयभीत होजाता है। वह सूपर्णखा को मंथरा का रूप धारण करके मिथिला भेजता है। वह समझाबुझकर कैकयी को वर मांगने के लिये प्रेरित कर देती है। इस तरह राम को वनोवास होजाता है।
वहाँ रावण सीता का हरण कर लेता है। राम लक्ष्मण सीता की खोज करते हुये उनकी भेंट जटायु से होती है। उनसे जानकारी प्राप्त कर वे किष्किन्धा की ओर बढ़ते हैं। सुग्रीव से भेंट होने पर वे बाली का वध करते हैं।
अगले अंक में राम लंका पर चढ़ाई करते हैं। राम रावण युद्ध में लक्ष्मण को शक्ति लगती है। हनुमान का पर्वत उठा लाना, पर्वतीय औषधियों की हवा लगने से लक्ष्मण चैतन्य हो जाते हैं। राम रावण का वध करते हैं। सीता की अग्नि परीक्षा के बाद राम सीता को लेकर अयोध्या लौट आते हैं। राम का राज्याभिषेक होता है।
छात्रो, संक्षेप में वाल्मीकि रामायण से प्रथक प्रसंग प्रस्तुत करने में महाकवि भवभूति सिद्ध हस्त हैं।
एक छात्र ने प्रश्न कया-‘उनके जन्म से लिखा जाना चाहिये था किन्तु इसका प्रारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से!’
‘इस छात्र ने यह अच्छा प्रश्न किया है। बच्चों इसका उत्तर जो मरी समझ में आता है ,वह यह है कि महाकवि भवभूति विदर्भ से यहाँ अध्ययन करने आये थे तो उन्होने इस क्षेत्र के भी सभी स्थन निश्चय ही देखे होंगे। इस क्षत्र में गिजोर्रा के पास विश्वामित्र की खडिया आज भी देखी जा सकती है। शायद उसके निरीक्षण के बाद ही उन्होंने इस कृति का प्ररम्भ विश्वा मित्र के यज्ञ से किया है।’
पलाश ने पूछा-‘ इसमें राम कथा का बर्णन है फिर इसका नाम श्री राम चरित्रम् न होकर महावीर चरितम् क्यो रखा है?’
प्रश्न सुनकर रावत सर गम्भीर होगये और बोले-‘ देखिये,इसमें श्री राम के महावीर चरित्र का उल्लेख है। इसीलिये इसका नाम महावीर चरितम् रखना ही उचित है।’
प्रलेख ने बात आगे बढ़ाने के लिये प्रश्नल किया-‘उनकी दूसरी कृति का विषय?’
‘ उनकी दूसरी कृति मालती माधवम् है। इसमें उन्होंने मालती माधव के प्रेम प्रसंग के माध्यम से यहाँ के राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का खुला चित्रण अंकित किया है। उस समय के सामाजिक परिवेश का खुला चित्रण हमारे समाने है।’
‘कक्षा में सामूहिक स्वर उभरा-‘ फिर तो हम भी इस का अध्ययन अवश्य ही करेंगे।’
रावत सर ने बात आगे बढ़ाई-‘ आप लोगों का यह उचित ही निर्णय है। अब आप सब महाकवि भवभूति के सम्बन्ध में जान गये होगे।’
कक्षा से सयुक्त स्वर उभरा-‘जी सर।’
सुनील गुप्ता खड़े होते हुए बोला-‘महोदय दैनिक समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ है कि देश के संस्कृत साहित्य के विद्वान इस बसन्त पंचमी के पर्व पर महाकवि भवभूति की कर्म स्थली पदमावती नगरी अर्थात् पवाया देखने के लिये पहुँच रहे हैं।’
‘मुझे भी यह बात समाचार पत्रों से ही ज्ञात हुई है।’
सुनील गुप्ता ने प्रस्ताव रखा-‘ महोदय, क्या उसी दिन हम सभी भी वहाँ चल सकते हैं।’
‘चल तो सकते हैं, किन्तु इसके लिये हमें अपने प्रचार्य महोदय से अनुमति लेना पड़ेगी।’
उत्साहित छात्र उसी समय प्राचार्य के नाम आवेदन पत्र लिखने लगे। समय से प्रचार्य की अनुमति भी मिल गई। विदयालय के अन्य कक्षाओं के छात्र भी तैयार होगये। एक बस से घुमने का अनुबन्ध होगया।
बसन्त पंचमी के पर्व पर विदयालय के छात्रों एवं शिक्षकों ने प्रातः आठ बजे ही पदमावती नगरी के लिये प्रस्थान किया।
महाकवि भवभूति की कर्म स्थली पदमावती नगरी भवभूति नगर (डबरा) रेल्वे स्टेशन से भितरवार नरवर रोड़ पर दस किलोमीटर चलने पर वांयी ओर चिटौली ग्राम से शुरू हो जाते हैं।
चिटौली गाँव के सामने बस खड़ी करवा दी। वेदराम प्रजापति ने बच्चों को सम्वोधित करके कहा-‘ देखो ,सामने पहाड़ी पर एक मन्दिर दिख रहा है। वह देवी का मन्दिर है। पहाड़ी के नीचे चिटौली गाँव स्थित है। कुछ समय पूर्व इस गाँव के लोगों ने खेतों का समतलीकरण कराया हैं जिसमें एक प्राचीन बस्ती के अवशेष मिले हैं। यहाँ जो ईटें मिली हैं, कुछ मूर्तियाँ मिली हैं, वे सब पद्मावती की ईटों और नमूनों से मिलते-जुलते हैं। मालतीमाधवम् नाटक में लवण सरिता का वर्णन आया है। यह अवशेष लवण सरिता अर्थात नोंन नदी के किनारे पर आज हमें देखने को मिल रहे हैं। यहाँ के लोग मानते हैं कि इस नगर का विस्तार इस गाँव तक फैला हुआ था। यहाँ जो ईटें मिली हैं उनका आकार 19-10-3 इंच हैं। इससे सिद्ध होता है कि इस नगरी के आसपास जो गाँव रहे हैं, वे पद्मावती नगरी की तरह पूर्ण रूप से विकसित थे। समय के अभाव में हम इस गाँव में नहीं चल पा रहे है।’ अब बस आगे बढ़ा दी। बीच बीच में प्रजापति सर रास्ते के सम्बन्ध में बतलाने लगे-
हम इसी रोड़ पर आगे नोंन नदी (लवण सरिता) को पार करते हुये करियावटी गाँव में पहुँचते हैं। यहाँ से बाँयी ओर साखनी (साँखनी) गाँव के लिये रास्ता जाता है। आगे बढ़ने पर पारा ‘‘पार’’ (पाटलावती) नदी को पार करने पर एक रास्ता बाँयी ओर मुड़ता है। यहीं से एक डामर रोड़ हमें धूमेश्वर महादेव के मंदिर तक ले जाता है।
इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी ईसा की पहली शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक फली-फूली है। यहाँ उस समय नागों का शासन रहा है। धूमेश्वर का मंदिर इस क्षेत्र में आज भी तीर्थ-स्थल बना हुआ है।
अब बस धूमेश्वर मन्दिर के प्रगण में खड़ी थी। सभी छात्र दौड़ कर मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। हम सभी मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने खड़े थे। रावत सर ने बच्चों को सम्वोध्ति किया-‘देखिये इस मन्दिर का पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूँदेव ने करवाया था। भवभूति के नाटकों में कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन इस बात का प्रतीक है। यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता रहा है। यह धूमेश्वर का मंदिर ही कालप्रियनाथ का मंदिर था। ओरछा के राजा को यहाँ यह मंदिर बनवाने की क्या आवश्यकता थी ? यहाँ के लोग यह मानते हैं कि शायद कालप्रियनाथ के मंदिर को यहाँ आए मुस्लिम शासकों ने मस्जिद बना दिया होगा। अब हम मन्दिर के अन्दर प्रवेश करें।’
छात्र उत्सुकता से मन्दिर की दीवारों से इतिहास की इबारत पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। प्रजापति सर के शब्द सुनाई पड़े-‘आप लोग देख रहे हैं, इस मंदिर की दीवार पर दो फारसी के शिलालेख आज भी मौजूद हैं, इन्हें पढ़ कर व्याख्यायित कर लिए हैं, तभी यह मंदिर आज हमारे सामने है।
अब तक सभी उनकी बातें ध्यान से सुनते हुए गर्भग्रह में पहुँच गये प्रजापति सर कहे जा रहे थे-
‘वर्तमान में जो शिवलिंग उपलब्ध है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया गया है। उक्त तथ्यों के आधार पर इसे कालप्रियनाथ से जोड़ना सुखद लगता है। इस पिण्ड़ी से जो नाग लिपटा है वह नागवंश की याद दिला रहा है।
यह सुनते हुए छात्र मन्दिर से बाहर निकल चुके थे। जीवाजी विश्व विदयालय की बस सामने खड़ी थी। विदयार्थी समझ गये अखिल भारतीय भवभूति समारोह में पधारे विद्वान यहाँ पधार चुके हैं। यह देखकर उनका चेहरा उल्लास में खिल गया। सभी छात्र उन विद्वानों के दर्शन करने नीचे बस के पास पहुँच गये और उन्हें प्रणाम करके चुपचाप उनके पास खड़े हो गये। जीवाजी विश्व विदयालय के कुल सचिव इतिहासकार डॉ0 आनन्द मिश्र उन सब को साथ लेकर आये थे। वे उन्हें सम्बोधित कर कह रहे थे-‘देखिये, आप इस घूमेश्वर के मन्दिर को देख रहे है। आज इस मन्दिर को दो भागों में देखा जा सकता है। एक प्रवेश कक्ष दूसरा गर्भग्रह। प्रवेश कक्ष तो निश्चय ही ओरछा नरेश की वास्तुकला का नमूना है,किन्तु इससे गर्भ ग्रह की प्राचीनता छिपी नहीं है। यहाँ स्थित जलप्रपात से उठता हुआ धुआँ, सम्भव है इसी आधार पर ओरछा नरेश ने इसका नाम धूमेश्वर रखना उचित समझा हो। वर्तमान में स्थित शिवलिंग ओरछा नरेश द्वारा प्रतिस्थापित है। यहाँ के लोगों का कहना है कि कालप्रियनाथ का शिवलिंग तो यहीं खेतों में अभी भी खण्डित अवस्था में पड़ा है।
वर्तमान में यहाँ स्थित धूमेश्वर का मन्दिर ही कालप्रियनाथ के बदले हुये रूप की स्मृति कराता है। ओरछा नरेश वृषंगदेव(वीरसिंह जू देव) को यहाँ मन्दिर बनवाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? वर्तमान में यहाँ स्थित भव्य मकबरे इस बात की गवाह देने में सफल हैं कि यहाँ कभी मुस्लिम शासको का वर्चस्व रहा है। प्रश्न उठता है क्या मुस्लिम शासकों ने कालप्रियनाथ के मन्दिर को यथावत् रहने दिया होगा। निश्चय ही उसका रूप भी बदला ही होगा।’
सभी विद्वान डॉ. मिश्र की बाते सुनते हुये सीढ़ियाँ चढ़कर मन्दिर के मुख्य द्वार पर पहुँच गये। डॉ0 आनन्द मिश्र उस पटिटका के सामने खड़े थे जो आज भी देखी जा सकती है। सभी विद्वान पन्द्रहवी सदी का वह शिला लेख पढ़ रहे थे। उसमें लिखा था-उसमें लिखा था-‘इस मन्दिर का निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जू देव ने सन्1605 से1627 ई. तकं कराया था तथा इसका जीर्णोद्धार ग्वालियर के राजा माधवराव सिन्घिया ने सन्.1936.37 में कराया था।
यह ओरछेश की भवन निर्माण कला का नमूना था। सब गर्भग्रह में पहुँचने को आतुर दिखाई दे रहे थे। गर्भ ग्रह के सामने बाई ओर रखी नाग की एक शिला नागवंश की याद दिला रही थी। बच्चे उस शिला के पास झिमिटे गये थे किन्तु विद्वान मनीषी गर्भ ग्रह के प्रवेश द्वार के दोनो ओर लगे शिलालेखों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर अपने अपने मोवाइल में उसका अक्स खीच रहे थे और कुछ उस की दीवार पर अंकित चित्रकारी के अवलोकन में तन्मय हो गये थे।
गर्भग्रह में स्थापित शिवलिंग के दर्शन सभी भक्ति भाव से कर रहे थे। इस अवसर पर अधिकांश छात्र मन्दिर के बाहर विद्वानों के मन्दिर से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
कुछ ही समय में सभी विद्वान मनीषी बाहर निकल आये। डॉ. आनन्द मिश्र उन्हें मन्दिर के पीछे के भाग में ले कर पहुँच गये। वे अपने विचारों से उन्हें अवगत कराने लगे-यह छोटा सा मन्दिर नया ही बना है। आप इस खण्डित प्रतिमा को देख रहे हैं। यही भगवान कालप्रियानाथ की प्रतिमा है। यह यहीं खेत में पड़ी थी। पता नहीं कैसे यह जाग्रत अवस्था में आ गई। इसके दर्शन से लोगों की बीमारी ठीक होने लगीं। मेला लगने लगा। लेकिन कुछ लोगों ने इसका दुरुपयोग किया और अब तो यह मेला ही बन्द हो गया है। यही भगवान कालप्रियानाथ की प्रतिमा अपना रूप प्रगट करने जाग्रत हुई थी। यह बात इस क्षेत्र के लोग मानकर चल रहे हैं।
सभी विद्वान उस प्रतिमा को गौर से घूर रहे थे। अब सभी जल प्रपात की ओर बढ़ गये। आनन्द मिश्र पुनाः बोले-‘इस मंदिर के पास ही एक जलप्रपात है, जिसका वर्णन मालती माधवम् में भी आया है। मंदिर के पास से ही नदी के अंदर किनारे से लगा हुआ एक नौ चौकिया (नाचंकी) बना हुआ है। कुछ लोग इसे पद्मावती के समय की इमारत मानते हैं, कुछ विद्वान् इसे मंदिर के समकालीन और कुछ इसका संबंध पृथ्वीराज से जोड़ते हैं। संभवतः इस इमारत की इबारत पढ़ने वाला कोई इतिहासकार अपना ध्यान इस ओर केन्द्रित नहीं कर पाया है। हाँ ईटें, पत्थर और चूने के मिश्रण से इसका मूल्याँकन करने वाले इस इमारत को मंदिर के समकालीन मानते हैं।’ बच्चे उनकी बातों को पूरे ध्यान से सुन रहे थे।
डॉ. आनन्द मिश्र नौचौकिया पर खड़े होकर पूर्व की ओर मुंह करके दूर दिख रही पहाड़ी का बर्णन करने लगे- देखिये, ये जो पहाड़ी दिख रही ह वह मलखान पहाड़ी है, मलखान एक वीर पुरुष था। कहते हैं जब वह यहाँ आकर ठहरा तथा उसने अपनी साँग गाड़ दी थी, तभी से इस पहाड़ी का नाम ही मलखान पहाड़ी पड़ गया है। उनकी साँग पिछले कुछ दिनों तक यहाँ गड़ी रही है। यह एक प्राचीन सिद्ध स्थान है।
बच्चे धुआँधार का आनन्द ले रहे थे। कुछ नीचे उतर कर झील के जल को चुल्लू में भर कर उसे एक दूसरे पर उछाल रहे थे। जब विद्वान मनीषी साहित्यकार वहाँ से चल दिये तो रावत जी ने उन्हें चलने का इसारा किया । छात्र तत्काल दौड़ लगाते हुये ऊपर आ गये। सर के इसारे पर बस उसी तरफ ले आये। साहित्यकार भावुक जी उनकी बस में न जाकर इसी बस में बच्चों के साथ सवार हो गये।
छात्र बस में सबार हुये कि एक प्रश्न रावत सर ने उछाला-‘कहते हैं यह धूमेश्वर का मन्दिर जिन्दों ने रातों रात बनाया है। क्यों भावुक जी आपकी इस मामले में क्या राय है?’
भावुक जी उत्तर देने के लिये खड़े हो गये और बोले-‘देखो छात्रों, मुझ से अनेक मीड़िया वाले यही प्रश्न पूछ चुके हैं। मेरा हर वार उन्हें एक ही उत्तर रहा है-इस मंदिर का निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव ने करवाया था । भवभूति की तीनों कृतियों में कालप्रियानाथ के यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन, इस बात का प्रतीक है कि यहॉं प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता है। यह धूमेश्वर का मंदिर ही कभी कालप्रियानाथ का मंदिर था। ओरछा के राजा को यहॉँ यह मंदिर बनवाने की क्या आवश्यकता थी ?यहॉँ के लोग यह मानते हैं कि कालप्रियानाथ के मंदिर की यहॉं आये मुस्लिम शासकों ने इसका रूप बदला होगा । सिकन्दर लोदी यहॉँ आया था । यहॉँ पाँच भव्य मकबरे भी हैं, क्या उन्होंने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा ? उन्होंने उसका रूप भी बदला ही होगा । ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव का ध्यान इस ओर चला गया और यह परिवर्तन करा दिया । सम्भ्व है किसी राजसत्ता के प्रभाव से बचने के लिये रातों-रात इसका निर्माण किया हो। जिससे जन मानस में जिन्नों से जोड़ने की बात मन में बैठ गई है। वर्तमान में जो शिवलिंग है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया हुआ है । इत्यादि सभी तथ्य हमें सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि यह एक प्राचीन मंदिर है, और इसकी प्राचीनता को कालप्रियनाथ से जोड़ना हमें सुखद लगता है।’
लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद मलखान पहाड़ी के पास दोनों बसें खड़ी कर दी गई। छात्र तो उस पहाड़ी पर आराम से चढ़ गये किन्तु वुजुर्ग लोग आराम अराम से चढ़ पाये। वहाँ एक चटटान पर बैठका सा बना हुआ था। रामगोलाल भावुक ने जानकारी दी-‘ मुझे तो लगता है मालती माधवम् में बर्णित श्री पर्वत यही होना चाहिये। यह स्थल प्रचीन काल से ही प्रसिद्ध स्थल रहा है। मलखान एक वीर पुरुष था ज बवह यहाँ आया तो वह यही आकर ठहरा था। उसने यहाँ अपनी साँग गाड़ दी थी। जिसके अबशेष आज भी देखे जा सकते हैं।’
एक छात्र ने प्रश्न किया-‘ वह साँग कहाँ गई?’
उत्तर भावुक ने ही दिया-‘ देखिये, साँग लोहे की थी। लोभी लोग इसे काटकर ले गये। इस क्षेत्र के वृद्ध लोग इस बात के गवाह हैं। थोड़े से स्वार्थ ने इस धरोहर को बेच खाया।छात्र इस चर्चा को न सुनकर धुआँधार के दृश्य का आनन्द ले रहे थे।
कुछ ही समय में लोग वहाँ से लौट पड़े। बसें चल पड़ी रावत सर छात्रों से कह रहे थे-‘ आप इस सड़क के दोनों ओर ये विशाल मकवरे देख रहे हैं। इनकी कुल संख्या पाँच है। मुस्लिम संस्कृति की यह घरोहर उनकी वैभव की कहानी कह रही है। इस धरोहर को भी सुरक्षित रखने की आवश्यकता है। बातों-बातों में बस पारबती नदी के पास खड़ी थी।
यहाँ से नाटयमंच पर पहुँचने के लिये बसों से उतर पड़े। अपने अपने अधोबस्त्र ऊपर करके फिसलन के डर से पैर जमा जमाकर नदी पर की। वहाँ से दो- तीन सौ मीटर की दूरी पर सभी उस नाटय् मंच पर पहुँच गये। इस स्थल की अगुआई डॉ. आनन्द मिश्र कर रहे थे।
नाटक मंच पर पहुँचकर रामगोपाल भावुक ने कहा-‘इस क्षेत्र के लोग उसे कोर नारायण की पहाड़ी कहते आ रहे हैं। खुदाई से पहले जो टीला दिखता था लोग उसे कोर नारायण की पहाड़ी ही कहते रहे हैं। खुदाई के बाद भी यही नाम आज लोगों की जुवान पर है। देश के विद्वान इसे आज भी अलग- अलग रूपों में देखते रहे हैं किन्तु इस क्षेत्र के रंग कर्मी कमल बशिष्ठ जी एवं जिनके निर्देशन में यह साहित्य संवर्धन यात्रा की जा रही है डॉ0 आनन्द मिश्रजी इसे नाट्य मंच ही मान कर ही चल रहे हैं।’
कल्यासिंह रावत जी छात्रों को समझो लगे-‘ देखो यह नाटय मंच खुदाई में निकला है। जिसका ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संचालक श्री मो.वा. गर्दे ने उत्खनन कार्य 1925 से 1939 तक करवाया था, यहाँ उत्खनन का कार्य सन् 1941 तक चलता रहा, इस पर पुरावत्ववेत्ताओं, इतिहासकारों एवं साहित्यकारों की दृष्टि लगी हुई है। श्री गर्दे ने उसे विष्णु मंदिर का नाम दिया है इसका कारण यह रहा है कि यहाँ विष्णु की मूर्ति मिली है। मिलने को तो यहाँ सूर्य भगवान की भी मूर्ति मिली है, अतः इसे क्या सूर्य मंदिर नाम देना उचित होगा ? यदि सूर्य से कालप्रियनाथ का नाम जुड़ता है तो निश्चय ही यह मालतीमाधवत् में वर्णित कालप्रियनाथ का मंदिर है। जो भी हो उस समय इस नगर में विष्णु, शिव एवं सूर्य की उपासना की जाती थी।
यह जो स्मारक खुदाई में निकला है, इस चबूतरे का आकार 143 फीट लम्बा एवं 140 फीट चौड़ा है। उसके ऊपर जो चबूतरा दिख रहा है उसकी लम्बाई 93 फीट है, उससे ऊपर जो चबूतरा है वह 53 फीट ही लम्बा है। ऊपरी भाग को छोड़कर प्रत्येक भाग की ऊँचाई 10-12 फीट से अधिक ही होगी, अतः इसे विशाल चबूतरों का एकीकृत रूप कहा जा सकता है।
इस स्मारक के पास अनेक मृण्मूर्तियाँ मिलीं हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता हैं कि इन मूर्तियों का उपयोग इस इमारत को सजाने के लिये किया जाता होगा। यहाँ नाग राजाओं के राजचिन्हयुक्त स्तम्भ भी मिले हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कोई राजसभा रही हो, जिसे राजचिह्नों से सजाया गया हो। यहाँ ताड़ के वृक्षों की आकृति के साथ एक छोटा सा नन्दी भी मिला है। ये नाग राजाओं के राजचिह्न थे और राजचिह्नों का उपयोग राजसभा जैसी जगह पर ही संभव है। नाग राजा शिव, विष्णु और सूर्य के उपासक रहे, संभवतः राजसभा में अपने-अपने इष्टदेवों की मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा।
एक गीत, नृत्य एवं दृश्य की मूर्ति भी यहाँ मिली है। इस पाषाण प्रतिमा को ग्वालियर किले गेट के पास स्थित संग्राहलय में देखा जा सकता है, जो साहित्यकारों को अलग ही प्रकार से सोचने के लिये विवश कर देती है।
यह कह कर उन्होंने एक चित्र दिखाते हुये कहा-‘इस पाषाण मूर्ति के चित्र को ध्यान से देखें तो लगता है यह इमारत न विष्णु मंदिर है, न शिव मंदिर और ना ही कोई राजसभा, बल्कि यह तो एक नाट्यमंच ही खुदाई में निकला सा लगता है। इस नाट्यमंच को सजाने के लिये ही इन मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा। जो राजचिह्न मिले हैं, उससे लगता है कि राजा महाराजा यहाँ बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे।’ विद्वान मनीषी भी रावत जी की बातें ध्यान से सुन रहे थे।
अब सभी उस मंच के ऊपर खड़े थे। भावुक जी आगे बढ़कर बोले-‘इस मंच के ऊपर यह एक चबूतरा है, इस पर बैठकर जो दृश्य हो सकता है वह इस गीत नृत्य दृश्य की मूर्ति से स्पष्ट हो जाता है। उस मूर्ति में छत्रधारिणी विदुषी नारी बैठी है, नर्तकी नृत्य कर रही है तथा वाद्य बजाने वाले अपने अपने वाद्यों को बजाने में निमग्न हैं। सामने जो उससे नीचे चबूतरा है, वह तीन चार फीट ही नीचा है, यहाँ राजसभा के सभी लोग बैठकर आनन्द लेते होंगे। उससे नीचे के चबूतरे का उपयोग सेना प्रमुखों और उससे नीचे वाले का उपयोग नगर के सेठ साहूकारों द्वारा किया जाता होगा। जन साधारण को धरती से ही इसका आनन्द लेना पड़ता होगा।
ऐसी मान्यता है कि भवभूति के नाटक कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव में यहीं खेले गये हैं जिसे गीत, नृत्य एवं दृश्य की इस मूर्ति के आधार पर नकारा नहीं जा सकता।’
छात्र और ’विद्वान मनीषी अतीत में गोते लगाते हुये नीचे उतर आये। पेड़ों की छाया में विश्राम करने लगे। डॉ. आनन्द मिश्र विश्व विदयालय से भोजन के पैकिट बनवाकर लाये थे। वे पैकिट बाटे जाने लगे। छात्र अपने अपने साथ अपना खना लेकर चले थे । उन्होंने अपने अपने पैकिट खेल लिये। जल की और गन्ने के रस की व्यवस्था गाँव सरपंच ने कर दी। यों यह यात्रा अविस्मर्णिय हो गई। भोजन करते समय सभी अपने अपने साथियों से इस मंच के विषय में चर्चा करते रहे। उसके बाद सभी उसी रास्ते से बापस लौट पड़े। पार नदी पार करके अपनी अपनी बस में आकर बैठ गये। बसें चल पड़ीं। पवाया गाँव में आकर रुक गई। यहाँ से फिर पैदल यात्रा करना थी। गाँव में सरपंच ने सभी के लिये चाय विस्कुट का नास्ता कराया। उसके बाद पगडंडी से किले के सामने पहुँच गये।
यहाँ एक प्रचीन देवी का मन्दिर है। किले में प्रवेश के पूर्व सभी ने भक्तिभाव से मन्दिर के दर्शन किये। डॉ. आनन्द मिश्र ने बताया-‘ किले के ठीक सामने इस मन्दिर का होना इस बात का प्रमाण है कि यह देवी माँ का मन्दिर यहाँ के राज परिवार की इष्ट रहीं होगीं। ’
अब सभी विद्वान एवं छात्र किले के अन्दर पहुँच गये। किला पूरी तरह से उजड़ चुका था। अब तो कोई अबशेष ही नहीं रह गये थे। किले की र्इ्रटें से ही गाँव के लोगों ने अपने मकान बना लिये हैं। इस तरह किला की दीवारे भी ढाह दी गई हैं। उसकी दुरर्दशा पर खेद व्यक्त करते हुये किले के पूर्वी कोने के वाहर जा निकले। यह स्थल सिन्धु और पारा नदी के इस संगम स्थ्ल पर एक शिव मन्दिर बना है। यहाँ शिव मन्दिर के सामने खड़े होकर दिख रही थी संगम की विशाल जल राशि। डॉ. आनन्द मिश्र के शब्द सुनाई पड़ रहे थे-‘यह पद्मावती नगरी का ध्वस्त किला बना हुआ है । कहते हैं कि यह एक प्राचीन किला है, राजा नल से भी इसका संबंध रहा है तथा नरवर के कुशवाह राजाओं के द्वारा बनाया हुआ है, यह किला । पिछले कुछ दिनों तक इसके अवशेष जीवित रहे हैं । यहॉं जो सिक्के मिलते हैं वे कई शताब्दियों के हैं। इस किले से नदी तक पक्की सीढ़ी बनी है, जिस पर लोग बैठकर स्नान करते होंगे । सीढ़ियॉं मिट्टी से दब गई हैं । आज भी ऐसा लगता है कि मालती यहँ स्नान करके अभी ही गई है ।’
‘यहॉं से पूर्व की ओर लम्वी दृष्टि डालें, समय के अभाव के कारण वहाँ चल पाना सम्भव नहीं है। यहाँ से तीन-चार किमी. की दूरी पर एक स्वर्ण बिन्दु है । यह स्थान सिन्ध और महुअर नदी के संगम पर स्थित है । वहाँ भी संगम स्थल पर ऐसी ही जल राशि के दर्शन किये जा सकते हैं। वहाँ एक चबूतरे पर शिवलिंग मिला है । मालतीमाधवम् नाटक में इस स्वर्ण बिन्दु पर शिवलिंग का वर्णन है, चबूतरा तो पत्थर और चूने का बना है, ईंटे पद्मावती से मिलती-जुलती हैं । यहॉं का शिवलिंग बहुत प्राचीन प्रतीत होता है । इस चबूतरे के नीचे ही एक माँ-बेटे की मूर्तियों के नीचे के भाग हैं । बालक एक मंच पर बैठा है, स्त्री की पायल को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह गुप्तकाल के समय की बात रही होगी । मालतीमाधवम् के वर्णन के आधार पर इसे स्वर्ण बिन्दु न मानना हमारी गलती होगी। यह स्थल सोनागिरि के मन्दिरों से तीन-चार किमी0 की दूरी पर है । ’
भीतर-बाहर आने-जाने का मुख्यमार्ग वर्तमान में स्थित भितरवार बस्ती से था, जो आज भी अपने वैभव की कहानी कह रहा है । पद्मावती की सुन्दरता, प्राकृतिक नैसर्गिकता, ऐतिहासिक-तथ्य तथा साहित्य का संगम इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की अनन्त संभावनाएँ अपने में समेटे है । बन्धुओ, अब समय हो रहा है पाँच बज रहे हैं। अब हमें यहाँ से प्रस्थान करना चाहिये । पहुँचते- पहुँचते शाम हो जायेगी।’
उनका आदेश पाकर सभी बापस चल पड़े और आकर अपनी अपनी बस में बैठ गये। किन्तु सभी पदमावती की चर्चा में व्यस्त हो गये।
अगले दिन कक्षा में उनकी तीसरी कृति पर चर्चा चल पड़ी ।’
आलेख ने चर्चा के लिये याद दिलाई-‘-‘महोदय, उनकी तीसरी कृति उत्तर रामचरितम् ही है ना।’
रावत सर उसकी बात समझते हुये बोले-‘उत्तर रामचरितम् उनकी अन्तिम कृति है। इसमें उन्होंने राम के राज्याभिषेक के बाद से श्री राम जी के जीवन के सभी वृतांत समाहित हैं।’
प्रलेख बोला-‘ सर , अब तो विस्तार से चर्चा के लिये यही कृति शेष है।
रावत सर उसकी बात समझ गये, बोले-‘देखिये, उत्तर रामचरितम् का प्रारम्भ आलेख्य वीथिका में अर्जुन नामके चित्रकार द्वारा चित्रित राम के चरित्र को गर्भवती सीता के मन वहलाने के लिये राम सीता को क्रम से दिखलाते हैं। उसे देखने के बाद सीता कहती है-‘ आर्य पुत्र मेरी इच्छा है कि मैं शान्त वन प्रान्त में विहार करूँ।
इसी बीच गुप्तचर नेसीता विषयक लोकापबाद की राम को सूचना दी। राम ने लक्ष्मण के सीता को वन में भेज दिया। वे वाल्मीकि के आश्रम में पहुँच जातीं हैं।
अगले अंक में वासन्ती और आत्रेयी भ्रमण करतेी हुई पंचवटी पहुँचती हैं। उनसे ज्ञात होता है कि सीता को प्रशव वेदना हुई तो वह गंगा में प्रविष्ठ होगई। उनके दो पुत्र हुये। पृथ्वी और भागीरथी ने उनके पुत्रों को सँभाला। उन्होंने उन दोनो बालकों को वाल्मीकि के आश्रम में पहुँचाया। वाल्मीकि ने उनका पालन पोषण किया और उन्हें शिक्षित किया।
इससे अगले अंक में वाल्मीकि के आश्रम में लव कुश की चल रहीं गतविधियों का चित्रण है। लवकुश को जुम्भकास्त्र सिद्ध होगया है।
आगे की कथा में अयोध्या के राजा राम अश्वमेध यज्ञ करते हैं। लक्ष्मण का पुत्र चन्द्रकेतु के संरक्षण में सेना के साथ अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा गया। घोड़ा वाल्मीकि के आश्रम में पहुँच गया। लवकुश ने उसे पकड़ लिया। इससे लवकुश और चन्द्रकेतु में युद्ध होने लगा। दोनों ओर से दिव्यास्त्र प्रयोग किये जाने लगे। इसी समय श्री रामचन्द्र जी पंचवटी सये अयोध्या जाते हुये युद्ध क्षेत्र में आ गये। रामचन्द्र को ज्ञात होता है कि लव ने जुम्भकास्त्र का प्रयोग करके सारी सेना को स्तम्भित कर दिया है। कुश भी वहाँ आ जाता है। रामचन्द्र का परिचय पाकर वह उन्हें प्रणाम करता है। वे उससे प्रश्न करते है। वे समझ जाते हैकि दोनों ही सीता के पुत्र है।
‘छात्रों देखिये- गंगा के तट पर वाल्मीकि द्वारा रचित कथ्य रचना का अप्सराओं द्वारा मंचन करनेका निश्चय किया है। सारा जन समुदाय दृश्य काव्य देखने लगता है। दृश्य काव्य के माध्यम से सीता निर्वासन, लव कुश आदि के जन्म का वृतान्त का वर्णन किया जाता है। पृथ्वी और भागीरथी के साथ सीता सामने आती हैं। यों राम और सीता का मिलन होता है।
छात्रों, ये रही उत्तर रामचरितम् की संक्षिप्त कथा। जिससे आप लोग भलीभाँति परिचित हो गये हैं।
उसके बाद छात्र महकवि भवभूति के रचना सेसार की प्रसंशा करने लगे। घन्टा बजा और रावत सर कक्षा से चले गये।
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संपर्कः कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा)
भवभूति नगर, जिला गवालियर (म0प्र0)
पिन- 475110
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