जनश्रुतियों के आइने में पद्मावती नगरी एवं भवभूति साहित्य रामगोपाल तिवारी द्वारा कल्पित-विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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जनश्रुतियों के आइने में पद्मावती नगरी एवं भवभूति साहित्य

जनश्रुतियों के आइने में पद्मावती नगरी एवं भवभूति साहित्य

रामगोपाल भावुक

सभी की देखने की अपनी-अपनी दष्टि होती है। मैंने यहाँ पद्मावती नगरी एवं भवभूति साहित्य को जनश्रुतियों के आइने में देखने का प्रयास किया है।

लोगों में यह जनश्रुति प्रचलित है कि पदमावती नगरी उलट गई है। इसका सहज अर्थ यह है कि यहाँ निश्चय ही कोई बड़ी आपदा आई होगी, चाहे नदियों के बीच धिरे होने से बाढ़ का प्रकोप हुआ हो, भूकम्प आ गया हो अथवा शत्रुओं ने इसे तहस-नहस कर दिया हो। जो हो यह विकसित नगर आज धरती में समा गया है। लगभग चालीस-पचास फीट खुदाई करने पर इसके अबशेष मिल रहे हैं और यह जनश्रुति यथार्थ बनकर हमारे सामने है।

यह जनश्रुति भी बहुत ही अधिक चर्चित है कि धूमेश्वरके मन्दिर का र्निमाण जिन्नों ने किया है। मुझ से अनेक मीड़िया वाले यही प्रश्न पूछ चुके हैं। मेरा हर वार उन्हें एक ही उत्तर रहा है-इस मंदिर का पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव ने करवाया था ।

सिकन्दर लोदी यहॉँ आया था। यहॉँ पाँच भव्य मकबरे भी हैं, क्या उसने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा? ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव का ध्यान इस ओर चला गया और यह निर्माण करा दिया। सम्भव है किसी राजसत्ता के प्रभाव से बचने के लिये रातों-रात इसका निर्माण किया हो। जिससे जन मानस में जिन्नों से जोड़ने की बात मन में बैठ गई है। वर्तमान में जोशिव लिंग है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया हुआ है । इत्यादि सभी तथ्य हमें सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि यह एक प्राचीन मंदिर है, और इसकी प्राचीनता से कालप्रियनाथ को जोड़ना इस स्थल के एतिहासिक तथ्य को उजागर करना है।

भवभूति की तीनों कृतियों में कालप्रियानाथ के यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन, इस बात का प्रतीक है कि यहॉं प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता रहा है। यह धूमेश्वरका मंदिर ही कभी कालप्रियानाथ का मंदिर था। यह मन्दिर आज दो हिस्सों में बना दिखाई देता है। इसका पिछला भाग अति प्राचीन है और अगला हिस्सा ओरछा के राजा के द्वारा निर्मित है। इस मन्दिर के नजदीक ही सिन्धु नदी का जल प्रपात है। उससे उठते धुआँ के कारण ही इस मन्दिर का नाम धूमेश्वररख दिया होगा।

गर्भ ग्रह के मुख्य द्वार पर दो शिलालेख लगे हैं उनका सच क्या है। जन जीवन में इनके वारे में अनेक अवधारणारयें चर्चा में रहीं हैं। इन दिनों उनके बाचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं।

1 सिकन्दर लोधी यहाँ अया था । यहाँ भव्य पाँच मकबरे जो उसके सम्पूर्ण वर्चस्व की कहानी कहने में सफल हैं।

2 उस समय यहाँ भवभूति के कालप्रियानाथ के मन्दिर का वैभव चरम सीमा पर था। यह कैसे भी जहाँगीर के काल तक पड़ा रहा।

3 यदि यहाँ कोई मुश्लिम प्रतीक होता तो यहाँ ये बादशाह जहाँगीर का शिलालेख भी नहीं होता।

4 यह मन्दिर वीरसिंह जूदेव और जहाँगीर की मित्रता का परिचायक है।

उस काल में मुसलमानों का वर्चस्व था जिससे मन्दिर को बचाने के लिए यह शिलालेख बादशाह को लगाना पड़ा।

शुरू-शुरू में जब यह मन्दिर बनवाया होगा उस समय चोरी छिपे ही इसका निर्माण कार्य किया गया होगा। इसी कारण जिन्नों के द्वारा इसके निर्माण की जन श्रुति जनमानस में प्रचलित हो गई है।

7 दोनों आलेखों में ईश्वर की सत्ता स्वीकारी गई है।

8 दोनों आलेखों में नक्कासी और कसीदाकारी की सुरक्षा की बात कही गई है।

9 इमारत को छति पहुँचाने वाले को गिरफ्तार किया जावेगा इसी भय से यह इमारत आज तक सुरक्षित बनी रही। इसके परिणाम स्वरूप यह इमारत आज हमारे सामने है।

10 इन शिलालेखों कें कारण यह इमारत युग युगों तक साम्प्रदायि सौहार्द का उदाहरण बनकर वनकर सन्देश वाहक का कार्य करता रहेगा। इसी करण इसे सुरक्षित रखने की महती आवश्यकता है।

कालप्रियनाथ के मंदिर की यात्रा में आये ये बदलाव हैं ।

वर्तमान में तीन मंजिल वाला जो नाटक मंच है। इस क्षेत्र के लोग उसे कोर नारायण की पहाड़ी कहते आ रहे हैं। खुदाई से पहले जो टीला दिखता था लोग उसे कोर नारायण की पहाड़ी ही कहते रहे हैं। खुदाई के बाद भी यही नाम आज लोगों की जुवान पर है। देश के विद्वान इसे आज भी अलग- अलग रूपों में देखते रहे हैं। खुदाई कराने वालों ने इसके सामने विष्णू मन्दिर की पटिटका लगा दी थी किन्तु इस क्षेत्र के रंग कर्मी डॉ.कमल बशिष्ठ जी एवं इतिहासकार डॉ0 आनन्द मिश्र इसे नाट्य मंच ही माना हैं।

इस मंच के पास एक गीत नृत्य की मूर्ति भी मिली है, जो साहित्यकारों को एक अलग ही प्रकार से सोचने के लिए विवश कर देती है। आप इस मूर्ति को ध्यान से देखें तो लगता है कि यह एक नाट्यमंच ही खुदाई में निकला है । इस नाट्यमंच को सजाने के लिए ही इन मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा। इस मंच के ऊपर एक चबूतरा है, उस पर बैठकर जो हो सकता है वह इस गीत नृत्य की मूर्ति से स्पष्ट हो जाता है । इस मूर्ति में छत्रधारिणी विदुषी नारी बैठी है, नर्तकी नृत्य कर रही है तथा वाद्य बजाने वाले अपने-अपने वाद्यों को बजाने में निमग्न है ।

उससे नीचे सामने जो चबूतरा है, वह एक सवा मीटर ही नीचा होगा, वहँ राजसभा के सभी लोग बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे । उससे नीचे के चबूतरे का उपयोग सेना प्रमुखों और उससे नीचे वाले का उपयोग नगर के सेठ साहूकारों द्वारा किया जाता होगा । जन साधारण को धरती से ही इसका आनन्द लेना पड़ता होगा ।

भवभूति के नाटक कालप्रियानाथ के यात्रा-उत्सव में यहीं खेले गये हैं । इसे इस मूर्ति के आधार पर नकारा नहीं जा सकता ।

यह जनश्रुति प्रचलित है कि यहाँ कभी टकसाल थी। पदमावती की धरती पर प्राचीन सिक्कों का मिलना आज भी जारी है। यहाँ पर सिक्कों का निर्माण किया जाता था। वे सिक्के विभिन्न समय के लगते हैं। उनकी संरचना की भिन्नता समय की भिन्नता प्रदर्शित करती है। सिक्के इस क्षेत्र की मुक्त कण्ठ से प्राचीन कहानी कहते रहते हैं। उनकी संरचना के आधार पर उनके निर्माण के प्रथक-प्रथक समय के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। यहाँ के हर घर में सिक्के देखने को मिल सकते हैं।

पदमावती नगरी व्यापार का प्रमुख केन्द्र रहा है। हमारे देश में वंजारे व्यापार के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। जब वे अपने घन को लाने-लेजाने में असमर्थ रहते तो बीजक लगाकर अपना धन गाड़ देते थे। उन बीजको की भाषा गूढ़ होती थी। ऐसे कुछ बीजक इस क्षेत्र में मिल जाते हैं। विस्तार से बचने के लिये ऐसे ही एक बीजक का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस क्षेत्र में एक जनश्रुति प्रचलित है। एक ऐसा बीजक एक परिवार को मिला है, जिसमें लिखा है- जब परिवार आर्थिक तंगी से गुजरे। तब दिन के दस बजे मंदिर के गुुंबद को खोदें। समस्या का समाधान मिल जायेगा। लोगों ने गुम्बद को खोदा लेकिन कुछ नहीं मिला। बाद में वैसा ही गुम्बद बनाया। उसकी छायावाले स्थान पर दिन के दस बजे खोदा गया। तो खजाना मिल गया। बीजकों के संकेतों की बातें आज इस क्षेत्र में अनेकों प्रचलित हैं।

पहलें पोल पवाय में,अब गाँव-गाँव धसियाई। यह जनश्रुति सारी व्यवस्था पर प्रहार कर रही है। इसका सहज अर्थ यह है कि पहले इस नगर में अव्यवस्थाओं का बोल-बाला था। अब वही अव्यवस्था सभी जगह व्याप्त हो गई है। इस जनश्रुति का सहारा लेकर हम उस समय की व्यवस्था पर दृष्टि डालें तो इसी भावभूमि की तरह यह लोकोक्ति भी बहुत ही चर्चित है टके सेर भाजी टके सेर खाजा । इसका अर्थ है, सभी बस्तुओं का एक ही भाव से क्रय विक्रय। कैसे सम्भव रही होगी ऐसी व्प्यवस्था? निश्चय ही तांत्रिकों अथवा शक्ति सम्पन्न लोगों की मनमानी से यह व्यवस्था सम्भव रही हो। लोगों को दवाब में लेकर ऐसे लोग सम्पति के मनमाने दाम लगा कर उसे अपने कब्जे में कर लेते होंगें। इसी कारण ऐसी जन श्रुति चलन में आ गई होगी।

पवाया की धरती पै शक्ति सम्पन्न लोगों का बर्चस्व रहा है। मालती माधवम् में भवभूति ने सामाजिक व राजनैतिक परिवेश का खुला चित्रण अंकित किया है। अकेला माधव अनेकों सिपाहियों को मारकर भगा देता है,वहाँ के महाराज छत पर खड़े-खड़े यह देखते रहते हैं। जब माधव जीत जाता है तो उसकी वीरता देखकर वहाँ के महाराज उसे अभयदान प्रदान कर देते हैं। इस कथा के द्वारा भवभूति ने उस समय के राजनैतिक परिवेश के वारे में क्या नहीं कह दिया? उस समय के राजा ने इस को अवश्य देखा होगा। सोचें- राजनैतिक अव्यवस्था के ऐसे नर्तन का वर्णन करना किसी साधारण से व्यक्तित्व के बस की बात नहीं है। उस समय के राज परिवार की कमियों को रेखाकिंत करने के लिये ही ऐसे दृश्यों की संकल्पना की गई होगी।

पदमावती की धरती पर एक यह जनश्रुति भी सुनने को मिलती रही है- राजा हो चोरी करै न्याय कौन पै जाय।

उस समय में पदमावती की धरती पर अव्यवस्था चरमसीमा पर थी। राज परिवार और उनसे साम्बन्धित लोग मन मानी करते होंगे। इसी कारण यह लोकोक्ति इस क्षेत्र के लोगों की जुवा पर विचरण कर रही है।

नरवलि की परम्परा के साथ यहाँ तांत्रिकों की मनमानी चलती रही है। उस समय की राजनैतिक अव्यवस्था को उजागर करने के लिये ये बातें पर्यााप्त है। आज की तरह उस समय भी आत्महत्याओं का चलन एवं कमजोर वर्ग के प्राणियों की हत्या उस समय के वामाचारियों द्वारा साधारणसी बात थी। उस समय राजतंत्र का प्रभाव नगण्य दिखार्इ्र देता है। इस तरह भवभूति के मालती माधवम् में व्यवस्था की शल्य क्रिया करने का प्रयास किया है। उनकी उसी कृति में नन्दन नामक पात्र मालती के साथ विवाह करने के लिये, राजा की खुशामद करके उन्हें अपने पक्ष में कर लेता है। लगता है-उस समय राज परिवार का कार्य अपने चाटुकारों की शादी व्याह कराने तक सीमित रह गया था। उस समय की सामाजिक व्यवस्था का इससे अच्छा आलेख कोई दूसरा नहीं हो सकता।

नन्दन सुहागरात में नव परिणिता वधू जानकर मकरन्द के पास गये। मकरन्द ने उन्हें फटकार दिया। इस पर नन्दन बलात्कार के लिये प्रस्तुत हो गये। मकरन्द ने उनको प्रताड़ित किया। इसके बार वे क्रोधवश कौमार वध की दो चार कड़वी बातें कह कर कमरे से निकल पड़े। कुछ समय बाद मकरन्द भी वहाँ से चला गया।

पहलें पोल पवाय में, अब गाँव-गाँव धसियाई। वाली बातें आज हमारे इस क्षेत्र की ही नहीं देश के हर गाँव की कहानी बन गये है। यों यह जनश्रुति आज यथार्थ बनकर हमारे सामने है।

ऐसी ही पर्तों को अनावृत करने, मैं बचपन से ही पदमावती नगरी में भ्रमण करता रहा हूँ।

राम की चिरैयाँ राम का खेत, खालो चिड़ियाँ भर भर पेट। पंचमहल के इस जन जीवन में यह कहावत बहुत अधिक प्रचलित है। इस धरती पर बैठ कर महावीर चरितम् एवं उत्तर राम चरितम् जैये ग्रंथों में राम कथा लिखी गई है। सम्भव है श्रीराम के प्रति समर्पण की भावना ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया हो।

इस क्षेत्र में महिलाओं एवं बालिकाओं के नाम मालती हर गाँव में मिल जाते हैं। इसके साथ ही कुछ पढ़े लिखे लोग बौद्ध नायिका कामान्दकी के नाम की चर्चा करते हुए सुने जा सकते हैं। महाकवि भवभूति ने मालती माधवम् में इसी बौद्ध नायिका कामान्दकी का अभिनय किया था। इस तरह महाकवि भवभूति ने बौद्ध नायिका कामान्दकी के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है। इसी कारण क्षेत्र के बौद्ध धर्मालम्बी महाकवि का नाम श्रद्धा से लेते हैं।

मेरे ही गाँव के मित्र बालाप्रसाद शर्मा पदमावती की धरती पर खोज की दृष्टि सो भ्रमण करते रहते हैं। उन्होंने ही मुझे बतलाया था। एक वार वे भ्रमण करतें हुए पदमावती नगरी के निकट एक छोटे से गाँव विजकपुर जा पहुँचे। एक घर के सामने नीम के पेड़ की घनी छाया देखकर उसके नीचे बने चबूतरे पर जाकर बैठ गये। उस घर का बड़ा लड़का उनको आया देख गर्मी के मौसम में पानी की पूछने के लिये उनके पास आया। कुछ इधर-उधर की बातें करने के वाद वे अपने विषय पर आगये- मैं पद्मावती के बारे में जानकारी इकत्रित करने निकला हूँ। यहाँ के बारे में कोई जानकारी हो तो बतलायें। ’’

यह सुनकर वह बोला-‘‘आप इस चक्कर में न पडें, हम तो एसी ही बात के मारे-धारे हैं।’’

यह सुनकर शर्मा जी बोले- इस क्षेत्र में धन खोदने वाले आते रहते हैं। क्या कहीं धन खोदने के चक्कर में तो नहीं फस गये?’’

वह डरते-डरते बोला-‘‘यह बात नहीं है। मेरे पिताजी की स्थिति ठीक नहीं है। पिछले तीन साल से पागल बने घूम रहे हैं।’’

उन्होंने उससे कहा’-‘‘साफ-साफ कहें! इन्हें क्या हुआ?’’

वह बोला-‘‘ मेरे पिताजी अपने घर की गायें व बकरी चराने सुबह से ही निकल जाते। एक गाय प्रतिदिन जाने कहाँ से आकर हमारी गायों के साथ चरती रहती। शाम को लौटते बक्त जाने कहाँ चली जाती! महीनों व्यतीत होगये। घर आकर वे यह बात हमसे कहते तो हम लोग उनसे कह देते-‘‘इतने दिन उस गाय को चराते-चराते हो गये, जिसकी गाय है उनसे घिराउ तो मांगकर लायें।’’

एक दिन पिताजी उस गाय के पीछे-पीछे चले गये। वह गाय मलखान पहाड़ी के पास जो गहरा सिन्धु नदी का दाह है उसमें कूद गई। मेरे पिताजी उसके पीछे उस दाह में कूद गये। वे गाय के पीछे-पीछे नदी के उस पार पहँच गये। वहाँ एक साधू-महात्मा खड़े थे। वे उनसे बोले-‘‘इधर कहाँ जाते हो?’’

पिताजी उनसे अकड़कर बोले-‘‘तुम्हारी गाय को चराते-चराते चार माह हो गये। महाराज जी उसकी घिराउ तो दीजिये।’’

वे बोले-‘‘इस समय तो हमारे पास कुछ भी नहीं है। ऐसा करो, ये चार जौ के दाने तुम्हारी सुआफी में बांधे देते हैं , इन्हें लेकर फिर कभी आ जाना , हम घिराउ दे देंगे। साधुओं की बात उन्हें मानना पड़ी। वे महाराज जी बोले-‘‘जरा, अपनी आँखें बन्द करना।’’’

इन्होंने अपनी आँखें बन्द करलीं तो उन्होंने अपने आप को नदी की इस ढीय पर खड़े पाया। बुरे मन से घर लौट आये।

भैया ,हम चार भाई हैं। हम चारो ने उन्हें घेर लिया। बोले-‘‘ दादा , घिराउ ले आये।’’

उन्होंने वेमन से यह कहते हुये वह सुआफी की गाँठ खोली-‘‘ बाबा-जोगियों की गाय थी। उन पर देने को क्या रखा?’’

गाँठ खुली, उसमें से चार सोने की मोहरें निकलीं। यह देखकर हम चारों भाइयों ने एक- एक मोहर उनसे झपटली। उसी दिन से दादा पागल बने घूम रहे हैं।’’

शुक्लजी ने उनसे पूछा -‘‘वे मोहरें ,दिखायें तो।’’

वह बोला-‘‘छमा करें, गत वर्ष हमने एक खेत खरीदा था , उसमें चारों मोहरें बिक गईं।’’

शुक्लजी बोले-‘‘ उस धरोहर को बेचना नहीं चाहिये था।’’

मैं भावुक यह जनश्रुति सुनकर अन्ध विश्वास की बातें मानते हुए घर लौट आया। मित्रो, ऐसी अनेकों घटनायें पदमावती के इस क्षेत्र में सुनने केो मिल जातीं है। जैस यहाँ के प्रमुखशिव मन्दिर में पुजारी जी को रोज पूजा की हुई मिलती है एवं मन्दिर की बनोक के कारण प्रत्येक मौसम में सूर्य की पहली किरणशिव लिंग पर पडती है।

इस क्षेत्र में ऐसी अनेक जनश्रुतियाँ एवं लोकोक्तियाँ मुझे बचपन से ही सुनने को मिलती रहतीं है।

इस तरह इस क्षेत्र में प्रचलित जतनश्रुतियों एवं लोकोक्तियों के आइने में महाकवि भवभूति के साहित्य एवं पद्मावती नगरी को को देखा- परखा जा सकता है। 00000