त्रिखंडिता - 11 Ranjana Jaiswal द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • आखेट महल - 19

    उन्नीस   यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़...

  • अपराध ही अपराध - भाग 22

    अध्याय 22   “क्या बोल रहे हैं?” “जिसक...

  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

श्रेणी
शेयर करे

त्रिखंडिता - 11

त्रिखंडिता

11

अरे, इतना बड़ा षडयंत्र। अलका की इतनी कुत्सित मंशा। एक अकेली स्त्री को स्त्रियाँ भी नहीं समझतीं। उसके खिलाफ षड़यंत्र रचती हैं। उसका सब कुछ छीन लेना चाहती हैं। अलका का उसने क्या बिगाड़ा है। उसने तो उसकी बात की लाज रखने के लिए सलमा को अपने घर में रख लिया...............और यह सलमा इसीलिए उससे प्रेम का दिखावा करती थी......उसके करीब आने की कोशिश करती थी। हे ईश्वर, यह सब क्या है ? सलमा की जगह कोई लड़का होता तो वह सावधान रहती पर लड़की होते हुए भी सलमा...............किस पर विश्वास किया जाए। उसकी अच्छाई का यह इनाम!लगता है अकेली स्त्री को अकेले ही जीवन व्यतीत करना होगा। किसी का साथ चाहना अपने लिए संकट बुलाना है। उसे याद आया कि सलमा से पहले कई युवा लड़के सलमा वाली ही मंशा से उसके करीब आने की कोशिश कर चुके हैं पर वह इतनी सावधान रही कि उनकी दाल नहीं गली और अब सलमा लड़की होकर भी..................। शायद इसी कारण हमारे समाज में कोई भी स्त्री अकेले नहीं रहना चाहती। सब कुछ सहकर भी अपने पति या परिवार के साथ रहती है। दूर से देखने पर अकेली स्त्री स्वतंत्र व सुखी नजर आ सकती है पर पग-पग पर उसे परेशानियाँ झेलनी पड़ती है। हर दुसरा आदमी उसे लूटने को तैयार दिखता है। उसके कष्ट....., दुख, परेशानियॉं कोई नहीं देखता, देखता है तो तन और धन।

रमा सोच नहीं पा रही थी कि सलमा का क्या करे ? कभी उसे उसके माता- पिता को दिऐ वचन याद आ जाते, कभी उसके गलम कदम.....असमान्य हरकतें ! वह इतनी कठोर नहीं बन पा रही थी कि एकदम से उसे जाने को कह दे।

दूसरे दिन उसने उसकी चोट को देखते हुए ट्यूशन न जाने को कहा और खुद कॉलेज चली गई, पर लौटने पर पता चला कि वह छत पर टहलती रही और लगभग सभी पड़ोसियों ने उसके चेहरे पर लगे चोट के निशान देख लिए हैं। यानी वह उसे इस तरह भी बदनाम करना चाहती है। उसने फिर विभा से बात की तो वह चौंक पड़ी ...तुमने अब-तक उसे घर से निकाला नहीं। गजब हो तुम ! ’आ बैल मुझे मार’ इसी को कहते हैं। वह लड़की तुम्हें बदनाम कर रही है। तुमसे फायदा उठा रही है अब क्या चाहती हो ? किसी दिन गुंडे को बुलाकर वह तुम्हारा गला भी कटवा सकती है। या फिर थाने में जाकर बयान भी दे सकती है कि तुम गलत कार्य करवाने के लिए उसे टार्चर करती हो...............फिर क्या करोगी तुम ! तुम्हारा बना-बनाया रूतबा एक पल में खतम हो जाएँगा। आदर्श की बातें ठीक हैं पर इतना आदर्शवादी होना ठीक नहीं। जल्द से जल्द उसे घर से विदा करो। अभी कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ा है।’

रमा को विभा की बाते सही लगी। सलमा को कई बार उसने एक लड़के के साथ देखा भी था। पूछने पर उसे अपने चचेरा भाई बताया था। उसने अपने घर लड़कों का आना वर्जित कर रखा था, इसलिए सलमा किसी को घर नहीं बुलाती थी। पर एक दिन कॉलेज से लौटने पर उसने ड्रांइग रूम में उस लड़के को बैठे देखा। उसकी त्योरी पर बल पड़ते देख सलमा बोल पड़ी-मैंने बुलाया है। मकान देखने जाना है। आप चाहती है न कि मैं यहाँ से चली जाऊं। उसने सोचा- चलो अच्छा है संकट अपने आप टला जाता हैं । दोनों साथ निकले पर उस रात सलमा नहीं लौटी, वह रात भर चिन्तित रही। गजब की दुस्साहसी लड़की है। पता नहीं कहाँ रह गयी ? सुबह होने पर सलमा आई और अपना सामान समेटने लगी। उसके पूछने पर बताया कि कमरा मिल गया था इसलिए रात को वहीं रूक गई थी।

अकेले.............वह चौंकी थी।

’नहीं असलम साथ था ......।’

सोई कहाँ ! बिस्तर तो ले नहीं गई थी।

’हाँ, पर एक चटाई मिल गई थी। उसी पर दोनों सो गए.........।’

एक साथ...........।

’हाँ, एक ही कमरा है न। चटाई भी एक थी पर कोई परेशानी नहीं हुई।’ फिर अचानक मुस्कुराकर बोली ’हम दोनो का पैर एक-दूसरे के सिर की तरफ था। आप गलत अर्थ मत निकालिएगा। वैसे मैं आपको बता ही चुकी हूॅ कि मुझे लड़कों में दिलचस्पी नहीं। और हाँ, एक रहस्य और भी बताती हूँ। असलम मेरा भाई नहीं, सिर्फ दोस्त है।दुस्साहस पर दुस्साहस ! कितनी अजीब है ये लड़की। इसे किसी भी बात पर और किसी से भी डर नहीं लगता।

तो मैं चलूँ.............वह ..इठलाई । ’ठीक है............।’ वह अनमने भाव से बोली।

आप तो मुझे रोक भी नहीं रहीं, बहुत कठोर हैं............खैर मैं आती रहूँगी........। आपको भूल नहीं सकती.........।’ उसने डबडबाई आँखों से उसकी तरफ देखा, पर रमा ने नजरें फेर लीं। उसका दिल राहत की सांस ले रहा था। फिर भी पूछ लिया अपने अम्मी-अब्बू को बताया..............।

’बता दूँगी आप चिन्ता ना करें..........।’ कहकर वह झटके से बाहर निकल गई। उसने अपना कर्तव्य समझकर सलमा के अब्बू को फोन किया ताकि सारी स्थिति बता सके, पर उन्होंने बडे़ ही अनमने ढ़ंग से बताया कि ’उन्हें पता है।’ और फोन काट दिया। उनके स्वर से पता चल रहा था कि वे उससे नाराज से थे। शायद सलमा ने यहाँ से जाने का जो बहाना गढ़ा था, उसमें वह निर्मम लोकल गार्जियन साबित हुई थी। सलमा पहले ही उन्हें विश्वास में ले चुकी थी। माँ-बाप का दिल भी अजीब होता है। हमेशा अपने बच्चों की बात ही उन्हें सत्य लगती है। निश्चित रूप से सलमा ने उसे ही दोषी ठहराया होगा, पर उन्हें तो एक बार उससे पूछना चाहिए था। माँ-बाप ने एक बार भी नहीं सोचा कि इस तरह लड़की भटकती रहेगी तो किस मंजिल पर पहुँचेंगी ? कहीं सलमा के माँ-बाप भी तो नकली नहीं थे। ऊँह, उसने खुद से कहा। वह मुक्त हुई, यही क्या कम है !एक वर्ष तक सलमा का फोन आता रहा। वह कभी प्रेमी की तरह बात करती, तो कभी प्रेमिका की तरह मचलती। कई तरह की शिकायतें करती। उसे कठोर, निर्दय, जालिम कहती। अब तक वह कई आवास बदल चुकी थी। शहर के जाने किन-किन गलियों से गुजर रही थी। एक दिन वह देर शाम उसके घर भी आ धमकी थी ताकि रात का हवाला देकर उसके पास ठहर सके ? पर घर में उसकी माँ को देखकर निराश हो गई और मुँह बनाकर चली गई। कई वर्षों बाद भी रमा का मन उसके लिए गहरे दःुख से भरा रहता है। अभी हाल में ही उसने उसको एक जगह देखा। सूखकर काँटा हो गई है। चेहरे की लुनाई गायब है। क्या-क्या ना हुआ होगा उसके साथ ! क्या होगा उसका भविष्य ? हाँलाकि वह बता रही थी कि कहीं नर्स हो गई है। अच्छा कमा रही है। बड़ा- सा घर लेकर रह रही है पर उसे देखकर ऐसा नहीं लग रहा था। उसके साथ एक अधेड़ गंदा- सा आदमी था। उसने दिन में भी पी रखी थी। उसी की मोटरसाईकिल पर बैठकर वह चली भी गई। वह कहती थी कि उसे पुरूषों से लगाव नहीं, फिर पुरूषों के साथ घूमती क्यों है ? निश्चित रूप से उसने पढ़ाई पूरी नहीं की होगी। पढ़ना उसका उद्देश्य था भी नहीं। जब वह उसके घर थी, उसने कितना समझाया था कि अगर वह अपनी बुरी आदतों को त्याग कर मन से पढ़ाई करेगी, तो वह ताउम्र उसकी परवरिश छोटी बहन की तरह करेगी। पर वह नहीं मानी । अक्सर ऐसी लड़कियों से उसका साबका पड़ता रहा है, जो गाँव-कस्बों से घरेलू हिंसा या शोषण के खिलाफ बगावत करके शहर आती हैं। छोटी-मोटी नौकरी या एनजीओ में काम करती हैं, पर धीरे-धीरे साथी पुरूष के जाल में फँसकर गलत रास्ता अख्तियार कर लेती हैं। आए दिन सेक्स रैकैट में ऐसी लड़कियाँ पकड़ी जाती हैं। उन्हें देखकर बहुत दुख होता है। ऐसी आजादी किस काम की ! एक मर्द के चंगुल से छूटकर अनेकानेक मर्दों का शिकार बनना या बनाना किस तरह की आजादी है !सलमा बुरी लड़की नहीं है, पर उसे समझना मुश्किल है। जाने कैसे वह गलत संगत में पड़ गई। उसे उसकी उस टीचर पर गुस्सा आता है, जिसने किशोरावस्था में ही उसे एक ऐसे रास्ते पर ला दिया कि वह भटकती ही गई। पर क्या पता टीचर वाली बात भी महज कोई कहानी हो। धारा के विपरीत तैरती यह लड़की शायद कुछ दिनों बाद ही डँस्टबिन में फेंक दी जाए, पर उसे तो हमेशा मलाल रहेगा कि वह उसके लिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई। आजादी की चाह के गुमराह हुई ऐसी सलमाओं को कौन सही रास्ते पर लाएगा, जब वे स्वयं सुधरने को तैयार नहीं हां।

रमा विचार में डूबी थी कि अचानक उसके फोन की घण्टी बजी ...मैं आपकी तरफ आई हूँ। क्या आज रात आपके पास रूक सकती हूँ ? वह घबरा गई, फिर संयत होकर बोली.......... ’नहीं...........अब कभी नहीं.......................।’ कहकर उसने फोन काट दिया, पर काफी देर दहशत से भरी रही। उसे सलमा................शराबी.....................फिर पुलिस सायरन की आवाज साफ सुनाई दे रही थी।

सात

फड़फड़ाते पृष्ठ

रमा जब भी प्रोफेसर चमन को देखती, एकटक देखती रह जाती थी ।सोचती कि काश उनके बाहरी व्यक्तित्व के अंदर छिपे इंसान की झलक उसे मिल जाए ! मिलता भी था पर वे इसे नहीं समझ पाते थे । उन्हें लगता था कि वह उन पर मुग्ध हो रही है। उनका बाहरी व्यक्तित्व आकर्षक था। गौर वर्ण, मझोला कद और सुंदर चेहरा। पद के हिसाब से चेहरे पर एक रोब और आँखों से झाँकता गर्व उन्हें भव्यता प्रदान करता था। बातचीत भी वे शालीन ढ़ंग से करते थें, पर अपनी बात को ऊपर रखने की कोशिश उनकी अहमन्यता को दर्शाती थी। वे विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे । एकाध किताबें भी लिखी थीं और उनके द्वारा संपादित कई पुस्तकें उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों का हिस्सा भी थीं। उनके लिखे नाटक कई जगह मंचित हो चुके थे, पर यह सब किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को सहज प्राप्त हो जाने वाली उपलब्धियाँ होती हैं। सभा-सम्मेलनों में अध्यक्ष पद, पाठ्यक्रमों में संपादित पुस्तकों का लगा होना किसी प्रोफेसर को यूँ ही प्राप्त हो जाने वाली चीजें हैं। हाँ, एक और बड़ी उपलब्धि अक्सर प्रोफेसरों को मिल जाती है, वह है उनकी सन्तानों को नौकरी। वे जानते हैं कि किस तरह पढ़ाई में गोल्ड मैडल, फिर लेक्चरर पद तक उनकी सन्तानें पहुँच सकती हैं। वे अपना पूरा जोर लगाकर अपनी संतानों का भविष्य सुरक्षित कर देते हैं। इसमें उनको कोई नैतिक बाधा नहीं लगती कि उनकी संतानों से ज्यादा सुयोग्य शिष्य या शिष्याएँ बेरोजगार है। वे अपने छात्र-छात्राओं से सहानुभूति रख सकते हैं, उनसे आदर्श की बातें कर सकते हैं, पर उनके लिए प्रयास नहीं कर सकते। करें भी कैसे ? आखिर अपनी संतानों के प्रति भी तो उनका दायित्व है। संतानें निकल जाती हैं, तो रिश्तेदारों की बारी आती है, फिर जाति-बिरादरी की। वे साम-दाम-दण्ड-भेद सबका सहारा लेते हैं। वैसे वे अपने छात्रों से बड़ी मीठी-मीठी बातें करते हैं। बेचारा शिष्य समझता है कि गुरूजी उसके सबसे बड़े हितैषी हैं, उसमें ही कोई कमी है जो कहीं सेलेक्ट नहीं हो पा रहा है। और जब तक वह गुरूजी के द्रोणाचार्य चक्रव्यूह को समझता है तब तक अभिमन्यु की तरह घिर चुका होता है और मारा जाता है।

रमा भी अब प्रोफेसर चमन को समझने लगी थी। हांलाकि वे उसे हमेशा भ्रम में ही रखने का प्रयास करते रहे थे । बड़ी-बड़ी आदर्शवादी बातें..........खोखली सहानुभूति और गाहे-बगाहे प्रेम निवेदन। वह उन्हें तब से जानती है, जब वे उसके कस्बे के काँलेज में लेक्चरर बनकर आए थे। वह उन दिनों बी0 ए0 पार्ट वन की छात्रा थी। उसे अच्छी तरह याद है कि वे कक्षा में लेक्चर देते समय हकलाने लगते थे...............नर्वस हो जाते थे। यह उनकी पहली नियुक्ति थी और उम्र भी कुछ ज्यादा ना थी। यही कोई उससे दस-पन्द्रह वर्ष ज्यादा रहे होगे। विद्यार्थी उनका खूब मखौल उड़ाते। पर जल्द ही उन्होंने कॉलेज में अपनी अच्छी जगह बना ली थी। वे साहित्यिक प्रतियोगिताएँ भी करवाते थे, जिसके कारण वे उसके बारे में जानने लगे थे। उसकी अशैक्षिक, गैर साहित्यिक और निम्न आय वर्ग वाली पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उनके मन में उसके लिए सहानुभूति को जन्म दिया। उनकी ऑंखों में उसके लिए प्रेम झलकने लगा, पर गुरू-शिष्या की मर्यादा को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने आकर्षण को प्रकट नहीं किया। पर स्त्री से पुरूष का आकर्षण कहाँ छिपा रह पाता है ? वह भी समझ गयी थी, पर उसके अपने मन में ऐसा कोई आकर्षण नहीं था। वे उसे बस अच्छे लगते थे। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में अपने लिए आकर्षण देखना उसे भी अच्छा लगता था। इससे अधिक वहाँ की कस्बाई संस्कृति में संभव भी नहीं था।एक दिन अचानक पता चला कि चमन सर की नियुक्ति एक बड़े शहर के विश्वविद्यालय में हो गई है। दुख हुआ और अच्छा भी लगा। दु:ख इसलिए कि वे चले जाएंगे और अच्छा इसलिए कि वे प्रगति कर रहे हैं। दोनों के बीच का आकर्षण अप्रकट ही रह गया।एमo ए0 करने के बाद उसे फिर एक बार चमन सर से मिलने का अवसर मिला। वह उन्हीं के विश्वविद्यालय में शोध करने आ पहुँची थी। विभाग में सर मिले तो बड़े प्रसन्न हुए। उसे बधाई दी। उसने अपनी इच्छा बताई कि वह उनके निर्देशन में शोध करना चाहती है तो वे थोड़े गम्भीर हो गए। पहला प्रश्न तो यही किया कि वह शहर में रहेगी कहाँ ! उसने कहा कि उसे विश्वविद्यालय के हॅांस्टल में जगह दिलवा दीजिए। वे सोच में पड़ गए, पर मना भी नहीं किया। वह उनके घर गई और उनकी पत्नी और बच्चों से मिली। रात ज्यादा हो जाने से वह कस्बे नहीं लौट सकती थी और दूसरे दिन विश्वविद्यालय में कुछ औपचारिकताएँ भी पूरी करनी थी, इसलिए चमन सर के घर ही रूक गई। वैसे भी इस शहर में वही एकमात्र उसके परिचित थे। और वह उन पर अपना कुछ अधिकार भी समझ रही थी। रजिस्ट्रेशन कराकर वह अपने कस्बे लौट गई। कुछ दिन बाद रिजल्ट आया तो पता चला कि उसके गाइड कोई और है। वह चौंक पड़ी। चमन सर से मिली तो वे क्षमा मॉंगते हुए बोले-’मेरी पत्नी ने मना किया है। उसके अनुसार तुम मुझसे फायदा उठाने की कोशिश करोगी। शहर में रहने, पढ़ाई-लिखाई..........बाद में नौकरी सब में सहयोग माँगोगी। वैसे तुम्हारे गाइड भी मेरे मित्र हैं.........कम्युनिस्ट हैं............तुम्हारी मदद करेंगे और कोई दिक्कत हुई, तो मैं हूँ ही...............।’