अपने-अपने कारागृह - 9 Sudha Adesh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने-अपने कारागृह - 9

अपने - अपने कारागृह -8

ऐसी ही न जाने कितनी बातें हैं जो उषा के जेहन में उमड़ घुमड़ कर उसे परेशान कर रही थीं । उन्होंने अपना घर लखनऊ में बनवाया था पर अपने स्वभाव के कारण वह आस-पास वालों से कोई संबंध नहीं रख पाई थी । जब वह घर जाती, कोई उनसे मिलने आता भी तो अपनी प्रशंसा के इतने पुल बांधने लगती है कि लोग किनारा करने लगते । आज उसे महसूस हो रहा था कि इंसान चाहे शौहरत की कितनी भी बुलंदियों को क्यों न छू ले पर उसके पैर सदा जमीन पर ही रहनी चाहिए ।

यही बात जब तब अजय ने उसे समझाने की कोशिश भी की थी पर उसके सिर पर बड़े अधिकारी की पत्नी का जादू इस कदर छाया हुआ था कि उसे सदा सिर्फ अपनी ही सोच ठीक लगती रही थी ।

' तबीयत ठीक नहीं है क्या जो इस समय लेटी हो ?' सब कुछ जानते हुए भी अजय ने कमरे में प्रवेश करते ही पूछा ।

' नहीं ऐसी कोई बात नहीं है । 'उषा ने उठते हुए कहा ।

' घनश्याम सामान यहाँ रख दो ।' अजय ने अर्दली को आदेश देते हुए कहा ।

' सर हमसे कोई भूल हो गई हो तो क्षमा करिएगा । कल से नए साहब के पास जाना होगा । पता नहीं वह कैसे होंगे ?' फेयरवेल में मिलीं फूल मालाएं तथा गिफ्ट उसने पास रखे टेबल पर रखते हुए कहा ।

' सब अच्छे ही रहते हैं जिसके पास भी रहो मन लगाकर काम करो और सुखी रहो ।' घनश्याम को उसके लिए लाया उपहार उसे देते हुए अजय ने कहा ।

घनश्याम उनको प्रणाम करके चला गया तथा रो पड़ी थी उषा…।

' पागल मत बनो उषा ... यह रोना-धोना क्या तुम्हें शोभा देता है ? यह दिन अचानक तो नहीं आया है ! क्या यही कम है कि हमने एक सुखी जीवन बिताया है । सबसे अधिक संतोष तो मुझे इस बात का है कि बिना किसी धांधली में फंसे मैं ग्रेसफुली अवकाश प्राप्त कर रहा हूँ । अब चलो उठो, आँसू पोंछो श्यामू चाय बना कर लाता ही होगा । और हां आज शाम को फेयरवेल है । वहाँ मुँह लटका कर मत बैठना । अब तुम बच्ची नहीं हो एक उच्च पदस्थ अवकाश प्राप्त अधिकारी की मैच्योर वाइफ हो । मैं चाहता हूँ जिस ग्रेसफुलनेस के साथ तुम अब तक रहती आई हो उसी ग्रेसफुलनेस के साथ यहां से विदा लो।'

फेयरवेल के समय अजय के सहयोगियों से अजय की प्रशंसा सुनकर उषा भावविभोर हो उठी थी । न चाहते हुए भी एक दो बार उसकी आँखों में आँसू छलक ही उठे थे । उसकी बगल में अजय की जगह आए अधिकारी की पत्नी शिखा गुप्ता बैठी हुई थी । वह उसके साथ बातें करना चाह रही थी पर वह अपनी मनः स्थिति के चलते सहज नहीं हो पा रही थी । यद्यपि वह उसे पहले से जानती थी पर तब वह जूनियर अधिकारी की पत्नी थी । जूनियर अधिकारी की पत्नी होने के कारण उस समय उसने उसको महत्व नहीं दिया था । दुख तो इस बात का था जो महिलाएं पहले उसके इर्द गिर्द घूमा करती थीं अब वे शिखा के इर्द-गिर्द मंडरा रही थीं यह सब देख कर उषा यह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या व्यक्ति की पहचान सिर्फ उसकी कुर्सी होती है ?

उषा की अन्मयस्कता के बावजूद शिखा पूरे समय उसके साथ रहने का प्रयत्न कर रही थी । उसी ने उसके हाथ में खाने की प्लेट पकड़ाई । सच कहें तो शिखा की विनम्रता ने उसका मन मोह लिया था । जब वह खाना खाने लगी तब श्रीमती रूपाली शर्मा सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस की पत्नी उसके पास आकर बैठ गई । उषा कुछ पूछ पाती, उससे पहले ही उसने कहा, ' मैं आपसे मिलने आना चाह रही थी पर क्या करूँ बहू दिव्या की डिलीवरी नजदीक आने के कारण समय ही नहीं मिल पाता है । आप तो जानती हैं उसे बेड रेस्ट बताया है । अब ऐसी हालत में उसे नौकरों के सहारे तो छोड़ा नहीं जा सकता । दिव्या ने आज मुझे यह कहकर जबरदस्ती भेजा है कि दो-तीन घंटे की ही तो बात है , मैं रह लूँगी । अगर कुछ परेशानी हुई तो मोबाइल तो है ही । आज उषा आंटी का फेयरवेल है आपको जाना ही चाहिए । सच बहुत ही समझदार बच्ची हैं ।

शर्मा साहब ने आपको कल के डिनर का निमंत्रण दे ही दिया होगा । इसके अतिरिक्त एक बात और आपसे कहनी है । दो महीने पश्चात हमारे शर्मा साहब का भी रिटायरमेंट है । मैं चाहती हूँ कि इस अवसर को यादगार बना लूँ । मैंने सोचा है कि यहां से जाने के पहले एक दिन सभी घनिष्ठ मित्रों को एकत्रित कर एक पार्टी का आयोजन करूँ । रिटायरमेंट के पश्चात हम हरियाणा चले जाएंगे पता नहीं फिर कभी किसी से मिलना होगा भी या नहीं । आपसे आग्रह है कि आप इस अवसर पर अवश्य आइएगा । यद्यपि तारीख तो अभी निश्चित नहीं हुई है निश्चित होने पर सूचित करूँगी । विनय को मैंने अपने मन की बात बताई तो उसने कहा कि मम्मा बहुत अच्छा आईडिया है । पर पार्टी डैड के जन्मदिन पर ही दीजिएगा क्योंकि यहां (आंध्रा ) में 60 वां जन्मदिन लोग बहुत धूमधाम से मनाते हैं । हम तो स्वयं ही डैड के इस जन्मदिन को बहुत ही धूमधाम से मनाना चाहते हैं । रिचा से भी मेरी बात हो गई है हम दोनों ही छुट्टी लेकर उस समय आ रहे हैं ।'

उषा रूपाली को देख रही थी कितनी सहजता से वह अपनी बात कह गई जबकि वह इस बात को लेकर पिछले कुछ दिनों से कितनी परेशान है । अजय ठीक ही कहते हैं इंसान को जिंदगी में आए हर चैलेंज को ग्रेसफुली अपनाना चाहिए तभी वह प्रसन्न रह सकता है । वक्त का यही तकाजा भी है ।

लौटते हुए उषा के मन में छाया अंधेरा छंटने लगा था पर फिर भी रूपाली की बात बार-बार मन को मथ रही थी....पता नहीं फिर किसी से मिलना हो पाएगा या नहीं !! सच क्या जिंदगी है नौकरी वालों की.. आधे से अधिक जीवन यूँ ही बंजारों की तरह घूम- घूम कर बिताने के लिए मजबूर तो रहता ही है, अहंकार , पद प्रतिष्ठा की होड़ के साथ जोड़-तोड़ की राजनीति भी उसके जीवन का हिस्सा बन जाती है । इस जोड़-तोड़ में जो जितना सफल रहता है उसे उतना ही बड़ा पद, प्रतिष्ठा मिलती है पर एक समय ऐसा आता है जब न उसकी यह पद प्रतिष्ठा काम में आती है और न ही जोड़-तोड़ । एक दिन उसे अपनी सारी सुख सुविधाओं को त्यागकर, लंबे समय पश्चात वापस अपने नीड़ में लौटना पड़ता है, फिर से नई जिंदगी प्रारंभ करनी पडती है किन्तु इस उम्र में नई जगह में सेट होना, मित्रता कायम करना, क्या इतना सहज है ?

' पर तुम्हें तो आदत है इस सबकी, फिर परेशानी क्यों ?' अन्तरचेतना ने उसे टोका था ।

' हाँ आदत रही है पर इस बार परिस्थिति दूसरी है ।'

' दूसरी कैसे ?'

' यहाँ पर घर बार के लिए सोचना नहीं पड़ता । पद प्रतिष्ठा है । काम करने के लिए आदमी है और मित्रता तो पद के कारण स्वयमेव हो ही जाती है । 35 वर्षों पश्चात अपनी जड़ों को टटोलकर जगह बनाना बेहद कठिन है । '

'कठिन को सरल बनाना ही इंसानी जीवन की खूबसूरती है ।' अन्तरचेतना ने उसे कुरेदा था ।

' ओ. के. अब तुम जाओ... थोड़ी देर मुझे अकेला रहने दो ।' कहते हुए उषा ने उसे झिड़का था ।

' मैं तो चली जाऊंगी पर इतना अवश्य याद रखना जो इंसान जीवन में आए हर चैलेंज को खूबसूरती के साथ से स्वीकारता है वही सदा प्रसन्न रहता है वरना जिंदगी उस अलाव की तरह हो जाती है जिसे जलाया तो शरीर को गर्माहट देने के लिए है पर दूसरे को गर्माहट देने के प्रयास में उसकी अपनी जिंदगी ही राख बनती जाती है । अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम अलाव की तरह जलकर स्वयं को और जग को सुकून देना चाहती हो या तिल तिल जलकर राख बनना चाहती हो ।'

' मैं आज तक जैसे जीती आई हूँ वैसे ही जाऊँगी, अपने लिए भी और समाज के लिए भी ।' उषा ने दृढ़ निश्चय के साथ कहा ।

' वेरी गुड.. अब उदासी का लबादा छोड़कर चेहरे पर खुशी लाओ और नए जीवन का प्रारंभ नव उत्साह के साथ करो ।'

' ओ.के.।'

अंतर्चेतना उसकी सखी थी । जब वह परेशान होती तब आकर वह उसके मन पर न केवल मलहम लगाती वरन राह भी दिखा जाती थी ।

सुधा आदेश

क्रमशः