२३.
हंसी-खेल नहीं है असली जिंदगी
थोड़ी देर वर्तिका के पास बैठी वह. उसके पास स्कूल-कॉलेज की गप्पबाजियों का खजाना था. वर्तिका भी उसे बहुत पसंद करती थी. उसका व्यवहार ठीक वैसा ही था, जैसा पहले था. वाकई रत्ती भर भी अंतर नहीं था. हाँ, अगर अंतर था तो कुछ अतिरिक्त स्नेह का. केवल वर्तिका ऐसी थी जो अभी भी उसके नजदीक बनी हुई थी. न जाने क्यों ऐसा होता है कि जो लोग आपके बहुत करीब होते हैं वो धीरे-धीरे दूर होते दिखने लगते हैं, मन ही मन सोचने लगी आरिणी. जीवन भर के बंधन और भारी-भरकम रस्म-रिवाजों के बावजूद जुड़ाव तो मन का ही होता है न. कितने ही मंत्रोच्चार किये जाएँ, कितने ही अनुष्ठान करो, पर सम्बन्धों की रसायनिकी अलग होती है. उसे सुलझाना तो दूर… समझना भी हमारे वश में नहीं.
दोपहर के भोजन तक आरव जग कर तैयार हो चुका था. उससे इस विषय पर बात करना बेमानी था. इसलिए आरिणी ने लंच टेबल पर बुलाने के लिए वर्तिका को ही भेज दिया. हालांकि आज आरव थोड़ा बेहतर और रिलैक्स मूड में दिख रहा था. कल के भोजन की आज तुलना कर बोला,
“अभी तो कल का टेस्ट मन में रहने देते मॉम… या तो आप अच्छा खाना बनाते हो या कल हमारी मैडम ने खिलाया...कुक तो बेचारा हुक्म बजा लाता है… खाने में इमोशन तो डालने से रहा!”.
“हाँ… नाराज होता है तो थोडा नमक-मिर्च जरूर ज्यादा डाल देता है",
वर्तिका ने बातों का तड़का लगाया.
न चाहते हुए भी आरिणी के चेहरे पर मुस्कान आ गई क्यूंकि वर्तिका और मॉम दोनों ही मुस्कुरा रहे थे. आरव भी उनका थोड़ा साथ दे रहा था. माहौल खुशनुमा हो गया था.
आज यूँ भी आरव प्रसन्नचित्त लग रहा था. उसने खुद ही आरिणी की पसंद-नापसंद आइस क्रीम का अनुमान लगाने का खेल खेला. एक ही बार में बता दिया उसने, “बटर स्कॉच”! फिर आरिणी को बताना था… पर वह उसकी पसंदीदा आइस क्रीम का नाम नहीं बता पाई. अब बताती कैसे भला. जब भी वह कभी साथ होते तो हर बार अलग फ्लेवर पसंद करता आरव. कभी चोको चिप… कभी बादाम कुल्फी, या फिर स्ट्राबेरी!
हार कर आरिणी ने बोल दिया,
“स्टेबल बनो तो जानें तुम्हारी चॉइस!”.
अब यह तो हंसी की ही बात थी. पर अगर मन में कुछ अटका हो तो हंसी की बात में भी नाराजगी के शूल चुभ ही जाते हैं. आरव को थोड़ा बुरा लगा. न जाने उसका कहना… या कहने का तरीका. वह डाइनिंग टेबल से उठ गया. मुंह बना कर धीरे से उर्मिला जी भी उठ खडी हुई. आरिणी को समझ नहीं आया कि कैसे रियेक्ट करे वो. सुकूं था तो सिर्फ इतना कि वर्तिका उसका साथ देने के लिए पास बैठी थी. उसने आँखों में ही मुस्कुराकर इशारा किया आरिणी को जैसे बोल रही हो,
‘कोई नहीं… मैं हूँ न?’
“भाभी… चाय पीयेंगी क्या एक कप..?,
वर्तिका ने पूछा.
“नहीं… नहीं कोई जरूरत नहीं. तुमको लेनी हो तो मैं बना दूं?”,
यह आरिणी थी, पर हाथ के संकेत से ही उसने मना कर दिया.
वर्तिका भाभी को साथ ही अपने बेड रूम में ले गई. दोनों खाली समय में कैरम बोर्ड के खेल में हाथ आजमाते थे. यहाँ चैंपियन वर्तिका होती थी. अभी तक एक बार भी अवसर नहीं मिला था आरिणी को कि वह झूठे को ही विजयी कहला सके. पर उस सबसे अलग, छोटे-मोटे स्ट्रेस को दूर करने का यह अच्छा तरीका था.
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