भवभूति की एक और नाट्य कृति
वर्तमान में भवभूति की तीन कृतियाँ उपलब्ध हैं। पहला महावीरचरितम्, दूसरा मालतीमाधवम् तथा तीसरा उत्तररामचितम्। इनके अतिरिक्त ‘भवभूति के नाटक’ डॉ0 ब्रज वल्लभ शर्मा की कृति से शाड़्र्गंधर पद्धति तथा सदुक्तिकर्णामृत में संग्रहीत कुछ सुभाषित पद्य भवभूति के नाम से मिले हैं, जो श्रृंगाररस से परिपूर्ण होने के साथ-साथ पारिवारिक जीवन तथा ग्रामीण जीवन का सुन्दर चित्र अंकित करते हैं।
इन्हें भवभूति कृत मानने का आधार यही है कि ये पद्य भवभूति के नाम से शाड़्र्गंधर पद्धति ,सदुक्तिकर्णामृत तथा गदाधर भट्ट रसिक जीवन से उद्धृत किये हैं।
इन पद्यों की भावानुभूतियों से स्पष्ट हैं कि भवभूति ने अन्य कोई काव्य अथवा नाटक आदि भी अवश्य ही लिखे होंगे, जो आज हमें अप्राप्य है।
किं चन्द्रमाः प्रत्युपकार लिप्तसया करोति गोत्रिः कुमुदावबोधनम्।
स्वभाव एवावेन्नतचेतसां परोपकाव्यसन हि जीवितम्।।
गदाधर भट्ट रसिक जीवन,3ः95-
जैसे चन्द्रमा रात्रि में कुमुदिनी को अपनी किरणों की शीतलता के प्रभाव से प्रफुल्लित करता है और जब तक रात्रि में चन्द्रमा की किरणे प्रसरित होती रहती हैं तब तक कुमुदिनी भी प्रफुल्लित सी लगती है। इस प्रकार चन्द्रमा समिष्ट एवं व्यष्टि रूप में मन का नियंत्रणकर्ता, शुद्धभाव को प्रकाशित करने वाला, प्रत्युपकार न चाहते हुये सारी सृष्टि को अपनी परोपकार की भावना से सबका कल्याण करता है। उसका यह परोपकारी जीवन सहज सरल एवं स्वभावतः ही है। इसी प्रकार महापुरुषों का जीवन परोपकार के लिये ही होता है।
कवि के अनुसार प्रकृति की प्रफुल्लिता दर्शाने के लिये रात्रि में चन्द्रमा कुमुदिनी को अपनी किरणों से शीतलता प्रदान करता है। इसमें नाटकियता की आभा स्पष्ट रूप् से भाषित हो रही है। लग रहा है किसी नये काव्य नाटक के प्रारम्भ में उन्होंने यह पद्य लिखा होगा।
कवि को नाटक में प्रकृति वर्णन की उतनी छूट नहीं रहती जितनी काव्य में। उपरोक्त पद्य में प्रकृति का ऐसा चित्र उपस्थित किया है कि इसे वारम्वार पढ़ने को मन करता है।
यह उपदेशात्मक श्लोक नये सृजन की उद्घोषणा है। लग रहा है कवि ने इसे किसी निश्चित भावभूमि के लिये प्रयुक्त किया है।
और इस पद्य में-
दैवाद्यदि तुल्योभूद् भूतेशस्य परिग्रहः।
तथापि किं कपालानि तुलां यान्ति कालनिधेः।
शाड़्र्गंधर पद्धति,749-
अर्थात- शंकर जी के मस्तक पर चन्द्रमा, उनकी आभा को प्रकट करता है। इससे प्राणियों में अतिसुन्दर महादेव के समान कोई वस्तु ग्रहण करने के योग्य नहीं है। चन्द्रमा की कलाओं से शंकर जी के मस्तक की शोभा हैं, उसी प्रकार शंकर जी से देवताओं की शोभा है।
भवभूति ने अपने तीनों नाटकों के प्रारम्भ में श्री राम अथवा शंकर जी की स्तुति की हैं। यह भी किसी अन्य नाटक के प्रारम्भ की स्तुति ही लगती है। सम्भव है उन्होंने इस बन्दना से उस कृति का प्रारम्भ किया हो।
ऐसे विचार चित्त में उभर रहे थे कि भवभूति का यह श्लोक सामने था-
अलि पटलैनुयातां सहृदयहृदय ज्वैरं विलम्पन्तीम्।
मृगमदपरिमललहरीं समीर पामरपुर किरसि।।
शाड़्र्गंधर पद्धति,791
अर्थात- हिरण की नाभि से निस्सृत गंध से, हवा के झोंकों में झूमती हुई भौरों की पंक्ति सुवह की इच्छा रखने वालों के हृदय की पीड़ा को शान्त करती है।
नाटकों के प्रकृति वर्णन में झरनों ,नदियों ,सुगन्धित पुष्पों एवं पशु-पक्षियों के,वर्णन उनकी प्रत्येक कृति में देखने को मिल जाते हैं। यह तो स्पष्ट रूप से महाकवि की कोई नवीन रचना का अंश अनुभव में आ रहा है।
निस्सारकरघातविदीर्णध्वान्तदन्तरूधिकारूण मूर्तिः।
केसरीव कटकादुयादटेरड़्.कलीनहरिणो हरिणाड्.कः।।
सदुक्तिकर्णामृत1ः80ः2
जिस प्रकार मुख के अन्दर तीव्र धार वाले प्रहारक दातों के मध्य में सब तरह के रसों से परिपूर्ण जिह्वा सुरक्षित रहती है उसी प्रकार भगवान की गोद में अपने को लीन करने वाले विघ्नों से सुरक्षित रहते हैं।
यह तो किसी संघर्ष कथा के अंश के साथ ,भक्तों को संदेश भी है, इसमें संदेह नहीं।
और ताप से दग्ध जीवों को अमृत कल्पवृक्ष के समान इच्छा पूर्ण कर देता है। इस भावभूमि का यह श्लोक-
भुवां धर्मरम्भे पवनचलितं तापहतये
पटच्छात्राकारं वहति गगनं धूलिपटलम्।
अमी मन्दाराणां दवदहनसन्देहितधियो
न ढौकन्तेपातुं झटिति मकरन्दं मधुलिहः।
सदुक्तिकर्णामृत2ः157ः1
पृथ्वी गंध गुण वाली है और वायु उसकी गन्ध को प्रसारित करने वाली है। वही वायु सुगन्धित शीतल होने पर अपने गुण से पृथ्वी के ताप के दोषों को नष्ट करती है। वही वायु रजकणों को आकाश में ले जाकर आच्छादित कर देती है। भ्रमरों को प्रिय लगने वाले पराग से परिपूर्ण वायु को आकाश में आच्छादित कर सारे वायुमण्डल को सुखप्रद बना देती है। ताप से दग्ध जीवों को अमृत कल्पवृक्ष के समान इच्छा पूर्ण कर देती है।
इसका अर्थ यह हुआ कि पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले सुगन्धित पुष्पों की गन्ध को वायु अपने गुण से सुगन्धित कर देती है। उसी प्रकार महापुरूषों के चरित्र, आदर्श एवं जीवन वायु की तरह संसार में प्रसारित होकर सबको सुख प्रदान करते हैं।
निश्चय ही महाकवि भवभूति की इन तीन कृतियों के अतिरिक्त चौथी कृति होनी ही चाहिये। महाकवि भवभूति कितनी गहरी भावनुभूतियों वाले शब्द शिल्पी हैं। आज इस धरती पर उनसा कोई दूसरा नहीं है।
अब उनके इस श्लोक पर दृष्टि डालें--
लघुनि तृणकुट्टीरेक्षेत्रेकोणे यवानां
नवकमलपलास्त्रस्तरे सोपधाने।
परिहरति सुषुप्तं हालिकद्वन्द्वमारात्
स्तनकलशमहोमाबद्धरेखस्तुषारः।।
सदुक्तिकर्णामृत 2ः171ः1
महापुरूष स्त्री के सौन्दर्य आदि गुण-दोषों एवं सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से परे होकर छोटी कुटीर में केवल जौं आदि धान्य पदार्थों का सेवन करके सुखी रहते हैं। जिस तरह कमल जल के मध्य में हमेशा रहते हुये स्निग्धता के कारण जल के गीलेपन से मुक्त रहता है, वैसे ही महापुरूष सांसारिक प्रपंचों से मुक्त रहते हैं।
वैकुण्ठस्य करड्.कनिहितं स्रष्टं कपालं करे
प्रत्यड्.गं च विभूषणं विरचितं नाकौकसां कीकसैः।
यस्य स्थावरजड्.गमस्य जगतः शुभ्र तनौ विभ्रतः
कल्पान्तेषु कपालिनो विजयते रोद्रं कपालव्रतम्।
सदुक्तिकर्णामृत 1ः18ः3
सृष्टि प्रलयकाल के समय शंकर जी के तामसी गुण से जड़-चेतन अर्थात् सारी सृष्टि नष्ट होकर महामाया के रूप में बदल जाती है। किन्तु जो बैकुण्ठनाथ भगवान के चरणकमलों का कागभुशुण्ड की तरह आश्रय लेकर रहते हैं वे उससे मुक्त रहते हैं।
महाकवि ने सृष्टि प्रलयकाल के समय के प्रतीक का सहारा लेकर इन पद्यों के माध्यम से प्राणियों को भक्ति का सुन्दर संदेश प्रसारित कर दिया है। निश्चय ही यह तो किसी नाटक का अंश है। काश! ऐसी कृति हमारे सामने होती।
उनके द्वारा प्रतीकों के माध्यम से कितनी गहरी बात मुखरित हो गई कि हम सब स्तब्ध हैं। ’
भवभूति की इस रचना में -
गाढग्रन्थिप्रुफुल्लद्गलविफलफणापीठनिर्यद्विषाग्नि-
ज्वालानिष्ठप्तचन्द्रद्रवदमृतरसप्रेषित प्रेतभावाः।
उज्जृम्भा वभ्रुनेत्रद्युतिमसकृदसृक्तष्णयालोकयन्त्यः
पान्तु त्वां नागनालग्रथितशवशिराः श्रेणयो भैरवस्य।।
सदुक्तिकर्णामृत 1ः13ः2
अर्थात- नाग के फन के पृष्ठ पर बसे अग्नि की पूर्ण ज्वाला के निकलने पर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से जिस प्रकार शान्ति मिलती है। सर्प की केंचुली सर्प आकार की नाल की तरह भय दिखाने वाली होती है। उसी तरह स्त्री के जम्हाई लेने पर आँख की भौहें स्वभावतः चढ़ जाने पर, नई आभा पैदा करती है। अर्थात् जिस तरह स्त्री भ्रकुटि चढ़ जाने पर क्रोध या भय की आशंका उत्पन्न करती है, उसी प्रकार सर्प के शरीर पर प्राप्त केंचुली सर्प के समान भय को प्रकट करती है।
इससे हमारे सामने क्रोधित नारी का वास्तविक चित्र उभर कर सामने आ जाता है। क्रोधित नारी की तुलना में कितना सटीक पर्याय प्रस्तुत किया है। इसमें जो कथ्य प्रस्तुत किया गया है, इससे लगता हैं महाकवि ने किसी नाटक के कथ्य को स्पष्ट करने के लिये इसका प्रयोग किया है। मालतीमाधवम् के समान ही संभवतः इस नये नाटक में इस पद्य का प्रयोग उनके द्वारा कथ्य की तरह किया होगा।
भवभूति के इस अपाप्य नाटक की कल्पना की पुष्टि शाड़्र्गंधर पद्धति, के इस श्लोक से स्पष्ट होजाती है।
निरवद्यानि पद्यानि यदि नाट्यस्य का क्षतिः।
भिक्षकक्षानिविक्षिप्तः किर्मिक्षुर्नीरसो भवेत्।।
शाड़्र्गंधर पद्धति,146
अर्थात- काव्य के पाद आदि दोषों से नाटक को कोई क्षति नहीं होती, जैसे भिखरी के नेत्रहीन होने पर क्या गन्ना स्वाद विहीन हो सकता है। अर्थात् पाद विहीन काव्य से नाटक को कोई क्षति नहीं होती है। क्योंकि नाटक में महत्वपूर्ण होता है कथ्य। यदि कहीं कथ्य में व्यावधान आ गया तो नाटक को हानि हो सकती है।
भवभूति ऐसे कैसे नाटक की रचना कर रहे हैं? जिसमें ऐसे काव्य की प्रस्तुति की कल्पना सजों रहे हैं। कैसा होगा वह काव्य एवं कैसा होगा वह नाटक ?
उषसि गुरूसमीपं लज्जमाना मृगाक्षी
रतिरूप्तमनुकर्तु राजकीरे प्रवृत्ते।
तियति शिशुलीलानर्तनच्छद्मताल-
प्रबलवयलयमालास्फाल कोलाहलेन।।
सदुक्तिकर्णामृत 2ः141ः4
अर्थात- ‘हिरण के नैत्रों के समान नैत्र वाली स्त्री अपने गुरु से नाट्य नर्तन कला को सीखकर अपनी कला को प्रदर्शित करती हुई लज्जावान होकर अपनी कला की सौन्दर्यता को बढ़ाती है और अनेक प्रकार की लीलाओं का प्रदर्शन करती हुई तालगति में मग्न रहकर दर्शकों की भावना की गूंज में (कोलाहल में) बाल-लीला की तरह आमोद-प्रमोद को प्रदान करती है।
महाकवि भवभूति अपने तीनों नाटकों में अनेक स्थलों पर प्रकृति का चित्रण किया है। ऐसे ही उनके इन पद्यों में प्रकृति की आभा अनुभव की जा सकती है।
मालती माधवम् श्रंगार रस से परिपूर्ण रचना है। उपरोक्त सभी पद्यों में भी मर्यादित श्रंगार ,परोपकार एवं आध्यात्म की छटा भाषित हो रही है। साथ ही मैं यह कहना चाहता हूँ कि महाकवि भवभूति ने किसी राजाश्रय की बात स्वीकार नहीं की है, किन्तु कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार वे कन्नौज नरेश यशोवर्मा एवं कश्मीर नरेश महाराज ललितादित्य के वे सम्पर्क में आये थे। उन्होंने उनके राजदरवार में मर्यादित श्रंगार,परोपकार एवं आध्यात्म से परिपूर्ण स्वतंत्र पद्य ही प्रस्तुत किये हांेगे। सम्भव है ये पद्य उसी समय के रहे हों।
यहाँ पाठकों को अनुभव हो गया कि महाकवि ने सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति का उपाय प्रतीकों के माध्यम से कितनी सहजता से प्रस्तुत किया है।
का तपस्वी गतोवस्थामिति स्मेराविन स्तनौ।
वन्दे गौरीधनाश्लेषभवभूतिसिताननौ।
सदुक्तिकर्णामृत 1ः22ः4
पद्मावती के राजा के पिताश्री ने यही पद्य सुनकर उन्हें भवभूति की उपाधि से सम्मानित किया होगा। उसका यही भावार्थ तो था- गिरिजाशंकर का आश्रय लेने वाले भक्तों का तपोमय जीवन विश्व की विभूति बनकर रहता है। इसलिए गिरिजा माँ के दूध की वन्दन करता हूँ। जिस प्रकार माँ के स्तनों से निकला हुआ दूध बालक का पोषण करता है उसी प्रकार माँ गिरिजा मेरा पालन करती है।
महाकवि भवभूति के इसी भावार्थ का कुछ पाठान्तर के साथ एक यह पद्य भी है -
तपस्वी कां गतौऽवस्थामिति स्मेराननाविव।
गिरिजायाः कुचौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।।8।।
महाकवि भवभूति के प्रचलित तीनों नाटकों की प्रस्तावना से स्पष्ट है कि महाकवि को भवभूति की उपाधि इन तीनों नाटकों के लिखने के पूर्व ही मिल चुकी थी। उन्हें यह उपाधि उपर्युक्त इस श्लोक के आधार पर दे दी गई होगी। सम्भव है कि भवभूति श्रंगार रस से परिपूर्ण किसी महाकाव्य की रचना की होगी जिसके प्रारम्भ के श्लोकों में यह श्लोक समाहित होगा। महाकवि भवभूति ने अपने किसी ग्रंथ का प्रारम्भ कालप्रिया अर्थात पार्वती की वन्दना से किया है किन्तु जो वस्तु लुप्त है उससे आपको अभिप्राय जोड़ना न्याय संगत नहीं लग रहा होगा।
जिसकी वन्दना के कारण महाकवि को भवभूति की उपाधि प्राप्त हुई हो, अपने ग्रंथों का मंचन उन्हीं देवता के यात्रोत्सव में करना उन्हें उचित लगा होगा अन्य किसी देव के यात्रोत्सव में नहीं। पदमावती नगरी के परिक्षेत्र में प्राचीन काल से शिवरात्रि के अवसर पर ऐसे उत्सवों का चलन रहा है।
इन सभी श्लोकों में विभिन्न प्रकार के दृश्यों की कल्पना हमारे सामने उभर कर सामने आने लगती है, जो इस बात का प्रमाण है कि महाकवि भवभूति की इन तीन कृतियों के अतिरिक्त कोई और कृति भी होनी चाहिये। यों तीन कृतियों के अतिरिक्त कुछ फुटकर पद्य मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
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