महाकवि भवभूति के कालप्रियनाथ रामगोपाल तिवारी द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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महाकवि भवभूति के कालप्रियनाथ

महाकवि भवभूति के कालप्रियनाथ

जीवानन्द नामक विद्वान ने ‘कालस्य(महादेव) प्रिया (पार्वती) कालप्रिया तस्याः नाथः कालप्रियनाथ’ ऐसी व्युत्पति को ध्यान में रखकर इस शब्द का अर्थ महादेव किया है। उन्होंने यह भी बतलाया है कि विर्दभ के पद्मपुर नगर में जो कि भवभूति का जन्म स्थान है, किसी देवमूर्ति विशेष का नाम कालप्रियनाथ है।

डॉ.एस.राय ने उज्जयिनी में इसे न मानकर कालपी में इसकी स्थिति मानने का सुझाव दिया है। मालती माधवम् के प्राचीनतम टीकाकार जगद्धर ने इसे उज्जयिनी और कालपी दोनों से मुक्ति देकर पद्मपुर स्थित महादेव की ओर संकेत किया है। कालप्रियनाथ से संस्कृत के विद्वान सूर्य से इसका सम्बन्ध जोड़ते रहे हैं। मालतीमाधवम् में आनर्त प्रदेश अर्थात देश के मध्य भाग में इसके स्थित होने की सूचना दी है।

कालप्रियनाथस्य सकलजगदेव चक्षुषो विश्वात्मनः सूर्यस्य पुरतः।

यह वाक्य सूर्य से सम्बन्ध जोड़ने में सफल है। इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुये मैं आप सब का ध्यान उस स्थान की ओर ले जाना चाहूँगा जहाँ भवभूति की कर्मस्थली रही है। भवभूति विर्दभ देश में स्थित पद्मपुर नामक अपने जन्म स्थान से व्याकरण, मीमांसा और न्यायशास्त्र का अध्ययन करने के लिये ज्ञाननिधि की खोज में पदमावती नगरी में आये थे। यह स्थान उनके मन को इतना भा गया कि उन्हों ने इसे अपनी कर्मस्थली के रूप् में स्वीकार कर लिया। यहीं बैठकर उन्होंने महावीर चरितम्, मालती माधवम् और उत्तर राम चरितम् की रचना की है। यहाँ यह प्रश्न आकर खड़ा होजाता है कि हम कैसे कह सकते हैं कि उन्होंने अपने ग्रंथों की रचना यहीं बैठकर की है।

आज पदमावती नगरी का निर्णय हो चुका है। मालती माधवम् के नवम अंक तो इस धरा की कहानी मुक्त कण्ठ से कहने में सफल रहा है। यहाँ सिन्ध और पारा नदी का संगम, लवणा अर्थात् नोन नदी का मनोहारी वर्णन,स्वर्ण बिन्दु एवं महुअर और सिन्ध नदी का संगम आदि से स्पष्ट होजाता है कि इस सीमा रेखा से पदमावती नगरी के मानचित्र पर कालप्रियनाथ का अवलोकन करना सहज होगया है।

पदमावती की परिधि में आने वाली बस्ती गिजौर्रा में च्यवन ऋषि की तपोभूमि के पास विश्वामित्र की यज्ञशाला तथा उसकी जलमग्न खाड़ी को आज भी देखा जा सकता है। आप सभी को ज्ञात है कि महावीर चरितम् का प्रारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से किया गया है। इन तथ्यों को साथ-साथ रखने पर निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने महावीर चरितम्, मालती माधवम् और उत्तरराम चरितम् की रचना यहीं बैठकर की है। इसी कारण वे पदमावती नगरी के परिक्षेत्र का मनोहारी वर्णन करने में सफल रहे हैं।

अथ खलु भगवतः कालप्रियनाथस्य यात्रायामार्यमिश्रान् विज्ञापयामि

अब यहाँ यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव में पदमावती की धरती पर बैठकर लिखे गये नाट्यग्रंथों के अभिनय की कहीं दूर स्थित स्थान की बात नहीं कही होगी। जिस स्थान पर बैठकर ये नाटक लिखे गये हैं वहीं उनका मंचन भी किया गया होगा। महाकवि भवभूति ने इसी कारण अपनी प्रत्येक कृति के प्रारम्भ में कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव में इनके मंचन को स्वीकार किया है।

तपस्वी कां गतौऽवस्थामिति स्मेराननाविव।

गिरिजायाः कुचौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।।8।।

महाकवि भवभूति के प्रचलित तीनों नाटकों की प्रस्तावना से स्पष्ट है कि महाकवि को भवभूति की उपाधि इन तीनों नाटकों के लिखने के पूर्व ही मिल चुकी थी। उन्हें यह उपाधि उपर्युक्त इस श्लोक के आधार पर दे दी गई होगी। सम्भव है कि भवभूति श्रंगार रस से परिपूर्ण किसी महाकाव्य की रचना की होगी जिसके प्रारम्भ के श्लोकों में यह श्लोक समाहित होगा। महाकवि भवभूति ने अपने किसी ग्रंथ का प्रारम्भ कालप्रिया अर्थात पार्वती की वन्दना से किया है किन्तु जो वस्तु लुप्त है उससे आपको अभिप्राय जोड़ना न्याय संगत नहीं लग रहा होगा। इस पद्य से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि इसके कारण ही भवभूति को इस उपाधि से सम्मानित किया गया होगा।

जिसकी वन्दना के कारण महाकवि को भवभूति की उपाधि प्राप्त हुई हो, अपने ग्रंथों का मंचन उन्हीं देवता के यात्रोत्सव मेंकरना उन्हें उचित लगा होगा अन्य किसी देव के यात्रोत्सव में नहीं। पदमावती नगरी के परिक्षेत्र में प्राचीन काल सेशिव रात्रि के अवसर पर ऐसे उत्सवों का चलन रहा है। आज भी रामेश्वर धाम में इस तरह के यात्रोत्सव के दर्शन श्रावण मास में किये जा सकते हैं।

काशी विश्वनाथ, बाबा बैजनाथ, अमरनाथ धाम, केदारनाथ तथा पशुपतिनाथ इत्यादि अनेकोंशिवालयों के नाम कालप्रियनाथ की तरह नाथ शब्द से जुड़े हैं। अतः इस अवधारणा से कालप्रियनाथ का अर्थ भगवान शंकर ही है। मालती माधवम् के नवम अंक में-अयं च मधुमति सिन्धु संभेदपावनो भगवन्भावन् पतिरपौरुषेय प्रतिष्ठाः सुवर्णबिन्दुरित्याख्यायते। इस वाक्य में भगवन्भावनीपति शब्द का अर्थ साम्य कालप्रियनाथ में भाषित होता है।

वर्तमान में यहाँ स्थित धूमेश्वरका मन्दिर ही कालप्रियनाथ के बदले हुये रूप की स्मृति कराता है। ओरछा नरेश वृषंगदेव(वीरसिंह जू देव) को यहाँ मन्दिर बनवाने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? वर्तमान में यहाँ स्थित भव्य मकबरे इस बात की गवाह देने में सफल हैं कि यहाँ कभी मुस्लिम शासको का वर्चस्व रहा है। प्रश्न उठता है क्या मुस्लिम शासकों ने कालप्रियनाथ के मन्दिर को यथावत् रहने दिया होगा। निश्चय ही उसका रूप भी बदला ही होगा।

आज इस मन्दिर को दो भागों में देखा जा सकता है। एक प्र वेश कक्ष दूसरा गर्भग्रह। प्र वेश कक्ष तो निश्चय ही ओरछा नरेश की वास्तुकला का नमूना है,किन्तु इससे गर्भ ग्रह की प्राचीनता छिपी नहीं है। यहाँ स्थित जलप्रपात से उठता हुआ धुआँ, सम्भव है इसी आधार पर ओरछा नरेश ने इसका नाम धूमेश्वररखना उचित समझा हो। वर्तमान में स्थितशिव लिंग ओरछा नरेश द्वारा प्रतिस्थापित है। यहाँ के लोगों का कहना है कि कालप्रियनाथ काशिव लिंग तो यहीं खेतों में अभी भी खण्डित अवस्था में पड़ा है।

इस मंदिर के गर्भग्रह की दीवार पर दोनों ओर अरबी, फारसी के शिलालेख आज भी उपस्थ्ति हैं। जिन्हें पढ़ कर व्याख्यायित किए जाने की आवश्यकता है, तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि यह मंदिर क्यों और कैसे बनवाया गया है? वर्ष 1999 में मध्यप्रदेश संस्कृत अकादेमी द्वारा आयोजित ‘भवभूति समारोह’ में मुम्बई से पधारे वरिष्ठ संस्कृत मनीषी पं. गुलाम दस्तगीर से इसे पढ़वाने का प्रयास किया है। वे एक शब्द ‘अल्लाह’ ही पढ़ पाने में सफल रहे। प्रश्न उठता है िकइस हिन्दू मन्दिर में इस अरबी, फारसी की इबारत का क्या औचित्य हो सकता है? क्या ओरछा नरेश की इा इबारत पर दृष्टि नहीं पड़ी होगी। यदि दृष्टि पड़ी है तो उन्होंने इस इबारत को क्यों रहने दिया। निश्चय ही वे हमारे लिये इतिहास का पन्ना छोड़ गये हैं। सम्भव है इन आलेखों पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ी हो और यह शिलालेखछिपे रह गये हों। जो भी हो इन्हें शीध्र पढ़ने की आवश्यकता है।

यहाँ कोर नारायण की एक प्रसिद्ध पहाड़ी थी। जिसकी खुदाई में एक चौकोर तीन मंजिल वाला स्मारक प्राप्त हुआ है। कुछ लोग इसे विष्णु मन्दिर का नाम देते हैं। कुछ इसे नाटयमंच मानते हैं। इसके आसपास कुछ मृण्यमूर्तियाँ भी मिली हैं, जो इसके राजसभा होने की सूचना देने में सफल है। सभी इसे अलग-अलग दृष्टि से देखने में लगे हैं किन्तु ग्वालियर के डॉ0 कमल बशिष्ठ जैसे नाटय मनीषी इसे नाटय मंच ही मान कर चल रहे हैं।

अपने उपन्यास भवभूति में इसे नाटयमंच सिद्ध कर चुका हूँ। भगवान कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव के समय यहाँ रात्रि पड़ाव रहा करता था। इसी कारण इसें मन्दिर कह देना गलत नहीं होगा, किन्तु रात्री के समय यहीं महाकवि भवभूति के नाटकों का मंचन भी होता था। राजा को मंच के ऊपर ही बैठने की व्यवस्था रहती थी। उससे नीचे की सतह पर रक्षकों को रहना पड़ता था। उससे नीचे की सातह पर नगर के सेठ साहूकारों के बैठने का स्थान होगा जिससे वे आम जनता से अपने अहम् को पोषित करते रहें। आम जनता को तो मंच के नीचे धरती से ही खड़े-खड़े मंचन का आनन्द लेना पड़ता होगा्र्र्र। इस आधार पर निश्चय ही इस मंच का उपयोग कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव में किया जाता था।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यह घूमेश्वर का मन्दिर ही भगवान कालप्रियनाथ का प्राचीन स्मारक है।

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