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न वो हारा न मै ..



वो बगावत करने पर उतारू है । उसने हिन्दी सहित्य के आदर्शवादी नायकों की तरह स्वयम् को प्रस्तुत करने से इंकार कर दिया । वो आदर्शों को नये और अपने ही तरीकों से परिभाषित करना चाहता है । उसे आदर्शों की दकियानूसी बातें स्वीकार ही नहीं है। वो अपने व्यक्तित्व को सभी सीमाओं से अलग देखता है इसलिए ही अपने आप को छोटी-बड़ी सभी सीमाओं से मुक्त रखना चाहता है । वो अपनी छवि को नया रूप देना चाहता है । उसे किसी भी सीमा की कोई फिक्र नहीं है यहाॅं तक कि उसे किसी सरकार किसी देश की भी कोई फिक्र नहीं है । वो छद्म राष्ट्रवाद से ऊब चुका है ,उसे जातिवाद और राजनैतिकवाद भी रास नहीं आते । वो ईश्वर को नहीं मानता मगर नास्तिक भी नहीं है । उसे मालूम है कि जाति, राष्ट्र ,राजनीति और धर्म भी व्यक्तियों को जकड़ कर एक खास दिशा में कार्य करवाते है । वो जानता है सारे नियम-कायदे मूलतः मानव कल्याण का साधन नहीं है ; ये सब तो केवल और केवल एक अव्यवस्थित सी भीड़ को अलग-अलग पंक्तियों में खड़ा करने का तरीका मात्र है ।

उसने सोचा क्यों न अलग ही रास्ता चुना जाए ? ऐसा सोचने वाला वो पहला तो नहीं है । इसके पहले अनेकों संत, महात्मा ,चिंतक और विचारक ऐसा कर चुके है । जब-जब किसी ने भीड़ से अलग चलने का प्रयास किया पहले-पहल तो दुत्कारा ही गया । फिर कुछ लोग अपनी -अपनी पंक्तियों से निकल कर उसके पीछे आ खड़े हुए और नये वाद ,धर्म और सांप्रदाय का निर्माण कर लिया । उसकी यह भी इच्छा नहीं है कि वो किसी नये धर्म ,पंथ या वाद का प्रणेता बने ,लेकिन यदि उसने आज विद्रोह किया ही है तो कल कुछ लोग उसके पीछे चलने जरूर ही लगेंगे ।

उसने कहा मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो । मेरे आस-पास आभासी संसार की रचना मत करो । मैं जैसा बोलता हुॅं , सोचता हुॅ और समझता हुॅं ; ठीक हुॅं । मैं अमीर हुॅं या गरीब ,ठीक हुॅं । मुझे आप अपने विचार से जोड़ कर खास स्वरूप प्रदान करना चाहते हो । मैं नहीं चाहता कि आप अपने विचारों को मुझ पर मनमाने तरीके से लादें ।

उसकी बगावत आकार लेने लगी । वो विरोध को तीव्र से और तीव्र करने लगा । उसे अपने अस्तित्व से छेड़-छाड़ बर्दास्त नहीं हो रही थी । वो अपने अनगढ रूप को विवेक का पिटारा समझने लगा । आप ही बताइए बिना वाद, राष्ट्र,धर्म और जाति के कोई नायक या खलनायक हो सकता है क्या ? इस बेवकूफ को कौन समझाए कि दुनिया में तुम्हें किसी न किसी वर्गीकरण में तो शामिल होना ही होगा । तुम निराले नहीं हो ; तुम्हारा अगर अस्तित्व है तो तुम भीड़ के किसी वर्ग विशेष का हिस्सा बने बगैर नहीं रह सकते ।

वो हद पार करने लगा है । वो मेरी बातों को नजरंदाज करने लगा है । उसके इस व्यवहार के चलते मेरे अंर्तमन में भी उथल-पुथल मच गई है । मैं भी अपने वर्गीकृत भार में छटपटाहट महसूस करने लगा हुॅं । मैं जब-जब उसे समझाने का प्रयास करता हुॅं ; उसके विचारों में खुद को ही उलझता हुआ पाता हुॅं । वो मेरी दयनीय स्थिति पर खुल कर हंस लेता है । कभी- कभी तो मुझे मुंह भी चिढाने लगता है । वो अक्सर ही भावुक पलों में मेरे साथ होता है । जब वो मेरे पास होता है तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरा अस्तित्व विराट हो गया हो। उसके विचारों के साथ स्वयम् को जोड़ कर देखता हुं तो ऐसा लगता है कि दुनिया में सब अपनी -अपनी बौनी ऊचाईयों से ही अपने कद को बड़ा दिखाने का प्रयास कर रहे है । ये बहुत ही विचित्र हो रहा है ; मेरे विचारों से उसे प्रभावित होना चाहिए था लेकिन यहाॅं तो मैं ही उसके साए में हॅु ।

वो मुझ से कहता है ,मुझे आकार मत दो ; मुझे कागज पर पात्र रूप में अक्षरों की पंक्तियों में स्थान मत दो । उसने मेरी कथा में पात्र होने से साफ इंकार कर दिया है । उसने मेरी ही नहीं सभी कथा शैलियों को नकार दिया है । अन्य लेखकों के विषय में तो मुझे नहीं मालूम किन्तु वो अपने आप को मेरे पात्र के रूप में अपात्र भी नहीं मानता लेकिन अपने पात्र रूप में अवतरित होने के लिए शायद मुझे ही उपयुक्त नहीं मानता । मै उसे पात्र बनाने का जितना प्रयास करता हुॅं ; उसके कथा सूत्र में उतना ही उलझता जाता हुॅं और मेरे अपने कथा सूत्र बिखरने लगते है । अभी जंग जारी है न वो हारा है और न मैं .............।

आलोक मिश्र "मनमौजी"
mishraalokok@gmail.com



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