अपने-अपने कारागृह - 17 Sudha Adesh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने कारागृह - 17

अपने-अपने कारागृह-17

दूसरे दिन उषा दिनेश जी और कमला जी के बारे में पता लगाने के लिए वृद्धाश्रम गई । मैनेजर को अपना परिचय देते हुए दिनेशजी और कमलाजी के बारे में पूछा तो मैनेजर रंजना ने कहा, ' हाँ, वे दोनों हफ्ते भर पूर्व ही आए हैं । आज से पूर्व ऐसा कपल मैंने नहीं देखा । बेटा, बहू कई बार उनसे घर चलने की मिन्नतें कर चुके हैं पर ये लोग जाना ही नहीं चाहते हैं । दिनेश जी अवश्य थोड़े उदास रहते हैं पर कमलाजी बेहद प्रसन्न हैं । अब आप उनके बारे में पूछने आई हैं ।'

मैनेजर रंजना उसे कमरा नंबर 15 में छोड़ गई । उसको देखकर कमलाजी ने कहा, ' अरे उषा तुम ,अंजना ने अब तुम्हें खुशामद करने के लिए भेजा है । उससे कह देना कि हम यहाँ बेहद खुश हैं । उसे चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।'

' आंटीजी घर जैसा आराम यहां कैसे मिल सकता है ?'

' घर ...उसे घर नहीं सराय कहो । मयंक को तो काम से ही फुर्सत नहीं मिलती है और अंजना को घूमने से ही समय नहीं मिलता है । हम बुड्ढे बुढ़िया मरे या जियें, किसे परवाह है । '

' आंटीजी उन्हें आपकी चिंता है तभी तो वे आपको अपने साथ ले जाने के लिए आ चुके हैं ।'

' अरे वह हमें इसलिए नहीं ले जाना चाहते कि उन्हें हमारी परवाह है वह सिर्फ इसलिए ले जाना चाहते हैं जिससे समाज में उनकी किरकिरी ना हो ।'

' आंटीजी, आप उन्हें गलत समझ रही हैं । आखिर वे आपके बेटा, बहू हैं ।'

' रहने दे, रहने दे । यह सब उनका दिखावा है । उन्हें हमारी परवाह है यह दिखाने के लिए ही उन्होंने तुझे भेजा है ।' कहकर कमला जी हंस पड़ी थीं ।

उनकी व्यंगात्मक हंसी उषा को चुभ रही थी । अंततः उसने दिनेश अंकल की ओर देखा वह शून्य में निहार रहे थे । उषा से रहा नहीं गया तो उसने कहा , ' अंकलजी, आप ही आंटीजी को समझाइए न ।'

उसका प्रश्न सुनकर दिनेश अंकल चौक उठे थे पर उत्तर आंटीजी ने दिया, ' वह क्या कहेंगे ? वह तो वही करते हैं, जो मैं कहती हूँ । मेरे घूमने का समय हो गया है , अब मैं चलती हूँ ।' कहकर कमला जी उठ कर चली गईं ।

कमला जी का उत्तर सुनकर कहने सुनने का कोई अर्थ ही नहीं था । अब तो सभी को उचित समय का इंतजार था शायद कभी वह अपने बहू बेटे की मनःस्थिति को समझ पायें । उषा वापस रंजना के आज गई ।

' वे लोग नहीं माने ।' रंजना ने पूछा ।

' नहीं...।'

' स्ट्रेंज कपल...।'

रंजना की बात सुनकर उषा चुप लगा गई ।

' अजीब बात है ,लोग तो यहां मजबूरी में आते हैं पर लगता है यह अपनी मर्जी से आए हैं शायद बहू बेटे से झगड़ा करके ।'उसे चुप देख कर रंजना ने पुनः कहा ।

' रंजना जी अगर इन्हें कभी कोई परेशानी या तकलीफ हो तो कृपया मुझे या अंजना को बता दीजियेगा ।' कहते हुए उषा ने अपना और अंजना का कांटेक्ट नंबर रंजना को दिया ।
'अवश्य उषा जी ,आप परेशान न हों हम 'परंपरा' में रह रहे अपने प्रत्येक सदस्य का ध्यान रखते हैं । हेल्थ समस्या होने पर हमारे यहां डॉक्टर भी विजिट पर आते हैं । '

' यह तो बहुत अच्छी बात है । कितने लोग हैं आपके इस वृद्धाश्रम में ।'

'बुरा मत मानियेगा उषाजी, हम इसे वृद्धाश्रम नहीं मानते । दरअसल 'परंपरा 'के द्वारा हम अपनी सनातन परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं जहां बड़ों के साथ सम्मान का व्यवहार होता है । आज की पीढ़ी भले ही बुजुर्गों का सम्मान न करती हो पर हम बुजुर्गों को एक पारिवारिक वातावरण देने का प्रयास करते हैं । एक बात और हमारे परिवार में हर धर्म और जाति के लोग हैं। वे सभी न केवल मिल जुल कर रहते हैं वरन एक दूसरे के सुख- दुख में भी बराबर के हिस्सेदार हैं ।'

' पर क्या यह लोग यहां संतुष्ट रहते हैं ।' उषा ने पूछा ।

' पूरी तरह से संतुष्ट तो नहीं कह सकते क्योंकि जिसने अपने जीवन के लगभग 60 70 वर्ष अपने परिवार के साथ, परिवार का पालन पोषण करते हुए बिताए ,जिन बच्चों के लिए अपना तन मन जलाया । बचत करके कोठियां खड़ी कीं । जीवन के इस पड़ाव पर उनके अपनों द्वारा बेदखल कर देने पर टीस तो मन में रहती ही है ।'

' सच कह रही हैं आप रंजना जी । पता नहीं इंसान इतना संवेदन शून्य क्यों और कैसे हो जाता है जो इस उम्र में अपने पालकों को यूँ बेसहारा छोड़ देता है ।' उषा ने कहा ।

' शायद आज की पीढ़ी की भौतिकता वादी मानसिकता के साथ -साथ कर्तव्य से भागने की प्रवृत्ति या बुजुर्गों की नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य बिठा पाने की अक्षमता...।' रंजना ने उत्तर दिया ।

' आपकी सोच यथार्थवादी है अगर आप बुरा न माने तो क्या तो क्या मैं 'परंपरा 'के बारे में कुछ पूछ सकती हूँ । दरअसल मैं एक समाज सेविका हूँ ।'

' अरे वाह ! तब हम आपसे सहयोग की आशा कर सकते हैं । पूछिए आप क्या जानना चाहतीं हैं ?'

'कितने लोग हैं यहाँ पर ?'

' लगभग 40 लोग हैं । उनमें 10 जोड़े हैं तथा अन्य सभी अकेले अपना जीवन काट रहे हैं । किसी की पत्नी नहीं है तो किसी का पति । सबके बीच एक बात कॉमन है ये सभी अपने बच्चों के हाथों चोट खाए हुए हैं । जब ये लोग पहली बार हमारी इस संस्था में प्रवेश करते हैं तब महीनों तक सहज नहीं रह पाते हैं । घर की याद में कहीं कोने में बैठे दर्द का सैलाब पी रहे होते हैं या आँसू बहा रहे होते हैं । कुछ बच्चों की मजबूरी होती है । पति पत्नी के नौकरी करने के कारण उनके पास अपने बुजुर्गों के लिए समय नहीं रहता । अकेले वे उन्हें छोड़ना नहीं चाहते तथा आज की सामाजिक परिस्थिति उन्हें किसी अटेंडेंट (सहायक) पर विश्वास नहीं करने देती । ऐसे बुजुर्गों के मन में असंतोष तो रहता है पर वे बच्चों की भावनाओं को समझ कर प्रसन्न रहने का प्रयास करते हैं । ऐसे दो कपल हैं हमारे यहां जोसेफ एवं क्रिस्टीना, जाकिर अली एवं शमीम , इनके बच्चे हर रविवार इनके पास बैठकर क्वालिटी समय व्यतीत करते हैं । कभी-कभी उनके खाने के लिए भी लेकर आते हैं । उनकी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते हैं । संभव हुआ तो आउटिंग भी करा देते हैं । एक कपल सर्वेश और अंजली का केस थोड़ा अलग है । सर्वेश को 50 वर्ष की उम्र में पैरालिसिस हो गया था । बहुत इलाज करवाया पर कोई लाभ नहीं हुआ । उनका पुत्र आशु उन्हें अपने साथ दिल्ली ले गया । आशु और उसकी पत्नी नौकरी करते हैं । उनके ऑफिस जाने के पश्चात उनकी पत्नी अंजली पूरे दिन डर के साए में जीती रहती थी कि अगर बच्चों की अनुपस्थिति में सर्वेश को कुछ हो गया तो ...अंततः उन्होंने यह सोचकर अपने घर लौटने का फैसला किया कि यहां कम से कम उनके नाते रिश्तेदार, सगे संबंधी, मित्र तो हैं जो उनके एक फोन कॉल पर हाजिर हो सकते हैं पर कहते हैं बुरे वक्त में सबकी निगाहें फिरने लगती है अंततः उन्हें यहां आना पड़ा ।'

' रंजना मेरा चादर गंदा है ,बदलवा देना ।'

' जी आंटीजी, अभी शंकर से कहकर बदलवा देती हूँ ।' रंजना ने उन्हें आश्वस्त किया था ।

' यह मनीषा हैं । लगभग 7 वर्षों से यहाँ हैं । इनके पति की अभी 6 महीने पहले ही मृत्यु हुई है । घर से कोई नहीं आया । हम सबने मिलकर ही अंतिम क्रिया कर्म करवाए । इनके पति पी.डब्ल्यू. डी . में सुपरिटेंडेंट इंजीनियर थे । अच्छा पद ,अच्छा ओहदा पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था । उनके बेटों ने सारी रकम अपने नाम करा ली थी । इन्होंने सोचा, बाद में देनी है तो अभी क्यों न दे दें । बस उनकी इसी सोच ने इन्हें कंगाल कर दिया । बहुए रोटी के लिए भी तरसा देती थीं तब आकर इन्होंने 'परंपरा ' में शरण ली । गनीमत है कि इनको पेंशन मिल रही है । अब अकेली है स्वयं को इस संस्था के बुजुर्ग लोगों की सेवा में व्यस्त रखती हैं ।'

' कितनी बार कहा जाता है कि पैसा अपने पास ही रखो, अपने जीते जी किसी को मत दो पर लोग गलतियां कर ही बैठते हैं ।' उषा ने कहा ।

' हां उषा जी, शायद इंसान अपने खून पर आवश्यकता से अधिक विश्वास कर लेता है ।' रंजना ने कहा ।

तभी उनके ऑफिस के सामने से एक औरत गुजरी । उसे देखकर रंजना ने कहा, ' इन्हें देख रही हैं आप , यह गुरुशरण कौर हैं । पूरी जिंदगी इन्होंने संघर्ष किया है । इनके पति हरमीत कौर बीमार रहते हैं पर तीनों बेटों में से कोई भी इन लोगों की जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं है । यह लाहौर की रहने वाली हैं । पार्टीशन के समय उनका परिवार भारत आया था । वह बताती हैं उस समय वह मात्र 5 वर्ष की थीं । अपने माता- पिता के साथ छुपते छुपाते भारत आई थीं । खून की नदियां, लोगों के कटे-फटे शव आज भी इन्हें पागल कर देते हैं । लाहौर में इनकी बहुत बड़ी हवेली थी । घी , दूध की कमी न थी । फल सब्जियों के बाग थे जबकि भारत में इन्हें और उनके परिवार को कितने ही दिनों तक शरणार्थी शिविरों में रहना पड़ा । वे बताती हैं कि सूखी रोटी, पानी जैसी दाल खाई भी नहीं जाती थी पर पेट भरने के लिए खाई । अनेकों परेशानियों से गुजरते हुए इनके माँ बाबा ने मेहनत करके अपनी पहचान बनाई । इन्हें शिक्षा अच्छी शिक्षा दिलवाकर अच्छे घर में विवाह किया । अच्छा खासा बिजनेस है इनका । बड़ी कोठी भी है पर बच्चों ने धोखे से उसे अपने नाम करवा कर इन्हें घर से बाहर निकाल दिया । ' हम दो बार बेघर हुए हैं और अब इस उम्र में यहां आना पड़ा ।' कहते हुए गुरुशरण कौर की आंखें भर आतीं हैं । अपनी बड़ी बहन को याद कर वह भाव विह्वल हो उठती हैं । वह कहती हैं अगर वह यहाँ इनके साथ होती तो कम से कम मन से तो मैं अकेली ना होती ।'

' क्या हुआ था उनकी बड़ी बहन को ?' उषा ने पूछा ।

' उनकी बड़ी बहन हादसे के समय अपनी मौसी के घर गई थी इसलिए वह उनके साथ नहीं आ पाई थी । मौसी का परिवार उस दर्दनाक हादसे में मारा गया पर बहन बच गई । उसे एक मुस्लिम परिवार ने पनाह दी । बाद में उस परिवार ने उसे अपनी बहू बना लिया था ।'

' ओह नो ….सच इस विभाजन ने देश को तो तोड़ा ही, दिलों को भी कभी नाम मिटने वाले जख्म भी दिए हैं । दुख तो इस बात का है कि आज भी सीमावर्ती इलाकों में निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं ।' कहते हुए उषा की आवाज में दर्द स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था ।

' जख्म नहीं नासूर... मेरे पिताजी के भाई भी उस दंगे में मारे गए । उनका कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने अपने एक मुस्लिम दोस्त को बचाने का प्रयास किया था ।' रंजना ने अतीत में जागते हुए कहा ।

' रंजना मैं भाग्यवादी नहीं हूँ पर कुछ घटनाएं भाग्य पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देती हैं । राजा से रंक, विछोह, दर्द... मेरे परिवार ने भी विभाजन का दंश झेला है । मेरे ममा-डैडी भी अपनी जान बचा कर अपना घर बार छोड़कर भारत आए थे । इस विभाजन में उन्हें न सिर्फ अपने माता-पिता वरन अपने भाई -भाभी को भी खोया था जबकि मम्मा का परिवार वही आतताईयों का शिकार हो गया था पर वे अपने उस दुख से उबर कर फिर से खड़े हुए । अगर इंसान में धैर्य और साहस है तो वह अपने बुरे पलों को अच्छे पलों में बदल सकता है । जिंदगी कभी रुलाती है तो वही हमें हंसने का अवसर भी देती है । यह हमारे ऊपर निर्भर है कि उस अवसर का हम कैसे उपयोग कर पाते हैं । '

'आप ठीक कह रही हैं उषा जी । सच तो यह है कि विपत्ति ही इंसान को कुंदन बन कर निखरने का अवसर प्रदान करती है ।

'ठीक कह रही हो रंजना ...एक बात और पूछना चाहती हूँ अगर आप बुरा न माने तो ...।'

'बुरा क्यों मानूँगी, पूछिए ।'

' सुना है कि जब कोई व्यक्ति बहुत बीमार पड़ जाता है तब आप लोग उसे वापस घर भेज देते हैं ।'

'आपने सच सुना है । ज्यादातर जगह यही व्यवस्था है पर हमारे घर यहां अगर कोई घर न जाना चाहे तो उसके ट्रीटमेंट की व्यवस्था मैनेजमेंट द्वारा की जाती है ।'

' यह तो बहुत अच्छा है । जब मैंने सुना, तब यही विचार आया कि जब इनके घर वाले अच्छी हालत में भी इन्हें अपने पास नहीं रख पाते तब बीमारी की हालत में कैसे रख पाएंगे ।'

' शायद यही सोचकर हमारे दिव्यांशु सर ने अपने अस्पताल में ऐसे लोगों की निशुल्क सेवा का बीड़ा उठाया है ।'

' दिव्यांशु ...।'

' परंपरा के संरक्षक ...उनका अपना अस्पताल भी है ।'

' ओ.के . । आज देश को ऐसे ही समाजसेवियों की बहुत आवश्यकता है । क्या मैं यहां इन व्यक्तियों से मिलने आ सकती हूँ ? कुछ इनके खाने पीने के लिए ला सकती हूँ ?'

' अवश्य ...पर आपको सबके लिए लाना होगा । हम किसी में भेदभाव नहीं करना चाहते ।'

'मैं इस बात का ध्यान रखूंगी ।' कहते हुए उषा ने रंजना से विदा ली थी ।

मैनेजर के केबिन से बाहर निकलते हुए उषा को एक बड़ा सा हॉल दिखाई दिया जिसमें भगवान राम, कृष्ण के साथ जीसस क्राइस्ट, गुरु गोविंद सिंह के फोटो भी लगे हुए थे अर्थात यहां रहने वाले सभी व्यक्ति अपनी- अपनी धार्मिक आस्थाओं और स्वतंत्रता के साथ अपना जीवन यापन करने के लिए स्वतंत्र हैं,सोच कर उषा के मन में अंधेरे में भी उजास की किरण सुकून पहुँचाने लगी थी ।

सुधा आदेश

क्रमशः