अमिताभ और मै (व्यंग्य)
यूं तो हम हमेशा से ही अमिताभ बच्चन के प्रशंसक रहे है लेकिन उनकी तुलना हमसे........ कहाॅं राजा भोज कहाॅं गंगू तेली । हम गंगू ही सही हमें भी जिंदगी स्टाईल से जीने का शौक रहा है । हमारा क्षेत्र छोटा सा कस्बा ही क्यों न हो, हम भी चर्चा-परिचर्चाओं में रहने के कारण कस्बे के विख्यात-कुख्यात लोगों में शामिल है । इसका फायदा बस इतना ही है कि कस्बे की सड़कों पर हमें कुछ अधिक ही हाथ उठाकर अभिवादन करना पड़ता है । कस्बों में विख्यात-कुख्यात होने के लिये स्थानीय केबल और अखबार वाले बड़ी भूमिका निभाते है । खैर........कुछ भी हो इस कस्बे में लोग हमें जानते-पहचानते हैं ।
ये मसला तब खड़ा हुआ जब हमारे कस्बेनुमा शहर में के.बी.सी. की टीम आई । साहब करोड़ों किसे नहीं खींचते, सो हम भी खिंचे चले गए । यहाॅं तो ऐसा लगा पूरा कस्बा ही जमा हो गया है । यहाॅं अमिताभ तो थे नहीं, उनके बड़े-बड़े कटआऊट लगे थे । हम एक कटआऊट को बड़े ध्यान से निहार रहे थे । न जाने कहाॅं से हमारा एक प्रशंसक नामुदार हुआ। वो बोला ‘‘आज मैं दो-दो अमिताभ को एक साथ देख रहा हॅूं ।’’ हम बोले ‘‘वो कैसे...........? वो बोला ‘‘अमिताभ जी तो है ही’’ आप भी शहर में अमिताभ बच्चन से कम है क्या ? ‘‘वो तो बोल गया लेकिन उसके ये शब्द हमारे दिमाग को खराब करने के लिए पर्याप्त थे।
हमनें घर आकर शीशे में खुद को निहारा। फ्रेंच कट दाढ़ी, उनकी भी है हमारी भी। उनके घने बाल है, हमारे थोड़े कम .............भगवान झूठ न बुलवाए भाई साहब..........हमारे तो है ही नहीं। शीशे में अपने आपको कई कोणों से देखा, कहीं से अमिताभ की झलक तो दिखे। वो छः फुट के गबरू जवान और हम चार फुटिया अधेड़। दाढ़ी को छोड़ कर कुछ भी मैच नहीं करता है तो क्या हम अमिताभ बनने का प्रयास भी नहीं कर सकते। बस साहब अब हम अपनी आवाज के पीछे पड़ गए। गले में आवाज को अटका कर ‘‘हय......’’ और ‘‘विजय दीनानाथ चैहान...........’’ जैसे डायलाॅग बोलने का प्रयास करने लगे। अकेले में हम खुद ही बोलते और खुद ही हंस लेते। फिर खुद को ही दिलासा देते, आवाज तो मिलने लगी है। कहीं बोलना होता तो संभल कर गला बैठा कर ही बोलते । फिर ध्यान गया पत्नी की तरफ उनकी तो उनसे दो फुट छोटी है और हम ‘‘जिसकी बीबी लम्बी उसका भी बड़ा नाम है............’’ गा-गा कर स्टूल पर चढ़कर नज़रें मिलाने में लगे रहते है। सोचा बनारसी पान से बात बन जाए लेकिन यहाॅं भी पत्नी आड़े आ गई। हमारी पत्नी ने हमसे कुम्भ में पान न छुड़वाया होता तो आज हम माॅं कसम कम से कम होठों से अमिताभ होते ही। हमें अमित जी की अदाएं बहुत पसंद है। खासकर महिलाओं को सहारा दे कर कुर्सी पर बैठाने की। हमें लगा यही उनकी सभ्यता का प्रतीक है। बस..............हम भी जहाॅं किसी महिला को कुर्सी पर बैठते देखते अमिताभ बन जाते। ये और बात है कि हमारी यह सभ्यता लोगों को नागवार गुजरी। एक दो बार कपड़े फड़वाए और झापड़ भी खाए। कुछ महिलाएं तो हमारी सभ्यता की चपेट में आकर कुर्सी पर बैठने के स्थान पर गिर ही पड़ी । फिर उन्होंने हमारे सम्मान में जो कसीदे पढ़े वो यहाॅं लिख पाना सम्भव नहीं है। हमें लगने लगा कि हमें भी अमिताभ की तरह चैक बुक लेकर घूमना चाहिए। हमारे कस्बे में ‘‘कुर्ते के नीचे क्या पहना जाता है?’’ जैसे प्रश्नो के उत्तर बताने वाले भी नहीं मिलेंगे। वैसे हमारा बैंक बैंलेस भी इस बात की इजाजत नहीं देता। फिर हमारे चैकों के उछलने (बाऊंस) होने का खतरा भी हमेशा ही होगा, इसमें घाटा भी बहुत है।
फिर सोचा थोड़ा इतिहास खंगाला जाए। अमिताभ के पिताजी कवि थे.......हमारे भी। उनके पिताजी ने रूबाइयों का अनुवाद कर मधुशाला लिखी। हमारे पिताजी ने हाला...........मधुशाला को कभी देखा भी नहीं, वे तो राम चरित लिखते रहे। हम प्रयासरत रहे कि कहीं से हमारे प्रशंसक की बात लग ही जाए और हम में भी अमिताभ के कुछ अंश ही सही दिख तो जाए।
मुझे लगता है मेरी ही तरह अनेक लोग अपने प्रशंसको के हाथों मारेे जाते है। तारीफ करने वाला आपकी खुशी के लिए अच्छे से अच्छे शब्दों का चयन करता है। ये शब्द उसके लिए उतने महत्वपूर्ण नहीं होते जितने आपके लिए। आप अपनी प्रशंसा को ध्यान से सुनते है, अपने गले लगाते है और सिर पर बैठाते है। अक्सर उसमें मस्त भी हो जाते है। दूसरों की प्रशंसा हमें आत्मप्रशंसक बनाती है। आत्मप्रशंसा गर्व से घमंड का रास्ता खोलती है। अक्सर प्रशंसा के हथियार से घायल हुआ व्यक्ति उपहास का पात्र बनता है। दुनिया में हर व्यक्ति अपनी विशेषताओं के साथ पैदा हुआ है इसलिए न तो मुझे अमिताभ बनने की आवश्यकता है और न ही किसी गंगू को राजा भोज।
आलोक मिश्रा"मनमौजी"
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