त्रिखंडिता - 1 Ranjana Jaiswal द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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त्रिखंडिता - 1

त्रिखंडिता

भूमिका

जिंदगी राजनीति प्रेरित है और यह राजनीति सत्ता की राजनीति है, जो चारों तरफ व्याप्त है | परिवार हो या पास-पड़ोस | राज्य हो या समाज | प्रदेश हो या देश | गाँव हो या कस्बा| स्त्री हो या पुरूष| प्रेम हो या विवाह | अपने हों या पराएँ | रिश्ते हो या नाते | साहित्य या कला | थियेटर या फिल्म | पुरस्कार या सम्मान | नियम या कानून हर जगह एक जबर्दस्त राजनीति है | शह और मात की राजनीति, दिल की जगह दिमाग की राजनीति | जीत उसी की जो कूटनीतिज्ञ, दुनियादार, बहुरूपिया, नौटंकीबाज । सफल वही जो राजनीति की नब्ज समझ गया | वरना फ्लाप सारी संवेदना, भावना, अच्छाई, सच्चाई के बावजूद | सबसे बड़ी बात जिंदगी की राजनीति बड़ी ही सूक्ष्म होती है, दिखाई नहीं पड़ती | कुछ लोग तो जीवन के अंतिम क्षणों तक इसे नहीं समझ पाते, कुछ सब कुछ खत्म होने के बाद समझते हैं | कुछ उसी में घुल-मिल जाते हैं, कुछ झींकते -पछताते हैं पर कुछ कर नहीं पाते हैं | कुछ ऐसे भी बदनसीब हैं जो कलम उठाते हैं और फ्लाप लेखक बन जाते हैं |

जब स्त्री पुरूष के लिए नियम निर्धारित करना था, तब हमारे नियम. निर्धारक इसी राजनीति से प्रभावित थे, जिसका खामियाजा आज भी स्त्री भुगत रही है | धर्म भी राजनीति से मुक्त कहाँ हैं ? वरना इस इक्कीसवीं सदी में भी धर्म को लेकर युद्ध की स्थिति नहीं बनती | स्वार्थ, नफरत, ईर्ष्या, भेद-भाव, हिंसा, अभिमान इस राजनीति की पहचान है | इसके शिकार हर युग में अच्छे और सच्चे लोग रहे, आज भी हैं | यह वही राजनीति है जो बच्चों, किशोरों, युवाओं और प्रौढों तक को विभक्त मानसिकता और दुहरे व्यक्तित्व वाला बना रही है | यह वह बीमारी है जो परंपरा से सबकी रगों में पैबस्त है | आदमी जान ही नहीं पाता कि वह इस लाइलाज बीमारी से ग्रस्त है | वह समझ ही नहीं पाता कि क्यों दूसरों को दुख देकर, सताकर या शोषण कर उसे आत्मतुष्टि मिल रही है ?कभी -कभी तो वह हैरान हो जाता है कि उसने ही यह अकरणीय कर्म किया है | विकृति उसके दिल -दिमाग का इस तरह हिस्सा बन जाती है कि वह अपराध पर अपराध करता चला जाता है, जाने भी अनजाने भी और फिर पूरी उम्र खुद को सही साबित करने में निकाल देता है | अपनी आत्मा को वह पहले ही मार देता है, क्योंकि वही उसे रोकती है और बाद में प्रायश्चित करने को कहती है | कभी किसी आदमी को खुद को गलत कहते हुए नहीं देखे जाने के पीछे यही राजनीति है | वह हमेशा दूसरों को दोष देता है | खुद को सही साबित करने के लिए भी राजनीति करता है और दूसरों को गलत साबित करने के लिए भी | दुखद यही है कि वह इन बेकार के कार्यों में अपने कीमती मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इस्तेमाल करता है जो रचनात्मक हो सकता था| जो राजनीति की सूक्ष्मता को पहचान कर उससे मानवता को बचाने का प्रयास कर सकता था |

हर जगह मौजूद इसी राजनीति की थोड़ी समझ ने मुझे यह उपन्यास लिखने को प्रेरित किया | अलग-अलग कहानी से लगने वाले अध्यायों में इसी राजनीति की एकरूपता है | उम्मीद है पाठक इसे पकड़ पाएँगे |

इस उपन्यास का शीर्षक ‘त्रिखंडिता’ है, जिसमें मुख्यत: तीन स्त्रियों अनामा, श्यामा और रमा की कथा है पर तीन खंडों में बंटने के बावजूद यह एक ही स्त्री की कथा है, जिसमें पूरी स्त्री जाति की व्यथा शामिल हो गयी है|

निंदा फ़ाजली के शब्दों में कहूँ तो-

छोटा लगता था अफसाना

मैंने तेरी बात बढ़ा दी

सोचने बैठे जब भी उसको

अपनी ही तस्वीर बना दी |

रंजना जायसवाल

1

प्रारम्भ

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड के कारण कालोनी के सभी लोग अपने घरों में शाम से ही बंद हैं | चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है | पर रमा को नींद नहीं आ रही है | वह सोच रही है कि अब तो वर्ष 2015 भी अपनी अंतिम साँसें ले रहा है | कितना सबल था यह पूरे साल | बहुत कुछ गुजरा इसके शासन काल में | खट्टी और कड़वी यादें ज्यादा देकर जा रहा है यह | इस वर्ष कई विभूतियों, साहित्यकारों, विद्वानों ने देह-त्याग किया | भूकंप आया | माँ चली गयी | और भी कई हादसे हुए | पूरे देश में कभी पुरस्कार वापसी तो कभी असहिष्णुता के नाम पर हंगामा बरपता रहा | राजनीतिक उथल.पुथल तो खैर हर वर्ष की बात है|

रमा को अब हर घटना जीवन की नश्वरता का बोध कराने लगी है | जीवन की समीक्षा के लिए उकसाने लगी है | वैसे भी उम्र के पचासवें शिशिर में स्त्री वैराग्य की ओर मुड़ जाए तो क्या आश्चर्य ! क्या सच ही संसार से उसका मोह भंग हो रहा है !वह खुद को टटोलती है तो कोई संतोषजनक उत्तर नहीं पाती | इतना तो लगता है कि वह बदल गयी है | बहुत कुछ परिवर्तित हुआ है उसमें | देह-मन, भावना सभी स्तरों पर | पर यह अवसाद भी हो सकता है | माँ की मृत्यु ने उसे हिला दिया है | अब हर रात उसे अपनी मृत्यु का आभास होता है | एकाएक जैसे वह बूढ़ी हो गयी हो | माँ थी तो वह खुद में कितनी ऊर्जा, शक्ति और यौवन पाती थी, मृत्यु के बारे में तो कभी सोचती ही नहीं थी, पर माँ अपने साथ उसकी सारी खुशी, सारी जिजीविषा लेकर चली गयी | अब तो वह जैसे मौत के साये में ज़िंदगी को जी रही है | काम करने की मजबूरी है, इसलिए काम किए जा रही है | एक-सी दिनचर्या, एकरस- सी जिंदगी | इस समय अगर उसके साथ कोई होता, तो शायद वह इतनी नीरस जिंदगी नहीं जीती, पर उसकी किस्मत में कहाँ किसी का साथ लिखा था ?शायद उसमें ही कोई कमी थी कि वह अकेली रह गयी या शायद वह इस दुनिया के लिए बनी ही नहीं थी | वह जीवन भर किस्मत से लड़ती रही, पर कहाँ जीत पायी उससे ?पर हार भी तो नहीं मानी है | हार न मानना जीत से कम नहीं होता | अपने अस्तित्व के लिए, अपनी पहचान के लिए वह जीवन भर संघर्ष करती रही, लड़ती रही तो योद्धा तो हुई ही |

तुम्हारा जीवन एक बृहद उपन्यास है | कभी किसी ने रमा से कहा था | आज वह सोचती है कितना सत्य कहा था | सचमुच उसका जीवन एक उपन्यास बन गया है| जिसके कई अध्याय हैं | हर अध्याय अपने आप में एक पूरा जीवन है | अध्याय के पात्र अलग हैं उनकी परिस्थितियाँ अलग हैं पर सभी अध्यायों की नायिका वही है | लगभग एक सी पीड़ा की भोक्ता | एक-सी नियति की शिकार | वही अकेली लड़ती स्त्री | जब भी वह अपने अतीत की ओर देखती है, देखती रह जाती है| क्या यह उसी का जीवन था ? एक जीवन में कितना जीवन जीती रही है वह !क्या उसने ही यह सब भोगा है ! एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रवेश आसान तो नहीं होता | पुरानी देह छोडनी पड़ती है, नयी देह में प्रवेश करना पड़ता है | हर जीवन से स्मृतियाँ जुड़ी होती हैं-खट्टी-मिट्ठी, कड़वी- कषाय | जो अचेतन से चेतन में आकर तड़पाती हैं क्योंकि मन आत्मा तो वही रहती है देह बदलने से बदल थोड़े जाती है ! अपनी आत्मा पर कितने आघात झेलती रही है वह !जीवन में सब कुछ लुटाकर भी वह कुछ न पा सकी | पाया तो अकेलापन, दर्द, लांछन | बचपन में उसका हाथ देखकर एक ज्योतिष ने कहा था - अजीब हैं इस लड़की के हाथ की लकीरें | सब कुछ होगा पर इसका कुछ नहीं होगा | सच ही जीवन में कुछ तो नहीं मिला उसे | जो मिला भी कहाँ रहा उसका? वह सबकी थी, पर उसका कोई नहीं हुआ | आज उसके जीवन से जुड़े हर शख्स के पास सब कुछ है | पर उसके पास कुछ नहीं | दुनिया के सामने वह एक छ्द्म जीवन जीती है | सच को सच नहीं कह पाती |

अकेलेपन को भरने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया, फिर भी अकेली रह गयी | जब भी उसने सामान्य जीवन की आकांक्षा की, जरा भी असावधान हुई या विश्राम लिया, वहीं फंसी, वहीं उसके जीवन में नए पन्ने जुड़े। शोषित हुई | कुछ और पीड़ा हिस्से में आई |

अब उम्र के इस पड़ाव पर उसे मान ही लेना चाहिए कि अकेलापन उसकी नियति है पर देख रही है जाने कितने पन्ने फड़फड़ा रहे हैं उसके उपन्यास का पृष्ठ बनने के लिए | क्या रोक पाएगी वह उन्हें जुडने से ? जीवन अभी शेष है तो उपन्यास पूरा कैसे हो सकता है ?