त्रिखंडिता - 22 - अंतिम भाग Ranjana Jaiswal द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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त्रिखंडिता - 22 - अंतिम भाग

त्रिखंडिता

22

'मैं आपकी पत्नी नहीं हूँ | '

-पर मैं तो मानता हूँ |

'मान लेने से कोई किसी की पत्नी नहीं हो जाती | '

-तो इधर आओ| उन्होंने उसे बांह से पकड़ा और घर के उस कोने में ले गए, जहां छोटा सा एक मंदिर बना था | मंदिर में माँ दुर्गा की प्रतिमा थी | उन्होंने माँ के सामने थाल में रखे सिंदूर को उठाया और उसकी मांग भर दी | वह अवाक खड़ी रही, तो बोले -मैं ईश्वर को साक्षी मानकर तुम्हें अपनी पत्नी स्वीकार करता हूँ | पूनम संज्ञा शून्य थी | उसने अपनी तरफ से कोई कसम नहीं ली |

उस दिन के बाद से ही शेखर उसे साधिकार छूने लगे थे और उसे भी उनका स्पर्श बुरा नहीं लगता था |

पूनम की भावनाएँ डाक्टर के नसीहत पर भारी पड़ी और एक सप्ताह भीं न बीता कि पूनम फिर से शेखर के दहलीज पर आ खड़ी हुई | पहले दरवाजा खुलने में देरी हुई, फिर वकीलाइन के चेहरे पर नागावरी के भाव उभरे | इन सब पर ध्यान न देकर वह ड्राइंगरूम में आकर बैठ गयी | ड्राइंगरूम उसे कुछ बदला-बदला लगा | उसने गौर किया कि शेखर के जन्मदिन पर उसके द्वारा भेंट दी गयी फूलों की झाड़ गायब है | साथ ही वे चींजे भी नहीं है, जो शेखर और उसकी सहमति से खरीदी गयी थीं और कुछ दिन पहले तक जिनका घर में खास स्थान निर्धारित था | बच्चे भी पहले की तरह उसके पास नहीं आए | उसके आने की खबर पाकर शेखर बाथरूम से तौलिया लपेटे ही निकल आए | पूनम ने देखा, तौलिए में लिपटा शेखर का शरीर कितना क्षीण और छोटा है | पुरूषोचित सुडौलता का नामोनिशान नहीं | क्या इसी पुरूष के पीछे वह पागल है?

-कैसे आना हुआ ?शेखर ने घबराए स्वर में पूछा |

'तो अब उसको अपने आने का कारण बतलाना होगा ?'उसने सोचा |

-दरअसल हम लोगों को कहीं जाना है | फिर आना तो बातें होंगी |

स्पष्ट संकेत था कि पूनम यहाँ से जाए | वह उठकर चल दी | अपने घर पहुंचते ही उसे बुखार हो आया | फिर वही डिप्रेशन .. वही द्वंद्व एक-दूसरे को काटते विचार | कभी खुद को ठगा महसूस करती, कभी लगता वह शेखर को गलत समझ रही है | वह समझ नहीं पा रही थी कि शेखर से उसे प्रेम है या नफरत | कभी लगता उसे शारीरिक सुख ही मिल गया होता, तो शायद वह शेखर के बदले रूप को भूल जाती | पर उसे सब कुछ खोने बाद भी कुछ न पा सकने की कसक साल रही है | वह शेखर को यूं ही नहीं छोड़ सकती है | कभी वह खुद पर नाराज होती | क्यों वह पागलों की तरह शेखर के घर दौड़ लगाती थी ? क्यों नहीं समझी कि बाल-बच्चेदार आदमी किसी लड़की से प्यार नहीं कर सकता? क्या उसे भी देह की भूख थी! शायद हाँ, तभी तो शेखर के दो मिनट के मशीनी संसर्ग ने उसे तड़पा कर रख दिया है | वह तृप्ति के लिए बेचैन है | शेखर क्यों नहीं समझते यह बात ?उनके पास तो एक स्त्री मौजूद है, पर उसके पास तो कोई पुरूष नहीं | कभी सोचती -शेखर प्रेम में क्यों असफल रहे? क्या उनमें कोई शारीरिक अक्षमता है ?उनसे फिर संसर्ग हो तो पता चले, पर वे तो जैसे उससे दूर भाग रहे हैं | क्या करे वह ?कहीं उसमें ही तो कोई कमी नहीं पा गए वे? आखिर क्यों उसके युवा देह का आकर्षण भी उन्हें नहीं बांध पा रहा है ?कहीं वे उसके भावनात्मक उबाल से तो भयभीत नहीं है ? अपने परिवार को खो देने या समाज की रूसवाई का डर तो उन्हें नहीं रोक रहा ?कोई कारण तो जरूर होगा | वे उसे बता देते, तो वह उनका सहयोग ही करती | पर वे तो पलायन कर रहे हैं, उनके इस पलायन ने ही उसे बीमार किया है |

एक दिन इसी डिप्रेशन में वह उठी और शेखर के घर जा पहुंची | गर्मी की तपती दुपहरिया थी | हवा तक जैसे किसी शीतल छाया में सो रही थी | दरवाजा शेखर ही ने खोला और उसे देखते ही बोला -बावली हो गयी हो ?इस दुपहरिया में! अच्छा आ ही गयी हो, तो अंदर आओ | सब सो रहे हैं | शेखर के बेडरूम में जमीन पर ही गद्दा पड़ा हुआ था | सभी आड़े-तिरछे लेटे सो रहे थे | वकीलाइन ने एक बार आँखें खोलकर उसे देखा, फिर करवट बदल कर सो गईं | शेखर भी लेट गए और उसे भी लेट जाने का इशारा किया | वह बच्चों के पास लेट गयी | शेखर ने एक चादर अपनी देह पर डाल ली थी | चादर के भीतर उन्होंने उसका हाथ पकड़ा और अपने पुरूष अंग पर रख लिया | उसने हाथ खींचना चाहा, तो उसके हाथ को कसकर जकड़ लिया और तभी छोड़ा जब संतुष्ट हो लिए | उसका हाथ गंदा हो गया था | उसे बड़ी वितृष्णा हो रही थी| सोचने लगी -यह आदमी कितना स्वार्थी है | अपना सुख साध लेता है, पर दूसरे के सुख की उसे परवाह तक नहीं है | यह उसे इस्तेमाल कर रहा है | शायद यह इसके लायक ही नहीं है| किसी स्त्री को संतुष्ट करना इसके बूते की बात नहीं, तभी तो उससे भागा फिर रहा है | पता नहीं पत्नी को कैसे खुश रखता होगा ?हो सकता है पत्नी अपनी जरूरत कहीं और पूरी करती हो, तभी तो इसके लिए क्षणिक सुख का साधन जुटाती फिरती है| इधर एक और लड़की इनके घर ज्यादा दिखने लगी है | उफ, वह भी किससे बंधी है ?उसे मुक्त होना ही पड़ेगा, वरना वह इस आदमी की रखैल बन कर रह जाएगी | रखैल भी कैसी ?जिसे न यह संरक्षण देगा न देह-सुख, और कुछ तो दूर की बात है | वह खुद पर नियंत्रण रखेगी | दुर्घटना समझकर सब कुछ भूल जाएगी | किसी गलती को जीवन भर दुहराना समझदारी तो नहीं | वह घर लौटी और फिर कभी शेखर के घर नहीं गयी | वह अपने डिप्रेशन से लड़ रही थी, इसलिए चिड़चिड़ी हो गयी थी| इधर वह अपनी माँ से लड़ती और कहती -मेरा जल्द विवाह कर दो | वह न केवल शेखर से, बल्कि अपने शहर को भी छोड़ जाना चाहती थी | यहाँ वह खुद को पराजित महसूस कर रही थी | उसका जैसे दम घुट रहा था | शेखर ने उसके साथ छल किया है| शायद इसलिए कि वह एक ऐसी माँ की बेटी है, जिस पर किसी की रखैल होने का तमगा चिपका है | पर अंकल ने कितना कुछ माँ और उनके बच्चों के लिए किया भी तो है, अब उसके लिए लड़का भी ढूंढ रहे हैं | उनके कारण ही तो उसका परिवार बना हुआ है, वरना जाने क्या हो जाता? शेखर उनका एक अंश भी नहीं कर सकता |

यह संयोग ही था कि विधायक अंकल के प्रयास से दिल्ली में एक अधिकारी लड़का मिल गया | धूमधाम से शादी हुई | शेखर भी उसके विवाह में आमंत्रित थे | उसकी विदाई में सबसे ज्यादा शेखर ही रोते दिखे | उन्हें रोते देख एक पल के लिए पूनम के मन में विचार आया कि -कहीं सच ही उन्हें उससे लगाव तो नहीं था, पर दूसरे ही क्षण उसने इस विचार को अपने दिमाग से झटक दिया |

पूनम डरी हुई थी | शेखर के साथ उसका संसर्ग कष्टकारी साबित हुआ था | वह सोच रही थी कि कहीं पति भी शेखर जैसा न निकले, पर पति समझदार था| उसने उसे सुख से सराबोर कर दिया | पति से भरपूर प्यार पाते ही पूनम ने शेखर को क्षमा कर दिया| उसका आत्मविश्वास लौट आया| वह किसी फूल की मानिंद खिल उठी | एक वर्ष बाद जब वह ससुराल से लौटी, तो शेखर उससे मिलने आए और एकांत पाकर उससे पहले की तरह प्रेम जताना चाहा, तो वह बेरूखी से बोली -अब मेरी शादी हो चुकी है |

वे भावुक स्वर में बोले -यही तुम्हारा प्रेम था | तुम तो कहती थी आजीवन साथ निभाऊंगी | वह हँसी और उठकर वहाँ से चली गयी शेखर आहत से उसे देखते रह गए | पूनम सोच रही थी -यह आदमी कितना शातिर है अब भी उसे इस्तेमाल करना चाहता है | कहीं यह उसकी छोटी बहनों को न शिकार बना ले | घर में उसका आना-जाना तो है ही, माँ उसपर विश्वास भी बहुत करती है | नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगी उसने अब तक अपनी बहनों को नहीं बताया था कि उसके डिप्रेशन की वजह शेखर थे | अब वह सब कुछ बता देगी | रात को जब सभी बहनें साथ लेटीं, तो पूनम ने सारी कहानी बतानी शुरू की | उसे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि बहनें सारी बात जानती थीं| सुमन ने भी एक घटना उसे बताई |

पूनम की विदाई के तत्काल बाद वे उसके कमरे में आए और उससे प्रेम जताने लगे, फिर उसका हाथ पकड़ लिया| वे आवेश में काँप रहे थे | उन्हें पता नहीं था कि वह उनकी असलियत जानती है | उसने उन्हें डपट कर कहा -मेरा हाथ छोड़िए, वरना चिल्लाऊँगी | आप मुझे पूनम की तरह भोली मत समझिएगा |

शेखर काँपते हुए वहाँ से चले गए |

पूनम को खुशी हुई कि उसकी बहनें उससे ज्यादा समझदार हैं और वे किसी दुष्चक्र में नहीं पड़ेगी | उन्होंने माँ के जीवन से ले सच्चा सबक लिया है |

नौ

अंतहीन

नए वर्ष का पहला दिन है।रमा सोच रही है कि अब तो जिंदगी की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है।कितना अजीब अहसास है।पहले वह जिंदगी को आगे बढ़ता देख खुश होती थी। अब घटता देख उदास है, जबकि जो बढ़ता है वह घटता भी है यही कुदरत का सत्य है।वह सोचती है कि अभी तक जीवन में न तो कुछ स्मरणीय नहीं कर पाई है और न उसके पास दुनियावी उपलब्धियां ही हैं?जैसे धन-दौलत, महल-दो महल, पद.प्रतिष्ठा गाड़ी-घोडा आदि।मित्रों और रिश्तेदारों की दृष्टि से भी वह लगभग कंगाल ही है।पर जब वह सकरात्मक सोचती है, तो लगता है इतना भी व्यर्थ नहीं गया उसका जीवन ।उसने हजारों को ज्ञान दिया| प्रेम दिया, उम्मीदें दीं, हौसला दिया, यह कोई कम तो नहीं है।ठीक है बदले में उसे धन-दौलत नहीं मिला पर उसके इस व्यक्ति रूप को सम्मान तो मिला ही।

जहां तक उसके स्त्री रूप का प्रश्न है, उसको भी वह मिला, जो कम ही स्त्रियॉं के नसीब में होता है | वह उपलब्धि है-एक सच्ची आजादी।इस भारतीय समाज में कितनी स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं ?आर्थिक रूप से स्वनिर्भर, उच्च पद-प्रतिष्ठा प्राप्त स्त्रियाँ भी लगभग गुलामी का जीवन जी रही हैं।देह से आजाद हैं तो मन से गुलाम।उससे भी नहीं तो किसी न किसी रूढ़ि या परंपरा की गुलाम और घर्म तो है ही, जिसकी जकड़ से वे खुद भी मुक्त नहीं होना चाहतीं।उन्होंने खुद को नाना बंधनों में जकड़ रखा है।वे अकेले होने से डरती हैं, इसलिए उधार लिए तमाम विचारों की गुलामी करती हैं।रिश्ते-नातों के अंतहीन सिलसिले के निर्वहन में उनकी पूरी जिंदगी चुक जाती है।भ्रम तो उन्हें भी होता होगा कि वे आजाद हैं, खुश है, पर वह जीवन को समझ ही कहाँ पाती हैं ?

वह भी तो पहले उन्हीं के जैसी थी। कहाँ समझ पाई थी जीवन को, प्रेम को?कहाँ जानती थी कि जिस प्रेम को वह बाहर ढूंढ रही है, वह उसके ही भीतर है।उसने दुनियावी उपलब्धियां भले न पाई हों, पर उसका आत्मविश्वास, उसकी चेतना छोटी उपलब्धि नहीं है।वह सोचती है कि काश, जीवन के प्रारम्भ में ही वह इस सत्य को समझ गयी होती, तो आज उसका जीवन दूसरा होता।वह इस समाज के लिए संसार के लिए बहुत कुछ कर चुकी होती।पर अभी भी देर नहीं हुई है, क्योंकि अभी उसका अंत नहीं होने वाला।

रमा प्रसन्नता से अपने भविष्य की रूप.रेखा बना रही है, पर समाज उसकी इस प्रसन्नता को समझ नहीं पा रहा है।वह उसे डरा रहा है।अकेलेपन का हौआ खड़ा कर रहा है।कह रहा है कि जीवन में परिवार, रिश्तेदार जरूर होने चाहिए, वरना बुढ़ापा कष्टदायक होगा।अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं मिलेगा।मुक्ति नहीं मिलेगी।वह सोच रही है, तो क्या इसी सुरक्षा की चाहत में रिश्ते-नाते बनाए और निभाए जाते हैं, मन मारकर भी।प्रेम की जगह स्वार्थ का रिश्ता।भविष्य की सुरक्षा के लिए वर्तमान की जद्दोजहद।अनंत गुलामी।मृत्यु के बाद की चिंता में घुलता वर्तमान बड़ा दयनीय लगता है उसे।बुढ़ापे की सुरक्षा में वर्तमान के आजादी की कुर्बानी विचित्र है न।रिश्तेदार चाहते हैं कि अपने बुढ़ापे की सुरक्षा के लिए, अपनी अर्थी को कंधा सुनिश्चित करने के लिए वह अभी से अपने कंधों पर उन्हें लादकर चले।अपना सब-कुछ उनके नाम लिख दे।पर रमा को अपनी चिंता नहीं है।उसने अपना पूरा शरीर मेडिकल कालेज को बहुत पहले ही दान कर रखा है ताकि उसका शरीर मृत्युपरांत भी काम आ जाए।करीब उसी के जैसी अकेलेपन की स्थिति में अनामा और श्यामा भी है ।पर वे डरी हुई हैं।समाज के लोगों द्वारा खींचे गए बुढ़ापे और मृत्यु के काल्पनिक भयावह चित्र उन्हें भयभीत करते हैं।अकेली स्त्री के दुखद अंत की अनगिनत कहानियाँ उन्होंने सुन रखी है।श्यामा को अपने बेटों से सहारे की कोई उम्मीद नहीं, तो अनामा का कोई है ही नहीं।रमा को उसकी बहनें आश्वस्त तो करती हैं, पर वह उनकी सीमाओं से परिचित है।वे अपने पतियों के अधीन हैं और अपनी आजाद जिंदगी के नाते रमा उनकी आँखों को हमेशा खटकती रही है।सहारा मिल भी जाए तो क्या वह दूसरों के हिसाब से जीवन जी पाएगी ?पराधीनता का जीवन बड़ा कष्टदायक होता है, वह भी बुढ़ापे में, पर वह हार नहीं मानने वाली।

आज वर्ष के पहले दिन रमा ने इस समस्या का काट सोच लिया।अवकाश-प्राप्ति के बाद वह अनामा और श्यामा के साथ मिलकर एक वृद्धाश्रम खोलेगी, जिसमें निराश्रित अकेले बूढ़ों को शरण दी जाएगी।सभी बूढ़ों को उनकी क्षमता के अनुसार कार्य दिया जाएगा ताकि उन्हें बेकार या पराश्रित होने का बोध न हो।उनका बुढ़ापा भी सबके साथ आराम व खुशी के साथ गुजर जाएगा।इस नवीन कल्पना से उसका मन प्रफुल्लित हो उठा और वह अपनी पढ़ने वाली मेज-कुर्सी पर आ बैठी।थोड़ी देर में वृद्धाश्रम का ड्राफ्ट उसके हाथ में था और वह अनामा और श्यामा से हँस-हँस कर उस संबंध में बात कर रही थी ।

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