Trikhandita - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

त्रिखंडिता - 4

त्रिखंडिता

4

कुछ तो है

प्रभा जब भी उनके तेजस्वी, सुंदर, शांत चेहरे को देखती है, अजीब सा सुकून महसूस करती है। कॉलेज आते ही वह शीशे वाले उनके केबिन की ओर जरूर देखती है और उन्हें देखते ही ऊर्जा से भर जाती है। जिस दिन वे नहीं होते, पूरे दिन उदासी महसूस करती है। जाने क्यों हमेशा उनका चेहरा उसकी आँखों मे डोलता रहता है। जब से कॉलेज में वे प्रिंसिपल के रूप में आए हैं तभी से उसका यही हाल है। शुरू के दिनों में तो वह डर गयी थी कि क्यों वे उसे इतना याद आते हैं। दिन भर कॉलेज में तो उन्हें देखती ही है, रात भर सपने में भी दिखते हैं। कहीं उसे प्यार तो नहीं हो रहा है। एक ’संन्यासी’ से प्यार ! वे तो सांसारिक जीवन त्याग चुके हैं। स्त्री उनके लिए वर्जित फल है। उनकी तरफ आकर्षित होने पर वह भी कॉलेज से उसी तरह निकाली जा सकती है, जैसे हव्वा स्वर्ग से निकाली गई थी। पर ये प्यार भी विचित्र होता है। हमेशा गलत जगह होता है। कम से कम उसे तो ऐसा ही अनुभव है। और हमेशा गलत जगह प्यार होने का ही परिणाम है कि वह जीवन में अकेली ही रह गयी। जो भी उसे अच्छा लगा, वह किसी दूसरी का था या फिर हो गया और वह दूर खड़ी देखती रही, कुछ न कर सकी। कहती भी क्या ! यह उसी का तो चयन था। कभी उसका प्यार एक तरफा ज्यादा रहा, तो कभी उसके जीवन को पचा पाना प्रेमी के लिए कठिन हुआ। आज जब वह उन प्रेमियों के बारे में सोचती है तो लगता है कि उसने उनकी आँखों में अपने लिए जो प्यार महसूस किया था, वह भ्रम था। दरअसल उनके हिस्से का प्यार भी उसका अपना प्यार था। तराजू के दोनों पलड़ों पर उसी का अकूत प्यार था। उनके पास तो उसके लिए कुछ था ही नही। ’तरस’ रहा होगा या फिर ’लोभ’। प्यार तो कतई नहीं। प्यार करने वाला ऐसे दूर नहीं होता, ऐसा बेदर्द नहीं होता कि अपनी अलग दुनिया बसा ले। एक ऐसी दुनिया, जिसमें उसका प्यार हवा के ठंडे झोके की तरफ भी प्रवेश ना पा सके।

पर उसे अफसोस नहीं है। सच हो या भ्रम, जितने दिन वह प्यार में रही.......... सम्पूर्ण रही। अनुपम सौन्दर्य और दिव्यता से भरी रही। प्रेम को पूर्णता में जी लेना केई छोटी उपलब्धि तो नहीं। पर जब वह अपने बारे में यह टिप्पणी सुनती है कि अभी तक भटक ही रही हैं तो उसे तकलीफ होती है। अपने दोस्तों को जब वह ’जोडे़’ में देखती है, तो एक कसक सी होती है कि आखिर वही अकेली क्यों है ? जरूर कोई कमी होगी उसमें ! पर क्या ? इस पर सबकी अपनी-अपनी राय होगी, पर वह जानती है कि वह क्यों औरों की तरह पारम्परिक जीवन में नहीं है? वह सामान्य स्त्री नहीं है, शायद कुदरत ने उसे अकेले रहने के लिए ही बनाया है।

पर यदि कुदरत का मनतव्य उसे अकेला रखना है तो फिर उसके अंदर प्रेम व पुरूष के प्रति आकर्षण क्यों भरा ? इस मूल प्रवृत्ति को ही खत्म कर देना था................ पर यह प्रवृत्ति नहीं होती तो क्या वह पूर्ण स्त्री होती ! और अधूरी स्त्री बनकर क्या वह सुखी होती ! अधूरी स्त्री की कल्पना से ही वह डर जाती है। उसने अपूर्ण मनुष्यों की तड़प देखी है जो उसकी तड़प से हजार गुना ज्यादा है। नहीं......नहीं.......वह जैसी है...........वैसी ही ठीक है। ठीक है उसे किसी पुरूष का पूर्ण प्रेम नहीं मिला, पर किस स्त्री को पुरूष सम्पूर्ण प्रेम देता है ? पुरूष का प्रेम अक्सर बँटा हुआ ही होता है। यह उसकी प्रवृत्ति है। सम्पूर्ण प्रेम तो स्त्री ही कर सकती है।

प्रेम पीड़ा का दूसरा नाम है और नयी पीढ़ी इस पीड़ा से दूर भाग रही है। प्रेम का स्वरूप बदल रहा है। वह रूहानी से दैहिक हो गया है। पर वह नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच की कड़ी है इसलिए प्रेम उसके लिए आत्मा की पुकार है, तो देह की आकांक्षा कम ! वैसे वह देह और मन को अलग नहीं कर पाती है। आखिर मन देह में ही तो अवस्थित है, वरना मृत्यु के बाद वह गायब नहीं हो जाता। यह अलग बात है कि पूरे शरीर का पोस्टमार्डम करने पर भी डॅाक्टर मन की सत्ता कहीं नहीं पाते। मन का पर्याय दिल शरीर में जरूर है और वह खून साफ करने वाली एक मशीन की तरह है। यह उस मन की जगह नहीं ले सकता, जो आदमी के पूरे व्यक्तित्व को संचालित करता है। कुछ लोग मन को शरीर से अलग पर उसके इर्द-गिर्द मँडराता कोई किसी अदृश्य तत्व मानते हैं। जो भी हो यह दर्शन की बात है।

जब वह उनके बारे में सोचती थी तो उसे सुख-शान्ति मिलती थी । उनके जीवन में भी तो किसी का एकनिष्ठ प्यार नहीं था । अपना घर-परिवार नहीं था, फिर वे क्यों कर शांत रहते थे ? उनके पास भी तो एक सुंदर, स्वस्थ युवा शरीर था, फिर क्या उनमें वे लालसाएँ नहीं होंगी? किस तरह वे उसे नियंत्रित या दमित करते होंगे ! क्या कभी भी उनका मन विचलित नहीं होता होगा? वे उन हिन्दू संन्यासियों की तरह भी नहीं थे, जो मांस-मदिरा या भौतिक सुख-साधनों का उपभोग नहीं करते । वे तो आम लोगों कि तरह सब कुछ खाते-पीते थे । इन सबमें उनके धर्मानुसार कोई संयम-नियम नहीं था । हॉ, काम-वासना हर तरह से वर्जित था । हांलाकि साथी अध्यापिकाएँ बातचीत में संन्यासियों के संयम-नियम पर शंका व्यक्त करती थीं । उनके अनुसार धर्म की आड़ में वे लोग ’सब कुछ’ करते हैं | ‘सब कुछ’|, पर बँधते नहीं। वैसे भी उन जैसे सन्यासियों को एक स्थान पर ज्यादा समय तक उन्हें नहीं रखा जाता था, शायद इसलिए भी कि उन्हें उस स्थान या वहाँ के लोगों से मोह-माया ना हो जाए ? संन्यासी बनाने की प्रक्रिया में भी उनको भावनाओं के शमन की ट्रेनिंग मिली होती है। बारहवीं कक्षा पास करते ही उन्हें ट्रेनिंग पर भेज दिया जाता है | पंद्रह वर्षों तक कठोर संयम-नियम की ट्रेनिंग !इस अवधि में अगर वे विचलित हो जाएँ तो अपने घर-संसार में वापसी कर सकते हैं अर्थात विवाह वगैरह कर सकते हैं | पर कम ही लोग ऐसा करते हैं क्योंकि घर –परिवार द्वारा वे पहले ही धर्म को दान दिए जा चुके होते हैं| अक्सर गरीब माता-पिता अपने कई बच्चों में से एक को दान दे देते हैं, इसके पीछे धार्मिक आस्था जिम्मेदार है कि गरीबी-यह शोध का विषय हो सकता है | टेनिंग पूरा होते ही वे अच्छी पोजीशन में आ जाते हैं | प्रतिभा के अनुरूप उन्हें काम मिल जाता है और वैवाहिक जीवन को छोड़कर जीवन का हर सुख वे प्रचुर मात्र में भोगते हैं | अपने घर-परिवार में भी कभी-कभार जा सकते हैं| हाँ, यौन उनके लिए अक्षम्य अपराध माना जाता है |

वह अक्सर सोचती है -मनुष्य के सहज संवेगों को यूँ नियन्त्रित कर धर्म किस आदर्श की स्थापना करना चाहता है ? अक्सर धर्म-स्थलों पर तमाम व्यभिचार की खबरें वह पढ़ती है। पवित्र स्थानों पर समलैंगिकता, बाल-व्यभिचार की खबरें उसे विचलित करती हैं। क्या यह विकृतियाँ संवेगों के शमन का परिणाम नहीं ? वह जानती है कि हर संन्यासी गलत आचरण नहीं करता, पर कुछ तो करते हैं। फिर वे क्यों संन्यासी बनते हैं ? वापसी क्यों नहीं कर लेते ?! संन्यास मन का एक भाव है। यदि किसी व्यक्ति में यह भाव प्रचुर मात्रा में है, तो वह संन्यास में जा सकता है पर जिसमें सांसारिक सुख-भोग की लालसा है उसे दिखावे के लिए संन्यस्त नहीं होना चाहिए।

पर जब वह उनके चमकते चेहरे और शांत..........मधुर आवाज को सुनती थी, तो जैसे सारी काम-वासनाएँ स्वतः भाग जाती थीं और एक पवित्र औदात्य भाव का जन्म होता था । उसे विश्वास था कि वे कभी गलत नहीं हो सकते। वह यह भी जानती कि अगर वह उनसे प्रेम निवेदन करेगी तो वे नाराज हो जाएंगे। इसलिए वह अपने पर संयम रखती थी । बहुत जतन करके वह उन्हें अपने दिल-दिमाग पर छाने नहीं दे रही थी, पर जब भी उनकी बड़ी-बड़ी मुस्कुराती आाँखों को देखती, उसे कुछ हो जाता । वे अक्सर उसे देखकर मुस्कुरा देते (यह उनका स्वभाव था ) और वह उस मुस्कुराहट को ’खास’ समझती थी । उनके मन में उसके प्रति क्या भाव है, वह नहीं जानती, पर वे उसको सम्मान अवश्य देते थे । जब कभी वह किसी समस्या को लेकर उनके पास गई। उन्होंने ध्यान से सुना और तत्काल उसका समाधान कर दिया था । साथ काम करने वाले कहते भी थे कि ’वे आपको ज्यादा मानते हैं।’ पर वह भी तो कभी अपने हित के लिए उनके पास नहीं गयी। छात्रों या अध्यापकों से जुड़ी बातों के लिए जाती थी । शायद उसकी उच्च शिक्षा व लेखन-कार्यां से वे प्रभावित हो या फिर अनुशासन बद्ध ढ़ंग से शिक्षण कार्य करने के कारण । यह भी सच था कि वह उनके लिए उतनी खास नहीं थी, जितना वे उसके लिए थे । उसे पता था कि कोमल व्यक्तित्व के स्वामी होने के बावजूद वे इतने कठोर जरूर हैं कि उसकी गलती पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दें। नौकरी उसकी जरूरत थी, इसलिए उसने अपने मन को हिदायत दे दी थी कि उनकी तरफ ना जाए, पर मन कहाँ हिदायतें मानता था ?

उनसे लगाव कुछ अलग का ही तरह का था । उसमें कोई वासना नहीं थी ....... उम्मीद नहीं थी । पाने की चाहत नहीं, ना पाने की कोशिशें थीं । बस एक राहत थी, एक सबक था । भटकता मन तब इसलिए थिर हो चला था कि जब वे थिर हैं तो वह क्यों नहीं ? उसने तो जीवन के खट्टे-मिट्ठे अनुभव लिए है। टुकड़े-टुकड़े में ही सही प्रेम पाया है......... ’मन-मयूर नाचा है देखकर प्रेम घन’ पर वे तो कोरे हैं अनुभव-हीन । हो सकता है उनके पास भी अलग तरह के ढेर सारे अनुभव हों पर वे उससे अलग अनुभव ही होगे। वे ऐसे थे कि कोई भी उन्हें प्यार कर सकता था । अघ्यापिकाओं, छात्राओं और महिला अभिभावकों में वह उनके लिए आकर्षण साफ-साफ देखती थी ।पर वे निर्लिप्त रहते हैं | हालांकि सबसे मुस्कुराकर बात करना उनकी आदत है| उनकी इस आदत से अक्सर स्त्रियाँ भ्रम में पड़ जाती हैं | वह उनके प्रति एक दिव्य प्रेम से भरी है | उसके मन की तृष्णा समाप्त होती गयी है| उनके कारण ही वह जिंदगी को, प्रेम को समझ पाई |

पहले वह कहाँ जानती थी कि जिस पुरूष को, जिस प्रेम को वह बाहर ढूंढ रही है, वह उसके ही भीतर है | बाहर के पुरूषों में उसकी झलक मात्र देखकर उनकी तरफ दौड़ती रही और तमाम दुख उठाए| दुनिया का कोई पुरूष उसके भीतरी पुरूष की तरह नहीं हो सका | हो भी कैसे सकता था | उसके अस्तित्व का अर्ध हिस्सा जो नहीं था | उसको उसी के रूप में समझने वाला, उसको उसकी सारी कमियों, खूबियों के साथ स्वीकार करने वाला | बाहरी पुरूषों का भ्रम शीघ्र टूट जाता रहा और उसका जीवन भटकाव बन कर रह गया | पर अब वह थिर हो चली है | प्रेम के लिए अब उसे किसी अन्य पुरूष की तलाश नहीं है| उसने अपने पुरूष को अपने भीतर पा लिया है और खुश है, तृप्त है | वह पुरूष शिव है| ऊर्जा का असीम श्रोत | उसकी ऊर्जा बाहर नि:सरित नहीं होती| उसके ही पूरे अस्तित्व में संचरित होती रहती है | इस शिव ने उसका सारा विष पी लिया है | वह नवीन हो उठी है यौवन पा रही है खुद में शक्ति पा रही है | इस पुरूष से उसका कोई संघर्ष नहीं, विमर्श नहीं, टकराहट नहीं, ऊब नहीं, एकरसता नहीं | इस पुरूष से उसका चिर संयोग है, वियोग होता ही नहीं | दोनों मिलकर एक हो गए हैं | यह अस्तित्व से अस्तित्व का प्रेम है जो दुनियावी प्रेम में नहीं हो सकता | वह सोचती है कि काश जीवन के प्रारम्भ में ही वह इस सत्य को समझ गयी होती तो आज उसका जीवन दूसरा होता |

यह खाला का घर नहीं है

अनामा को जीवन के उत्तर्राद्व में जिन पुरूषों की याद आती है, उनमें अभय का स्थान सबसे ऊपर है। कारण स्पष्ट है अभय से उसे जो सुख मिला, वह किसी से नहीं मिला | हाँलाकि अभय को स्वयं इस बात का भान नहीं होगा। उसके अनुसार तो उसने प्रेम जाल में फाँसकर उससे देह सुख पाया था। आजकल की पीढ़ी इसे अपनी जीत समझती है, पर वह नहीं जानती कि पाने के भ्रम में वह भी इतना कुछ दे जाती है कि स्त्री की नीरस जिन्दगी में रस वर्षा हो जाए | आज भी अभय का एक-एक स्पर्श, उसके प्यार का उद्दाम आवेग उसे याद है ।उसे बाँधने के भ्रम में वह खुद बँध गया था और ना चाहकर भी उसके पास खिंचा चला आता। कई बार उसने बताया भी कि वह उससे दूर रहना चाहता है, क्योंकि पास आने पर वह खुद को रोक नहीं पाता। वह किसी दूसरी लड़की से वर्षों से प्रेम करता था और उससे किसी बेलेंटाईन डे को विवाह करने का वादा कर चुका था क्योंकि उसी दिन को उससे पहली बार मिला था। वह उसकी बातों को चुपचाप सुनती। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। कोई शिकायत नहीं करती। उसे उससे कोई उम्मीद भी नहीं थी, पर उसका साथ उसे बहुत अच्छा लगता था। कारण भी साफ था, वह अकेली थी और उसके जीवन में कोई पुरूष नहीं था। यौवन भी अभी विदा नहीं ले पाया था, पर अभय तो नवयुवा था। वह उसकी एक सहेली का घनिष्ठ मित्र था और उसके साथ ही उसके घर आया था। फिर आने लगा और धीरे-धीरे उसे अपना बनाता चला गया। उसने उसे रोका और समझाया भी। सहेली भी नाराज हो गई। पर वह नहीं माना। जाने क्यों वह उसे इतनी अच्छी लगी! या शायद उसे अकेली समझकर वह आगे बढ़ा। सहेली ने बाद में बताया कि वह स्त्री सुख पाने के लिए बेचैन रहता था। विवाह से पूर्व यौन अनुभव लेना चाहता था पर उसकी प्रेमिका विवाह पूर्व इसकी इजाजत नहीं देती थी| और कहीं और के लिए उसके पास पैसे नहीं थे । एकांत में मिलने की जगह भी तो खतरे से खाली नहीं होती| कहीं पुलिस का डर तो कहीं समाज का। वह बदनाम भी नहीं होना चाहता था। ऐसे में अनामा उसे सुरक्षित विकल्प लगी। अनामा को इन चीजों से कोई मतलब नहीं था। उसे बस अभय अच्छा लगता था। उसका ऊँचा कद, सुंदर चेहरा और सौम्यता उसे पसंद आई। दूसरी मुलाकात में ही अभय ने उसे चूम लिया और वह नाराज भी नहीं हो पाई। उसे अच्छा ही लगा। फिर तो जल्द ही दोनों एक हो गए और अक्सर मिलने लगे। एक दिन उसने अपनी प्रेमिका के बारे में बताया और दुःखी स्वर में कहने लगा कि उसके साथ छल कर रहा है पर खुद को रोक नहीं पाता। अनामा को इस बात का दुःख थां कि उसके इतने करीब होने के बाद भी वह मन से उस लड़की से जुड़ा है। लड़की का अभय से गहरा लगाव था, इसका आभास अनामा को अक्सर होता था। अभय जब भी उसे बाहों में भरकर प्यार कर रहा होता, लड़की का फोन जरूर आता। जैसे उसे कुछ आभास होता हो। कुछ क्षणों के लिए अभय ढ़ीला पड़ता फिर अपने रंग में आ जाता। हाँ, बाद में उसका चेहरा जरूर लटक जाता और यह कहते हुए जाने की जल्दी करने लगता कि अभी उससे मिलने जाएगा या वह बहुत गलत काम कर रहा है। अनामा आहत नजरों से उसे देखती, पर कुछ भी शिकायत ना करती। अभय का साथ उसे इतना प्रिय था कि वह कुछ भी सह सकती थी। उसने अपने भीतर की चेतन स्त्री को सुला दिया था, जो तर्क, विमर्श या शिकायत कर सकती थी । वह जानती थी अभय उसका नहीं, उस पर उसका कोई अधिकार नहीं, इसलिए जो कुछ उससे मिल रहा है, उसे ही स्वीकार करने में भलाई है। वह अपनी तरफ से कोई ऐसी गलती नहीं करना चाहती थी, जिससे अभय भी उसके जीवन से चला जाए और वह फिर अकेली हो जाए।पर अभय को तो जाना ही था, वह चला गया और फिर कभी नहीं लौटा। शायद उसने शादी कर ली थी और नए जीवन की खुशियों में गुम हो गया था। उसकी अच्छाइयाँ, उसका प्रेम यहाँ तक कि उसकी देह भी उसे बाँध न सकी। पर उसका प्यार वह कभी नहीं भूल पाई क्योंकि फिर कभी किसी पुरूष से अभय की तरह नहीं जुड़ पाई। अभय को वह प्रेम करने लगी थी, हाँलाकि वह उतना अच्छा इंसान नहीं था। वह एक साथ कई लड़कियों से दोस्ती रखता था। जिन्दगी को खुलकर जीने में उसका विश्वास था। उसके पास एक छोटी सी नौकरी थी, पर घर का इकलौता होने के कारण उसे कोई अभाव नहीं था| लड़कियों पर वह पैसे खर्च नहीं करता था, फिर भी लड़कियों में वह अपने आकर्षक व्यक्तित्व व रोमानी बातों के कारण लोकप्रिय हो जाता था। वह उस दिन तो हैरान हो गयी, जब उसकी चचेरी बहन रेखा पर भी उसका जादू चल गया। बहन उसके यहाँ एक हफ्ते के लिए रहने आई थी। उसका भी एक प्रेमी था, जिससे वह मिलकर आई थी। यह जानने के बाद भी कि अभय से उसके अंतरंग संबंध है, वह अपने हाव-भाव व सौन्दर्य से उसको लुभाने की कोशिश कर रही थी। वे दोनों उसके सामने ही आँखों ही आँखों में बतियाने लगे और वह शर्म के मारे आँखें चुराने लगी। अभय तो चलो पुरूष है, थोड़ा दिलफेंक भी, पर बहन को क्या हुआ है? वह तो उसके बेरंग जीवन से वाकिफ है। कितने दिनों बाद उसको थोड़ी सी खुशी मिली है| उधार की ही सही। वह उसे भी छीन लेना चाहती है। वह उससे उम्र में छोटी है खूबसूरत भी। लगभग अभय की उम्र् की इसलिए अपने सौन्दर्य का सिक्का मनवाना चाहती है। यह दिखाना चाहती है कि देखिए मैं क्या हूँ? ये किस तरह की निर्मम मानसिकता है स्त्रियों की। एक स्त्री दूसरी स्त्री से उसका प्यार छीनकर खुश होती है। इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता है? पर क्या यह अपनी ही स्त्री जाति के साथ छल नहीं है? पुरूष बेवफा किसी दूसरी स्त्री के भरोसे ही होता है। अगर स्त्रियाँ ऐसे किसी पुरूष को दुत्कार दे, जो अपनी स्त्री के प्रति वफादार नहीं, तो कोई समस्या ही नहीं हो। पर 'एक भागे हजार धावे' जैसी बात पुरूषों के पक्ष में जाती है। आज की पीढ़ी में तो यह मानसिकता और भी जोर पकड़ रहीं है कि एकनिष्ठता मूर्खता है। जहाँ और जब अवसर मिले खुलकर जी लेना चाहिए।

जब अभय ने उससे बहन को घुमा लाने की इजाजत मॉंगी, तो उसने मना कर दिया। इस पर उसने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा-कब तक रोक पाएँगी ? घर में नहीं तो हम बाहर मिल लेंगे। बहन ने भी मौन स्वीकृति मुस्कुराकर दी। अनामा को आघात लगा। उस दिन के बाद उसने अभय को घर तब तक नहीं बुलाया, जब तक बहन चली नहीं गयी। उस घटना ने उसके मन में अभय के लिए खटास पैदा की। अपनी माँ की बात याद आई -मर्द तो कुत्ता होता है, जो हर हड्डी की तरफ लपकता है। पर बहन को क्या कहेंगे? पति के अलावा प्रेमी भी पाल रखा है। फिर भी बस नहीं। इतनी भी नैतिकता नहीं कि कम से कम बड़ी बहन की इस खुशी को बख्श दे। वह जानती है कि कुछ कहने पर बहन उसके चरित्र पर अंगुली उठाएगी, पर क्या बहन और उसकी स्थिति में अंतर नहीं? भरे पेट और खाली पेट का अंतर। किसी के साथ होने और अकेले रहने का अंतर।

वह यह जानती है कि वह जो कर रही है वह भी सही नहीं है। पर वह भी इंंसान है, जवान है उसकी भी कुछ इच्छाएँ हैं। अभय खुद उसके जीवन में आया था, खुद उसने उसकी तरफ कदम बढ़ाया था। पति से अलग होने के वर्षों बाद वह उससे जुड़ी थी।वह कभी पति के साथ रहते प्रेमी से संबध नहीं बना सकती। उसकी नैतिकता कभी इस बात की इजाजत नहीं देती। वह हैरान रह जाती है जब बहन को पति से प्यार जताते देखती है। दिन में प्रेमी के साथ समय बीताने के बाद, रात में पति की बाहों में सुकून से सोती है। ऐसा कैसे कर लेती हैं स्त्रियाँ ? एक समय में एक से अधिक पुरूष के साथ समान भाव से प्रेम व समर्पण! वह दूसरी स्त्रियों से अलग है, तभी तो उसकी जिंदगी इतनी एकाकी है । छल-कपट, समझौता वह नहीं कर पाती। कहीं इसी कारण तो उसकी जिंदगी से एक-एक करके सारे मित्र नहीं चले गए क्योंकि वह बहन-सी नहीं है, अभय सी नहीं है। स्वतंत्रता की पक्षधर होते हुए भी वह स्वच्छंद नहीं है। अभय लौटा नही, तो उसने सब्र कर लिया। जानती थी उसकी प्रेमिका उसके जीवन में है। वह भी किसी लड़की का हक नहीं छीनना चाहती। फिर अभय उससे प्यार भी तो नहीं करता था। फिर जितना प्यार उसके हिस्से का था, उसे मिल चुका था।

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