चैप्टर 3
एक प्रभावशाली खोज।
"क्या बात है?" बावर्ची ने अंदर आते हुए चीखा, "मालिक रात का भोजन कब करेंगे?"
"कभी नहीं।"
"और दोपहर का?"
"मुझे नहीं मालूम। उन्होंने बोला है अब वो नहीं खाएँगे और ना ही मुझे खाना चाहिए। मौसाजी ने ठान लिया है कि जब तक उस घटिया अभिलेख के बारे में पता नहीं लगा लेते, अपने साथ मुझे भी उपवास रखेंगे।"
"तुम भूख से मर जाओगे।" उन्होंने कहा।
मुझे भी ऐसा ही लग रहा था लेकिन मैं कहना नहीं चाहता था, उन्हें जाने दिया और मैं अपने श्रेणी-विभाजन के कामों में लग गया। लेकिन मैं कितनी भी कोशिश करूँ, वो बकवास पाण्डुलिपि और प्यारी ग्रेचेन का खयाल आ जाता था।
कई बार मैंने सोचा कि बाहर से टहल आऊँ, लेकिन मेरी ग़ैर-मौजूदगी देखकर मौसाजी बहुत गुस्सा हो जाते। आखरी घंटे तक, काम पूरा हो गया था। समय कैसे बिताएँ? मैंने सिगरेट जला ली। अन्य विद्यार्थियों की तरह मुझे तम्बाकू पसंद था और आरामदायक कुर्सी पर बैठकर, मैं सोचने लगा।
मौसाजी कहाँ हैं? मैंने कल्पना किया कि वो ज़रूर किसी अकेली सड़क पर, खुद से बातें करते, हाथ और अपनी छड़ी से हवाओं में कुछ बनाते, उस चर्मपत्र के बारे में सोचते जा रहे होंगे। क्या उनको कोई संकेत मिला होगा? क्या वो मुस्कुराते लौटेंगे? इसी दिमाग़ी उधेड़बुन के बीच मैंने वो घटिया पहेली को उठाया और उसे अपनी कल्पना से उन अक्षरों को समूह में जोड़ने लगा। दो, तीन, चार, पाँच - सब बेकार। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। चौदह, पंद्रह और सोलह से बना अंग्रेजी का 'बर्फ', चौरासी, पिचासी, छियासी से 'महाशय' और आखिर में मुझे लैटिन के शब्द, 'रोटा, म्यूटबिल, इरा, नेक, अतरा' मिले।
"हाँ! यहाँ लगता है मौसाजी सही थे।" मैंने सोचा।
फिर मुझे एक और शब्द मिला जिसका मतलब था 'पवित्र जंगल'। फिर तीसरी पंक्ति में मिला एक हिब्रू शब्द और अंतिम के शब्द फ़्रांसिसी थे।
किसी को पागल करने के लिए इतना काफी था। एक ही वाक्य में चार विभिन्न भाषाएँ। क्या सम्बन्ध हो सकता है बर्फ, महाशय, गुस्सा, निर्दयी, पवित्र जंगल, बदलाव, माँ, और समुद्र का आपस में? पहला और आखरी आइसलैंड से जुड़ा लगता है मतलब बर्फ का समुद्र। लेकिन बाकी के इस मायावी लिपि में क्या है?
मैं जैसे एक अविजित लड़ायी में था, सिर फटा जा रहा था, चर्मपत्र पर आँखें गड़ाए रखने से उनमें दर्द हो रहा था, सारे शब्दों के बेतुके समूह मेरे नज़र के सामने नाचते नज़र आ रहे थे। मेरे दिमाग को किसी मायाजाल ने जकड़ लिया था। मैं घुटन में था, मुझे सांस लेना था। मैं पन्नो को समेटकर उसी से पंखा करना लगा, तब मैंने उनके आगे और पिछले हिस्से को देखा।
अंदाज़ा लगाइए मेरी खुशियों का जब उस नीरस पहेली के पिछले हिस्से पर मेरी नज़र पड़ी, हालाँकि स्याही मिट चुकी थी लेकिन मैं उस लैटिन शब्द के साथ बाकी अंकित चांद-सितारे भी समझ गया था।
मैंने राज़ खोल दिया था!
एकदम से ये बात मेरे दिमाग में आयी थी। मुझे अंदाजा मिल गया था। बस आपको इतना करना था कि लिखे हुए को समझने के लिए उसे उसकी उल्टी दिशा से पढ़ना था। प्रोफ़ेसर के बेमिसाल सुझाव काम आ गए थे; उन्होंने अपने हिसाब से सही लिखवाया था; मैंने अचानक से उसे खोज लिया था जो वो चाह रहे थे।
मेरी खुशी, मेरे भाव और मेरी आँखें चमक उठी थी जबकि पहले मैं डरा हुआ था, इसका मैं कुछ भी कर सकता। हालाँकि एक नज़र देखने के बाद ही मैं कुछ कह सकता था।
"पहले मैं पढ़ के देखूँ।" मैंने एक लम्बी सांस लेते हुए खुद से कहा।
मैंने उसे मेज पर बिछाया, हर अक्षर पर ऊँगली को रखते हुए सही उच्चारण के साथ जोश में ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था।
मेरी रूह पर जैसे किसी ने कब्जा कर लिया था। इससे पहले मैं किसी हारे हुए खिलाड़ी जैसा था। क्या मैं वाक़ई में किसी के राज़ को खोलने में सफल हो गया था! एक इंसान ने कर दिखाया - सही में?
किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए।
"कभी नहीं!" मैंने खुशी में चिल्लाते हुए कहा। "मौसाजी को इस भयानक राज़ का कभी पता नहीं चलना चाहिए। वो इस भयानक सफर को ज़रूर पूरा करने में जुट जाएँगे। ना वो रुकेंगे, ना कोई उनको रोक पायेगा। और तो और, अपने साथ मुझे भी ज़बरदस्ती साथ कर लेंगे और फिर हम दोनों गुम हो जाएँगे। इसलिए इस पागलपन को होने नहीं देना है।"
मैं एक अंतर्द्वंद्व में था।
"मौसाजी तो वैसे भी आधे पागल हैं" मैंने ज़ोर से कहा, "ये उनको नष्ट कर देगा। किसी वजह से वो खोजी कर भी लेंगे तो उसमें हमारा नुकसान है। इस भयानक राज़ को नष्ट करना होगा - इन आग की लपटों को इसे गुमनाम करना होगा।"
मैं तुरंत सब समेट कर आग में डालने वाला था कि दरवाज़ा खुला और मौसाजी अंदर आये।
इससे पहले कि मैं उन घटिया पत्रों को ठिकाने लगाता, मौसाजी मेरे करीब थे। वो गहन मुद्रा में थे। उनके खयाल उन पत्रों की ओर झुके जा रहे थे। चहलकदमी के दौरान कोई नयी योजना बनी होगी इनके ज़हन में।
वो अपनी आरामदायक कुर्सी पर बैठकर एक कलम से कुछ हिसाब करने लगे। मैं उत्सुकता से उन्हें देख रहा था। मेरे रोम सिहर गए क्योंकि लग रहा था वो उस राज़ को खोल लेंगे।
मुझे पता था उनके योग बेकार होंगे, क्योंकि मैंने ही तो उसका हल ढूंढा था। तीन घंटे तक लगातार बिना सिर उठाये, बिना किसी शब्द के वो उसी हिसाब-किताब, काटना, फिर से लिखने वाली प्रक्रिया में लगे रहे। मुझे पता था समय पर वो उस सही वाक्य तक पहुँचेंगे। वर्णमाला के हर अक्षर के लिए योग निर्धारित थे। सदियाँ भले गुज़रे लेकिन वो सही निष्कर्ष पर ज़रूर पहुँचेंगे।
हालाँकि समय गुज़रा; रात आयी, सड़कें सुनसान - और मौसाजी लगे रहे, बावर्ची जब भोजन के लिए बुलाने आयी उसको भी जवाब देना उन्हें मुनासिब नहीं लगा।
उन्हें अकेले छोड़ना मुझे सही नहीं लगा, इसलिए मैंने बावर्ची को इशारे से जाने के लिए कहा, और आखिर में मैं सोफे पर सो गया।
जब मैं जगा तो मौसाजी अभी भी लगे थे। उनकी लाल आँखें, बोझिल चेहरा, अव्यवस्थित बाल, थके हाथ, मुरझाए गाल सब बता रहे हैं कि रात भर भी जागकर और थककर भी उनका संघर्ष कितना कठिन और असफल रहा। ऐसे उन्हें देखकर मुझे दुःख हुआ। भले वो मेरे साथ सख्त थे, लेकिन मुझे उनसे लगाव था और उनके कष्ट को देखकर मुझे दुःख हुआ था। वो एक ही सोच पर इतना अड़ जाते थे कि उन्हें हिलाना आसान नहीं था। उनकी सारी ताकत वहीं केंद्रित रहती। और मैं जानता था मेरे एक शब्द से उनकी तकलीफ मिट जाएगी। मैं बोल नहीं पाया।
हालाँकि, मैं उन्हें दिल से मानता था। फिर क्यों मैं चुप रहा? मौसाजी की भलाई के लिए।
"मुझे हर हाल में चुप रहना है।" मैं बुदबुदाया, "वो दूसरों के पदचिन्हों पर भी चल देंगे! मैं उनको अच्छे से जनता हूँ। उनकी कल्पना ज्वालामुखी जैसी है और भूविज्ञान से जुड़े खोज के लिए वो अपने प्राण की आहूति भी दे देंगे। इसलिए मैं चुप रहूँगा और इस राज़ को भी ऐसे ही रहने दूँगा। इसे खोलना आत्महत्या समान है। वो अपने साथ मुझे भी इस तबाही में घसीट लेंगे।
अपने बाँहों को बाँधकर, हर ओर देखकर एक लंबी सांस ली - तय कर लिया कि कभी नहीं बोलूँगा।
जब हमारी बावर्ची को बाजार या किसी और काम से बाहर जाना होता तो सामने के दरवाजे पर ताला होता और चाबी ग़ायब। क्या ये जानबूझकर किया गया था? बेशक प्रोफ़ेसर हार्डविग कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी इस संपत्ति में मैं और और वो बूढ़ी औरत शहीद हों। एक डरावना वाकया याद आ गया। एक बार हमें बासी और बचे-खुचे टुकड़ों पर ही रहना पड़ा था, जब उनको अपनी जिज्ञासा शांत करनी थी। उसके बारे में सोचकर मरोड़ पड़ने लगते थे।
मुझे नाश्ता करना था, और वो मिलता दिख नहीं रहा था। फिर भी अपने इरादे पर डटा था। हारने के बजाय भूखा रहना मुझे मंजूर था। लेकिन बावर्ची को मेरी हालत का अंदाजा था। कर भी क्या सकते थे? वो बाहर जा नहीं सकती थी, मुझमें हिम्मत नहीं थी।
मौसाजी ने अपना हिसाब और लिखना जारी रखा, उनकी कल्पनाओं ने आकाश बुन लिया था। उनको खाने-पीने की सुध नहीं थी। इस तरह लगभग 12 बज गए। मुझे भूख लगी थी, घर में कुछ नहीं था। रोटी का आखरी टुकड़ा भी बावर्ची ने खा लिया था। ये ज़्यादा देर तक सम्भव नहीं था। हालाँकि इसी तरह 2 बज गए और मेरी हालत बुरी थी। अब मुझे लगने लगा था कि पत्र बहुत ही बकवास है। ज़रूर कोई बड़ा छलावा है। इसके अलावा कुछ होना चाहिए जो मेरे मौसाजी को ऐसे वाहियात अभियान से दूर रखे। और अगर उनको ऐसे खयाल आये भी तो, उसमें मुझे ना लपेटें। तभी एक बात दिमाग़ में आयी। हो सकता है जब मैं बिना वजह भूख से तड़पता रहूँगा तभी उनकी खोज पूरी होगी। भूख की हालत में मुझे ये बात सही लगी। मैंने तय कर लिया कि सब बता दूँगा।
अब सवाल ये था कि करना कैसे है। अभी मैं इसी उधेड़बुन में था, वो उठे और अपना हैट पहन लिया।
फिर! बाहर जाकर हमें घर में बंद करेंगे? कभी नहीं!
"मौसाजी!" मैंने पहल की।
जैसे उन्होंने सुना ही नहीं।
"प्रोफ़ेसर हार्डविग।" मैंने ज़ोर से कहा।
"क्या है?" उन्होंने कड़क होकर पूछा, "कुछ कहा तुमने?"
"चाबी कहाँ है?"
"कौन सी चाबी? दरवाजे की?"
"नहीं, इन डरावनी लिपियों की।"
अपने चश्मे के अंदर से उन्होंने मेरी अजीब-सी शक्ल पर अपनी नज़रें गड़ा दी। फिर आगे बढ़कर मेरी बाँह को जकड़ कर उस पत्र को सवालिया नज़रों से देखने लगे।
मैंने हामी में सिर हिलाया।
अपने कंधों को उचकाकर वो स्थिर हुए। उनको लगा मैं पागल हो चुका हूँ।
"मैंने एक ज़रूरी खोज की है।"
उनकी आँखों मे चमक थी। हाथों को उठाये प्रफुल्लित थे। कुछ पलों के लिए तो हम दोनों चुप थे। पता नहीं कौन ज़्यादा उत्साहित था।
"तुम ये तो नहीं कहना चाहते कि तुम्हारे पास इसका हल है?"
"हाँ है" मैं कहना चाहता था। "उन वाक्यों को देखिए, जो आपने लिखवाया है।"
"ये, बेमतलब के हैं।" गुस्साते हुए कहा।
"दाएँ से बाएँ में कुछ नहीं है, बाएँ से दाएँ में..."
"उल्टे तरफ से! मौसाजी खुशी से चहक उठे। "सैकन्यूज़ेम्म कितने शातिर थे; और मैं कितना मंदबुद्धि हूँ!"
उन्होंने वो पत्र को झपटकर उसपर अपनी थकी आँखों को टिका, मेरी ही तरह ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगे।
लैटिन में जिसका मतलब था:
हे साहसी यात्री, जुलाई के महीने में जब स्नेफल्सजोकल के अंदर उतरोगे, जहाँ स्कारतरिस उसे सहलाती है, तुम पृथ्वी के केंद्र में पहुँच जाओगे। मैंने ये कर दिखाया है।
~ आर्न सैकन्यूज़ेम्म
मौसाजी खुशी से उछल पड़े थे। उनपर अब रौनक और शान थी। वो तसल्ली और आनंद से उस कमरे से निकले। मेज और कुर्सियों पर थपकी देते जा रहे थे। अपनी किताबों को उन्होंने फेंक कर अपनी आरामदायक कुर्सी पर निढाल होकर बैठ गए।
"कितने बजे हैं? उन्होंने पूछा।
"लगभग तीन।"
"रात के भोजन से मुझे कुछ फायदा नहीं हुआ" उन्होंने फिर कहा, "मुझे कुछ और खा लेना चाहिए। हम दोनों एक साथ चलेंगे। मेरा कपड़ों का बैग तैयार कर देना।"
"किसलिए?"
"और अपना भी।" उन्होंने कहना जारी रखा, "हम दोनों साथ चलेंगे।"
मेरा जो डर था वो सच हो गया। लेकिन मैंने तय किया था अपना डर नहीं दिखाऊँगा। सिर्फ वैज्ञानिक कारण ही उन्हें डिगा सकती थी। और इस भयानक सफर के लिए बहुत थे। पृथ्वी के केंद्र में जाने का सफर ही वाहियात है। मैंने तय किया भोजन के बाद ही इस पर बहस करूँगा।
मौसाजी का गुस्सा फिलहाल बावर्ची पर था कि अभी तक भोजन तैयार क्यों नहीं था। हालाँकि मेरे समझाने से संतुष्ट हुए और चाबी मिलते ही बावर्ची ने भी स्वादिष्ट खाने से हमें तृप्त कर दिया था।
इस दौरान मौसाजी स्वाभाविक से ज़्यादा हँसमुख थे। कुछ लतीफे उन्होंने उन विद्वानों से जुड़े हुए सुनाए। जैसे ही खाने के बाद मीठा खाना हुआ, उन्होंने अपने अध्ययन-कक्ष में मुझे बुलाया। एक दूसरे के आमने-सामने हम कुर्सी पर बैठ गए।
"हेनरी" उन्होंने आराम से कहा, "तुमसे मुझे बहुत उम्मीद है, और तुमने भी मेरे लिए बहुत कुछ किया है जसे भुलाना आसान नहीं है। तुम्हारे बिना, ये अविश्वसनीय खोज मैं कभी नहीं कर पाता। इसलिए ये मेरा फर्ज़ है कि तुम्हें इस गर्व से जोड़े रखूँ।
"आज मजाकिया अंदाज में हैं।" मैन सोचा; "बहुत जल्द मैं इन्हें गर्व करने के बारे में अपने विचार बताऊँगा।"
"सबसे पहले," उन्होंने कहना जारी रखा, "सारी बातों को राज़ रहने दो। किसी भी वैज्ञानिक खोज में इंसान सबसे पहले दौड़ते हैं। इसलिए बहुत लोग उसी सफर से शुरू करेंगे। लेकिन हर मौके पर, हम पहले रहेंगे।"
"मुझे नहीं लगता आपका कोई प्रतिद्वंद्वी होगा।" मेरा जवाब था।
"एक हुनरमंद वैज्ञानिक के लिए ये बड़ा मौका है। इस पत्र के सार्वजनिक होने से पहले हमें आर्न सैकन्यूज़ेम्म के बताये हुए रास्तों के संकेतों का पता लगा लेना चाहिए।"
"जी, लेकिन ये पत्र एक छलावा भी तो हो सकता है?" मैंने आशंका जतायी।
"जिस किताब से हमें ये मिला है, मैंने उसकी पुष्टि की है।" उनका जवाब था।
"मैं ये मान रहा हूँ कि उस प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर ने लिखा होगा लेकिन ये ग़लत भी हो सकते हैं।" मेरे जवाब थे।
ये मैंने क्या कह दिया था और अब माफी भी नहीं मांग सकता था। उन्होंने मेरी तरफ देखा और भौहें चढ़ गयीं और मुझे इस बात-चीत के परिणाम का इशारा होने लगा। लेकिन, उनके चेहरे पर भाव बदले और मुस्कुराहट आ गयी।
"देखेंगे।" उन्होंने फैसला सुनाते हुए कहा।
"आप देखिए न, ये क्या है सब जोकल और स्नेफल्स और ये स्कारतरिस? मैंने इनके बारे में कभी नहीं सुना।"
"इसी मुद्दे पर आता हूँ।" कुछ समय पहले लाइप्ज़िग के मित्र, ऑगस्टस पीटरमैन से मुझे एक नक्शा मिला था। वो दूसरे खाने के ज़ेड श्रृंखला की चौथे परत वाली उस मानचित्र-पुस्तक को उतारो।
उम्मीद ना होते हुए भी मैं उस नक्शे में खो गया।