पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 19 Abhilekh Dwivedi द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 19

चैप्टर 19

पश्चिमी सुरंग - नया रास्ता।

अब हमारा प्रस्थान दूसरे गलियारे की तरफ हो चुका था। हैन्स ने पहले की तरह आगे रहते हुए मोर्चा संभाला। हम सौ गज से ज़्यादा दूर नहीं गए थे तभी प्रोफ़ेसर ने दीवारों को परखना शुरू किया।
"ये आदिकालीन के उपज हैं, मतलब हम सही मार्ग में है, आगे सफलता मिलेगी!"
जब धरती के ऊपर थोड़ी शांति होती है तभी उसके नीचे कुछ हलचल भी होता रहता है। उन्हीं हलचलों से दरार, गड्ढे और गार बनते हैं। ये गलियारा भी उन्हीं गारों में से एक था जिससे ग्रेनाइट उत्पन्न होने के बाद बहे थे। हज़ार की संख्या में इसके घुमावदार मोड़ ने इसी मिट्टी से इसे अद्वितीय भूलभुलैया बना दिया था।
जैसे-जैसे हम नीचे उतर रहे थे आदिकाल की मिट्टियों के परत देखने को मिल रहे थे। भूवैज्ञानिक के अनुसार इन्हीं मिट्टियों और इनकी परतों से खनिजों का निर्माण होता था जो ग्रेनाइट पर निर्भर रहते थे।
किसी भी खनिज विज्ञानी को ये उपलब्धि हासिल नहीं हुई कि वो यहाँ तक पहुँच कर इस अद्वितीय संपदा को अपनी आँखों से देखे। किसी भी यन्त्र ने इन्हें पृथ्वी पर लाकर इस तरह नहीं दिखाया जिस तरह हम इन खनिजों में मिश्रित तत्वों को छू कर और सामने से देख पा रहे थे।
ध्यान रहे, ये सब मैं सफर के बाद लिख रहा हूँ।
इन पत्थरों पर रंगीन धारियाँ थीं। कुछ हरे रंग में, कुछ पर ताम्बे और मैंगनीज के धातू नुमा धागे थे और साथ में प्लेटिनम और सोने के निशान भी। मुझे देखकर बहुत आश्चर्य हो रहा था कि धरती के नीचे इतनी संपदा है और इंसान इसे कयामत तक हासिल नहीं कर पाएगा। ये खजाना इतना विशाल और अथाह है और जो अभी तक पृथ्वी के नीचे इतिहास की तरह दबे हैं, वो किसी भी कुदाल-फावड़े से कभी नहीं निकलने वाले।
रुह्मकोर्फ़ यन्त्र का प्रकाश हमने थोड़ा बढ़ा दिया था जिससे कि पूरी रोशनी हो और सबकुछ साफ दिखे और इसकी वजह से दीवारों पर इतनी रोशनी थी जैसे हम किसी हीरे के गलियारे से जा रहे हों। एक अभूतपूर्व नज़ारा था।
लगभग छः बजते ये रौशनी मद्धम होते-होते बुझने के किनारे पहुँच चुकी थी। यहाँ के गलियारे में थोड़ी चमक थी, थोड़ा गहरापन था, फेल्डस्पर और स्फ़टिक जैसे पत्थरों के मिश्रण पर अभरक चमक रहे थे। ये सभी उसी पत्थर का निर्माण करते थे जो कठोर या मजबूत होने के साथ मिट्टी के परतों का सहारा भी बनता है।
हम दरअसल ग्रेनाइट के विशाल कारागार में थे।
आठ बज चुके थे लेकिन अभी तक पानी के कोई आसार नहीं मिले। मेरी तकलीफें बढ़ी जा रहीं थीं। मौसाजी सबसे आगे चल रहे थे। उनको रोकना असम्भव था। हालाँकि मुझे सिर्फ एक ही ध्यान था। मैं पानी के किसी भी स्रोत को सुनकर पहचानने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मेरे कानों को कोई सफलता नहीं मिली।
लेकिन एक समय आया जब मेरे पैरों ने जवाब दे दिया कि वो मुझे आगे नहीं ले जा सकेंगे। मुझसे जितना हो सका था मैंने सभी मुश्किलों का सामना किया था ताकि मौसाजी को फिर से ना रुकना पड़े। मुझे पता था उनके लिए ये बहुत बड़ा झटका होगा।
अचानक से मुझे बेहोशी आने लगी। मैं कुछ देख नहीं पा रहा था और घुटने काँप रहे थे। मैं कराहते हुए चीखा और गिर पड़ा।
"बचाओ-बचाओ, मैं मर रहा हूँ।"
मौसाजी पीछे की तरफ मुड़े और वापस उन कदमों से करीब आ गए। उन्होंने अपने दोनों हाथों को बाँध मुझे देखा और हारे हुए शब्दों में धीरे से कहा:
"सब खत्म हो गया।"
आँख बंद होने से पहले मैंने उस चेहरे पर दुःख और अवसाद को बिखरे देखा था।
जब मेरी आँखें खुलीं तो वो सब मेरे करीब निर्जीव से अपने सामानों पर लेटे हुए थे। सो रहे थे या मर गए थे? मेरे लिए नींद अब कोसों दूर थी। बेहोशी खत्म होने के बाद मैं लार्क पक्षी की तरह था। मैं जितना सोने की कोशिश करता सब बेकार था, पलकें भी नहीं थक रहीं थीं। मौसाजी ने जो अंतिम शब्द कहे थे वो कानों में बज रहे थे - "सब खत्म हो गया"। लगता है वो सही थे। कमजोरी की जिस अवस्था में मैं जा चुका था वहाँ से अगले दिन की सुबह को देखना पागलपन लग रहा था।
ऊपर जाने के लिए मीलों सफर तय करना होगा। मैंने सोचा भी कि सब कंधे पर लाद लूँ। लेकिन मैं चूर-चूर था और इतना बोझिल कि वहीं ग्रेनाइट के बने बिस्तर पर बैठ गया।
कुछ घण्टे और बीत गए। एक भयानक और घनघोर सन्नाटा पसर गया था। इन दीवारों के आर-पार कुछ भी नहीं सुन सकते थे। ये भी एक बेमिसाल खयाल था।
फिलहाल जितना भी उदासीन और निराश माहौल था लेकिन कुछ ऐसा हुआ जिससे मैं सजग हो गया। एक हल्का शोर हुआ। मैंने ध्यान से देखा कि सुरंग में अंधकार धीरे-धीरे बढ़ रहा है। मैंने उसी मद्धम रोशनी में अनुमान लगाया कि हैन्स हाथों में लालटेन पकड़े हमसे कहीं दूर जा रहा है।
इसने ऐसा क्यों किया? क्या ये हमें छोड़कर भाग रहा है? मौसाजी को जगाना होगा, ये कहीं मर तो नहीं गए? मैंने चीख कर उन्हें उठाना चाहा। लेकिन मेरे सूखे गले और होठों से आवाज़ ही नहीं निकल रहे थे। डर के मारे हालत खराब हो रहे थे और उस आइसलैंडर के पदचाप भी मद्धम हो रहे थे। मेरी आत्मा, मनोव्यथा से तड़प रही थी क्योंकि लग रहा था अब मृत्यु जल्दी ही आने वाली है।
"हैन्स हमें छोड़कर जा रहा है।" मैं गिड़गिड़ाया, "हैन्स, अगर तुम में इंसानियत है तो लौट आओ।"
ये शब्द मैंने खुद से कहे थे। इन्हें किसीने नहीं सुना था। हालाँकि कुछ देर बाद जब डर खत्म हुआ तब मुझे अपने शक पर शर्म भी आयी कि कैसे मैंने इस ईमानदार सेवक पर शक किया। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि इस तरीके से शक होना चाहिए। क्योंकि मुझे कुछ देर बाद समझ में आया। वो एक झटके में जाने वाला नहीं है। वो ऊपर चढ़ने के बजाय नीचे की ओर जा रहा था। अगर उसकी नियत में खोट होता तो वो ऊपर की तरफ जाता।
इस बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई और मैं शांत हो गया।
वो शांत और गंभीर हैन्स बिना किसी मकसद या चिंता के नींद से नहीं उठा होगा। क्या वो किसी खोज के लिए बेसब्र था? क्या उस समय के सन्नाटे में उसने वो मधुर सुगबुगाहट को सुना था जिसके लिए हम सब बेचैन थे?