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पद्मावती (पवाया)में शोधकी अनन्त संभावनायें

पद्मावती (पवाया)में शोधकी अनन्त संभावनायें

पद्मावती नगरी के अवशेष मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित भवभूति नगर (डबरा) रेल्वे स्टेशन से भितरवार नरवर मार्ग पर 10 किमी0 चलने पर वॉंयी ओर चित्ओली (चिटोली) सालवई ग्राम से शुरू हो जाते हैं । अभी हाल ही में यहाँ गाँव के लोगों ने खेतों का समतलीकरण कराया है, जिसमें एक प्राचीन बस्ती के अवशेष मिले हैं । यहाँ जो ईटें मिली हैं, कुछ मूर्तियाँ मिली हैं, वे सब पद्मावती की ईटों और नमूनों से मिलते-जुलते हैं । मालती माधवम् में लवण सरिता का वर्णन आया है । यह अवशेष लवण सरिता अर्थात् नोंन नदी के किनारे पर आज हमें देखने को मिल रहे हैं । यहाँ के लोग यह मानते हैं कि इस नगर का विस्तार इस गाँव तक फैला हुआ था । यहाँ जो ईंटे मिली हैं, उनका आकार 48.26-25.4-7.62 सेमी. है । इससे सिद्ध होता है कि इस नगरी के आसपास जो गाँव रहे हैं, वे पद्मावती नगरी की तरह पूर्ण रूप से विकसित थे ।

अब हम इसी मार्ग पर आगे नोन नदी (लवण सरिता) को पार करते हुए करियावटी गाँव में पहुँचते हैं । यहाँ से बाँयी ओर साखनी (साँखनी) गाँव के लिए रास्ता जाता है । आगे बढ़ने पर पारा ‘‘पार‘‘ (पाटलावती) नदी को पार करने पर एक सड़क बॉंयी ओर मुड़ती है । इसी सड़क से हम धूमेश्वरके मन्दिर पर पहुँच जाते हैं ।,

इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी ईसा की पहली शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक फली-फूली है।यहाँ नागों का शासन रहा है ।(1) धूमेश्वरका मंदिर इस क्षेत्र में आज भी तीर्थ-स्थल बना हुआ है। आज भी प्रति सोमवार को यहाँ मेला लगता है । इस मंदिर का निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव ने करवाया था । भवभूति की तीनों कृतियों में कालप्रियानाथ के यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन, इस बात का प्रतीक है कि यहॉँ प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता है, यह धूमेश्वरका मंदिर ही कभी कालप्रियानाथ का मंदिर था । ओरछा के राजा को यहाँ यह मंदिर बनवाने की क्या आवश्यकता थी ?यहाँ के लोग यह मानते हैं कि कालप्रियानाथ के मंदिर की यहॉँ आए मुस्लिम शासकों ने इसका रूप बदला होगा ।

इस मंदिर की दीवार पर फारसी के दो शिलालेखआज भी मौजूद हैं। (2 ) जिन्हें पढ़ने की आवश्यकता है, तभी यह स्पष्ट हो पायेगा कि यह मंदिर क्यों और कैसे बनवाया गया है ? वर्ष 1999 में मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी भोपाल द्वारा आयोजित भवभूति समारोह में मुम्बई से पधारे पं. गुलाम दस्तगीर जी से इसे पढ़वाने का प्रयास किया गया किन्तु वे उसमें एक ‘‘अल्लाह’’ शब्द ही पढ़ने में सफल रहे हैं। इस मंदिर के सामने की जो दो गुम्बद बने हैं, वे कहीं मस्जिद के बदले हुए रूप के तो नहीं हैं ? यदि यह परिवर्तन हुआ है तो निश्चित रूप से कालप्रियनाथ के मंदिर की यात्रा में आए बदलाव हैं । सिकन्दर लोदी यहाँ आया था । यहाँ पाँच भव्य मुस्लिम मकबरे भी हैं। (3 ) क्या उसने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा ? उसने उसका रूप भी बदला ही होगा । ओरछा के राजा वीरसिंह जूदेव का ध्यान इस ओर चला गया और यह परिवर्तन करा दिया । वर्तमान में जोशिव लिंग है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया हुआ है । इत्यादि सभी तथ्य हमें सोचने के लिए विवश कर देते हैं कि यह एक प्राचीन मंदिर है।

इस मंदिर के पास में सिन्धु नदी पर एक जलप्रपात है, जिसका वर्णन मालती माधवम् में भी आया है उसी जल प्रपात से लगा हुआ एक नोंचौकिया(नाचंकी)

(4)बना हुआ है । कुछ लोग इसे पद्मावती के समय की इमारत मानते हैं और कुछ इसे मंदिर के समकालीन । लगता है, इस इमारत की इबारत पढ़ने वाले किसी इतिहासकार ने अपना ध्यान इस ओर केन्द्रित नहीं किया है । हाँ ईटें,पत्थर और चूने के मिश्रण से इसका मूल्यांकन करने वाले इसे मंदिर के समकालीन इमारत मानते हैं।

यहाँ पास में ही मलखान पहाड़ी है । कहते हैं मलखान यहाँ आकर ठहरे थे, उनकी साँग पिछले कुछ दिनों तक यहाँ गढ़ी रही है । भवभूति के नाटक मालतीमाधवम् में एक श्रीपर्वत का वर्णन आया है, यह वही पर्वत है। मलखान एक वीर पुरूष था, जब वह इस प्रसिद्ध स्थान पर आकर ठहरा तथा उसने अपनी सॉंग यहाँ गाढ़ दी तो इस पहाड़ी का नाम ही मलखन पहाड़ी पड़ गया है । कहते ह,ैं यह एक प्राचीन सिद्ध स्थान है ।

अब हम उस टीले पर दृष्टि डालें जो ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संचालक श्री मो.वा. गर्दे ने जिसका उत्खनन कार्य 1925 से 1941 तक करवाया है, इस पर पुरावत्ववेत्ताओं, इतिहासकारों एवं साहित्यकारों की दृष्टि लगी हुई है । श्री गर्दे ने इसे विष्णु मंदिर का नाम दिया है (5) इसका कारण यह रहा है कि यहाँ विष्णु की मूर्ति मिली है । मिलने को तो यहाँ सूर्य भगवान की भी मूर्ति मिली है, इससे क्या इसे सूर्य मंदिर का नाम देना उचित होगा ? क्योंकि यदि सूर्य से कालप्रियनाथ का नाम जुड़ता है तो निश्चय ही यह मालतीमाधवम् में वर्णित कालप्रियानाथ का मंदिर है । जो भी हो उस समय इस नगर में विष्णु,शिव एवं सूर्य की उपासना की जाती थी ।

यहाँ जो स्मारक खुदाई में निकला है, उस चबूतरे का 43.58 मी0 आकार लम्बा एवं 42.67मी0 चौड़ा हे । उसके ऊपर जो चबूतरा है, उसकी लम्बाई 28.3 मी0 है, उससे ऊपर जो चबूतरा है वह 16.15मी0 लम्बा है । प्रत्येक भाग की ऊँचाई तीन या चार मीटर ही ही होगी, अतः यह विशाल चबूतरा का ही एक रूप है ।

इस स्मारक के पास अनेक मृण मूर्तियाँ मिली हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इन मूर्तियों का उपयोग इस इमारत को सजाने के लिए किया जाता होगा । यहाँ नाग राजाओं के राजचिन्हयुक्त स्तम्भ भी मिले हैं, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कोई राजसभा हो, जिसे राजचिन्हों से सजाया गया हो । यहाँ ताड़ वृक्षों की आकृति के साथ एक छोटा सा नन्दी भी मिला है । ये नाग राजाओं के राजचिन्ह थे और राजचिन्हनों का उपयोग राजसभा जैसी जगह पर ही संभव है । नाग राजाशिव , विष्णु और सूर्य के उपासक रहे, अतः राजसभा में अपने-अपने इष्टदेवों की मूर्तियों का उपयोग किया गया है ।

एक गीत नृत्य की मूर्ति भी यहाँ मिली है। जो साहित्यकारों को एक अलग ही प्रकार से सोचने के लिए विवश कर देती है । आप इस मूर्ति को ध्यान से देखें तो लगता है कि यह इमारत न विष्णु मंदिर है, नाशिव मंदिर और ना ही कोई राजसभा, वल्कि यह तो एक नाट्यमंच ही खुदाई में निकला है । इस नाट्यमंच को सजाने के लिए ही इन मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा । जो राजचिन्ह मिले हैं, उससे लगता है कि राजा महाराजा यहाँ बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे । इस मंच के ऊपर एक चबूतरा है, उस पर बैठकर जो हो सकता है वह एक गीत नृत्य की मूर्ति से स्पष्ट हो जाता है । इस मूर्ति में छत्रधारिणी विदुषी नारी बैठी है, नर्तकी नृत्य कर रही है तथा वाद्य बजाने वाले अपने-अपने वाद्यों को बजाने में निमग्न है । सामने जो उससे नीचे चबूतरा है, जो एक सवा मीटर ही नीचा होगा, वहाँ राजसभा के सभी लोग बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे । उससे नीचे के चबूतरे का उपयोग सेना प्रमुखों और उससे नीचे वाले का उपयोग नगर के सेठ साहूकारों द्वारा किया जाता होगा । जन साधारण को धरती से ही इसका आनन्द लेना पड़ता होगा ।

भवभूति के नाटक कालप्रियानाथ के यात्रा-उत्सव में यहीं खेले गये हैं । (6)इसे इस मूर्ति के आधार पर नकारा नहीं जा सकता ।

मालतीमाधवम् में सिन्ध नदी और पारा नदी के संगम पर मालती को स्नान करते हुए प्रस्तुत किया जाना, इस कृति में इन सभी नदियों का वर्णन, स्वर्ण बिन्दु का वर्णन, श्रीपर्वत का वर्णन इत्यादि से सिद्ध होता है कि यह नाटक यहीं खेला गया होगा । यदि धूमेश्वरमंदिर को कालप्रियानाथ का मंदिर माना जाये तो यह नाट्यमंच मेले के अवसर पर मंदिर से अधिक दूर भी नहीं है और मेले से हटकर नदी के पास बना हुआ है। जिससे शांति के वातावरण में इसका मंचन किया जा सके । इस क्षेत्र में नटों का बाहुल्य था । भवभूति ने स्वयं मालती माधवम् नाटक में कामन्दकी का अभिनय किया है नटों के साथ उनके मित्रता के संबंध थे, उन्होंने इसका अभिनय ही नहीं किया बल्कि नटों को इसके अभिनय का ज्ञान भी दिया था, उन्हें पढ़ाया लिखाया भी था । अतः भवभूति अकेले नाटक लेखक ही नहीं बल्कि अभिनेता और निर्देशक सभी कुछ थे, मालतीमाधवम् नाटक इसी पात्र कामन्दकी के इर्द-गिर्द ही है । आज इस स्तर का कोई निर्देशक नहीं हो सकता जो स्वयं नाटक लिखे पात्र बनकर अभिनय करे, साथ-साथ निर्देशन का कार्य भी पूर्वक सम्पन्न करे । यह तो भवभूति जैसे विद्वान द्वारा ही संभव है ।

अब हम उस स्थान पर आप सभी का ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे, जहाँ सिंध और पारा नदी का संगम है । यहीं मालतीमाधवम् में मालती के स्नान करने का वर्णित किया गया है । यहीं पद्मावती का ध्वस्त किला बना हुआ है । कहते हैं कि यह एक प्राचीन किला है, राजा नल से भी इसका संबंध रहा है तथा नरवर के कुशवाह राजाओं के द्वारा बनाया हुआ है यह किला । पिछले कुछ दिनों तक इसके अवशेष जीवित रहे हैं ।

यहाँ जो सिक्के मिलते हैं वे कई शताब्दियों के हैं । इस किले से नदी तक पक्की सीढ़ी बनी है, जिस पर लोग बैठकर स्नान करते होंगे । सीढ़ियाँ मिट्टी से दब गई हैं । आज भी ऐसा लगता है कि मालती यहाँ स्नान करके अभी ही गई है ।

यहाँ से 3-4 किमी. की दूरी पर एक स्वर्ण बिन्दु है । यह स्थान सिन्ध और महुअर नदी के संगम पर स्थित है । एक चबूतरे परशिव लिंग मिला है । मालतीमाधवम् नाटक में इस स्वर्ण बिन्दु परशिव लिंग का वर्णन है, चबूतरा तो पत्थर और चूने का बना है, ईंटे पद्मावती से मिलती-जुलती हैं । यहाँ काशिव लिंग बहुत प्राचीन प्रतीत होता है । इस चबूतरे के नीचे ही एक माँ-बेटे की मूर्तियों के निम्न भाग हैं । बालक एक मंच पर बैठा है, स्त्री की पायल को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह गुप्तकाल के समय की बात रही होगी । मालतीमाधवम् के वर्णन के आधार पर यही स्वर्ण बिन्दु है। यह स्थल सोनागिरि के मन्दिरों से तीन-चार किमी0 की दूरी पर है ।

भीतर-बाहर आने-जाने का मुख्यमार्ग वर्तमान में स्थित भितरवार बस्ती से था, जो आज भी अपने वैभव की कहानी कह रहा है । पद्मावती की सुन्दरता, प्राकृतिक नैसर्गिकता, ऐतिहासिक-तथ्य तथा साहित्य का संगम इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की अनन्त संभावनाएँ अपने में समेटे है ।

इस तरह बचपन से ही मेरी दृष्टि पद्मावती नगरी के इतिहास पर गहराती चली गई। भवभूति कालिदास के परवर्ती महाकवि हैं। महाकवि बाण भवभूति से पहले हो चुके थे। भवभूति ने कहीं-कहीं बाण की भाषा को आदर्श मानकर उसका अनुसरण किया है। मालती-माधवम् के नवम् एवं दशम अंकों पर कादम्बरी का प्रभाव भी दिखाई देता है।

कल्हण के अनुसार ललितादित्य का समय 693 ई. से 736 ई. तक था । भवभूति कान्यकुब्ज के राजा यशोवर्मा के आश्रित थे। यशोवर्मा को कश्मीर नरेश ललितादित्य ने पराजित किया था । राजतरंगिणी के अनुसार राजाधिराज यशोवर्मा के राजकवि वाक्पतिराज ने अपने प्राकृत काव्य ‘गउडवहों‘ में एक सूर्यग्रहण का वर्णन किया है । जिसके दसूरे दिन महाराज ललितादित्य द्वारा यशोवर्मा पराजित किए गए थे । डॉं0 याकोवी की गणना के अनुसार इस ग्रहण की तिथि 14 अगस्त 733 ई. है । अतः यशोवर्मा के पराजित होने की तिथि 15 अगस्त 733 ई. हुई । उस समय भवभूति और वाक्पतिराज दोनों ही यशोवर्मा के आश्रय में थे । वाक्पतिराज ने भवभूति के संबंध में अपने ग्रन्थ गउडवहो में जो पद्य लिखा है, उससे सिद्ध होता है कि, इस ग्रन्थ की रचना से पूर्व भवभूति अपनी कृतियों का सृजन कर चुके थे । उपर्युक्त सूर्यग्रहण के वर्णन से यह निश्चित हो जाता है कि इस ग्रन्थ की रचना 15 अगस्त 733 ई0 के बाद हुई है । गउडवहो में यशोवर्मा की गौड़ विजय का वर्णन किया गया है, इससे पूर्व भवभूति अपने नाटक लिख चुके थे । कवि राजशेखर ने स्वंय को भवभूति का अवतार घोषित करने में गौरव का अनुभव किया है । राजशेखर का समय दशम शताब्दी का पूर्वाद्ध माना जाता है ।

अतः भवभूति का काल सप्तम शताब्दी के अंतिम चरण से अष्टम शताब्दी के पूर्वाद्ध तक निश्चिित किया गया है ।

मराठी और हिन्दी में प्रकाशित म.म.डॉ0 मिराशी का भवभूति के ऐतिहासिक पक्ष पर जोर देने वाला प्रामाणिक ग्रन्थ है, उसी के अनुसार ‘‘भवभूति राजाश्रय अथवा लोकाश्रय के लिए उत्तर भारत में पद्मावती कन्नौज आदि स्थानों की ओर चले गये होंगे।‘‘ उनके तीनों नाटकों की प्रस्तावना से स्पश्ट संकेत मिलता है कि उनका प्रथम अभिनय कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव में किया गया होगा ।

यदि उन दिनों भवभूति किसी राजा के आश्रय में होते तो उनके नाटक राजकीय नाट्यमंच पर प्रदर्शित किये जाते । भवभूति ने कहीं भी किसी राजसभा, राजाप्रसाद, राजसी ठाटबाट या राजकीय आचार व्यवहार का वर्णन नहीं किया है । यदि उन्हें किसी का आश्रय प्राप्त हुआ होता तो वे अपने लेखन में उसका उल्लेख अवश्य ही करते, परन्तु कल्हण की राजतरंगिणी (7)को अप्रामाणिक ग्रन्थ भी नहीं माना जा सकता । अतः यशोवर्मा की राजसभा में राजकवि वाक्पतिराज और महाकवि भवभूति की उपस्थिति इसका प्रमाण है । महाराज यशोवर्मा के कानों में भवभूति की कीर्ति पहँुची होगी और उन्होंने आदर के साथ उन्हें पद्मावती से कन्नौज बुलाकर अपनी राजसभा में सम्माननीय स्थान प्रदान किया होगा । कश्मीर नरेश राजाधिराज ललितादित्य भी विद्धानों का आदर करते थे । उसकी राजसभा में भी बहुत से विद्वान थे । जब यशोवर्मा उनसे हार गया तो वे भवभूति जैसे विद्वान को अपने साथ कश्मीर लेकर आये थे

मालतीमाधवम् के नवम् अंक में किए गये वर्णन से निश्चित हो जाता है कि भवभूति ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष इसी पद्मावती नगरी में व्यतीत किए हैं । यहीं रहकर उन्होंने महावीरचरितम् मालतीमाधवम् तथा उत्तररामचरितम् नाटक लिखे हैं, जो कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है । इसके अलावा आप लोगों को मेरी यह बात जानकर आश्चर्य होगा कि पद्मावती नगरी की परिधि में अपने वाली बस्ती गिरजोर (गिजौर्रा) में च्यवन ऋशि की तपोभूमि के पास विश्वामित्र की यज्ञभूमि की खड़िया (खाड़ी) है । आप लोगों को ज्ञात होना ही चाहिए कि महावीरचरितम् का प्रारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से किया गया है । इन तथ्यों को साथ-साथ रखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि महावीरचरितम् की रचना निश्चिय ही इसी भूभाग की देन है ।

मालती माधवम् में सिन्ध और पारा नदी तथा लवणा अर्थात् नोंन नदी का मनोहारी वर्णन किया है ।(8) इसके अलावा मधुमती जिसे आज हम महुअर नदी के रूप में जानते हैं । स्वर्ण बिन्दु एवं श्रीपर्वत के मनमोहक वर्णन से स्पष्ट हो जाता हे कि भवभूति का पद्मावती नगरी से गहरा अनुराग रहा है ।

यों इतिहासकारों एवं साहित्यकारों को पदमावती नगरी में शोध की अनन्त सम्भावनायें हैं।

सन्दर्भ-

(1) पद्मावती -डॉं0 मोहनलाल शर्मा, पृश्ठ-66-5.6 मुस्लिम मकबरे।

(2) पद्मावती के धूमेश्वरमन्दिर में स्थित शिलालेख। शिलालेख

(3) पद्मावती नगरी में स्थित पाँच मुस्लिम मकबरे।

(4) पद्मावती नगरी में सिन्धुनदी में स्थित नोंचौकिया(नाचंकी)।

(5) पद्मावती -डॉं0 मोहनलाल शर्मा , पृ. 63।

(6) भवभूति के तीनों नाटकें की भूमिका से।

(7) कल्हण की राजतरंगिणी।

(8) भवभूति कृत मालती माधवम् के नवम् अंक से।

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