Lahrata Chand - 37 books and stories free download online pdf in Hindi

लहराता चाँद - 37

लहराता चाँद

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

37

साहिल हर रविवार को शैलजा से फ़ोन पर बात करता था। उस दिन भी साहिल ने फ़ोन किया। सूफी के बारे में पूछा।

- सूफी बाहर गई है बेटा, आजकल उसको दोस्तों से मिलने का समय भी कहाँ मिलता है। पूरे दिन ऑफिस में फिर घर थककर आती है और सो जाती है। "

- तुम कैसी हो माँ, समय पर दवा लेती हो कि नहीं?

- हाँ लेती हूँ। तू बता कैसा है वहाँ? ठीक से खाना खा रहा है ना?

- हाँ माँ कुछ भी खा लेता हूँ, तेरे हाथ का खाना मिल नहीं सकता ना यहाँ।

- फिर क्या खाता है?

- जो मिला ब्रेड टोस्ट, सूप बस हो जाता है। अपना भारत तो नहीं है कि कई अलग-अलग तरह के पकवान मिलजाएँ। और बता अनन्या से मिली? कैसी है वह?

शैलजा ने उसकी पिता की तबियत के बारे में बताया।

- ओह, अब कैसे हैं?

- ठीक है बेटा! साहिल तुझसे कुछ कहना है, कैसे कहूँ समझ नहीं आ रहा।

- हाँ बताओ माँ।

- कुछ दिन पहले तेरे पापा को देखा। कल हमारे घर के आस-पास दिखे। वह बहुत बीमार और कमजोर दिख रहे हैं। मुझे उनका चेहरा देखकर बहुत दुःख हुआ। लगता है हमें बहुत मिस कर रहे हैं। जब मैं बाहर गई तब तक वह चले गए थे।

- तुझे क्या लगा? पापा की तबियत ठीक नहीं है?

- पता नहीं मगर बेटा आजकल वह कहाँ रहते हैं पता चले तो अगर तबियत ठीक नहीं है तो हमें चिंता करनी चाहिए। आखिर ये घर परिवार उन्हीं का ही है। देखते-देखते उन्हें ऐसे नहीं छोड़ सकते।

- ठीक है माँ जैसे तेरी इच्छा। तुझे जो ठीक लगे वैसे ही करना, लेकिन क्या वह आने को तैयार होंगे?

- पता नहीं।

- ठीक है माँ अगर उन्हें हमसे अलग होने का पश्चाताप है तो उन्हें खुद आ जाना चाहिए। आखिर हमारे पापा हैं।

- ठीक है अपना ख्याल रखना।

- हाँ माँ, आप भी अपना और सूफी का ख्याल रखना। मोबाइल को पलँग की एक ओर रख दिया। साहिल एक कमरे वाले घर में अपने पलँग पर सोए सीने पर हाथ रखे छत की ओर देखता रहा। अपना घर पापा सूफी माँ की हँसी, नोंकझोंक भरी सूफी से लड़ाई करना, कलम नोटबुक्स के लिए झगड़ना सब कुछ याद आया। खुद को हमेशा पहले नम्बर खड़े रखने के लिए दोनों के बीच स्पर्धा और कई छोटी-छोटी बातों को बहुत देर तक याद करता रहा। अपने परिवार के बारे में सोचता रहा। उसे लगा पापा के घर छोड़कर जाने के बाद जैसे सभी एकदम से बड़े और जिम्मेदार हो गए। वह बचपना वह मस्ती न जाने कहाँ गायब हो गया तीनों की जिंदगी से। सब खामोश हो गया। 'काश की वह वापस आ जाएँ। फिर से हमारा घर पहले से खिल उठे।'

साहिल को अनन्या की याद आई। न जाने वह क्या करती होगी? बचपन से अब तक उसने जीवन में लड़ रही है। बचपन में माँ को खोकर घर की सारी जिम्मेदारी सँभाली है। एक ओर पिता, बहन और दूसरी ओर नौकरी। मैं कभी उसको समझ ही नहीं पाया। उसके दिल की बात जान ही नहीं पाया। इतना आसान नहीं है अनन्या को समझना। शायद मैने उसपर अपना प्यार थोपना चाहा या जल्दबाज़ी की। अनन्या को खुद को समझने के लिए समय देना चाहिए। उसने अनन्या से बात करने का मन बनाया। उसके पिताजी की तबियत की खबर लेना जरूरी था। उसे डर था बिना कारण फ़ोन करें तो अनन्या नाराज़ हो सकती है, इसलिए अब तक उसने अपने मन को सँभालकर रखा और अनन्या को फ़ोन नहीं किया। माँ के कहने पर उसने अनन्या को फ़ोन लगाया।

- हेल्लो कौन? एक अनजाना नंबर से फ़ोन बजते देखकर पूछा।

- अनन्या, मैं साहिल बोल रहा हूँ।

- साहिल!..., साहिल कैसे हो तुम? बहुत दिनों बाद। अपने अंदर का उत्सुकता और खुशी छुपा नहीं पाई। बहुत दिनों बाद उसकी आवाज़ सुन कर उछल पड़ी पर आवाज़ में ज़ाहिर नहीं होने दिया।

- बहुत बढ़िया तुम कैसी हो? साहिल ने पूछा।

- ठीक हूँ, बताओ आज हम कैसे याद आ गए।

- तुम्हें कभी भूला ही नहीं अनन्या। तुम मेरे साथ हमेशा हो। हाथ में उसकी तस्वीर को देखते हुए कहा, "कभी मेरी याद आती है?"

कुछ समय रुककर उसने कहा, "हाँ सब याद करते हैं ऑफिस में।"

" और तुम? मुझे कभी भी याद करती हो अनन्या?" थोड़ी देर रुक कर कहा, मुझे तुम्हारी याद बहुत आती है, बचपन से लेकर आज तक उस मिट्टी की सभी बातें बहुत याद आती है।

अनन्या सुनती रह गई। दरवाज़े के पास खड़ी गमले के पत्ते को नाखून से दबा रही थी। उसके मन में बहुत कुछ कहने की इच्छा थी लेकिन आँखों में हल्की सी नमी, जो साहिल को कभी बता नहीं पाएगी। कान में फ़ोन लगाए साहिल उसके मौन को समझने की कोशिश कर रहा था। उसने विषय बदल कर पूछा,

- और बोलो अनन्या पिताजी की तबियत कैसी है? कैसे हैं वह?

- अब ठीक हैं। ऑफिस जाने लगे हैं।

- क्या मैं अंकल से बातकर सकता हूँ?

- हाँ एक मिनट अभी देती हूँ।

एक मिनट के लिए उसने फोन को सीने से थाम लिया और आँखें बंदकर एक लंबी साँस ली। वह भरोसा करना चाहती थी कि यह, वह साहिल है जिसने उसे प्यार का इजहार किया था। ये वही है जिसे वह खुद प्यार करती है मगर इजहार नहीं कर सकी। वह अब भी अनन्या के हाँ का इंतजार करता है। बिल्कुल उसी समय फ़ोन को कान में रखे साहिल को अनन्या की धड़कनें साफ सुनाई दे रही थी। उसकी धड़कनें कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह रही थी। अनन्या ने संजय को फ़ोन देकर कहा, "पापा, साहिल का फ़ोन है आप से बात करना चाहता है।"

संजय ने फ़ोन लेते ही, "नमस्ते अंकल मैं साहिल..." उस तरफ से आवाज़ आई।

- अरे! साहिल, बेटा कैसे हो?

- मैं ठीक हूँ, आप कैसे हैं? आप की तबियत के बारे में माँ ने बताया।

- हाँ इंसान हैं, कभी भी कुछ भी हो सकता है।

- ऐसा मत कहिए अंकल। आप ठीक हैं तो अनन्या और अवन्तिका ठीक हैं। उन दोनों के लिए आप को ठीक होना ही पड़ेगा।

- चिंता मत करो मैं बिल्कुल दुरुस्त हूँ। अब भी मैं हाथी से लड़ सकता हूँ। हाहाहाहा...। संजय ने साहिल से कुछ समय बात करके फ़ोन अनन्या को दे दिया।

- कब आ रहे हो साहिल? ऑफिस में सब तुम्हें बहुत याद करते हैं।

- मुझे भी सब की याद आती है। और मैं जल्दी वापस आऊँगा।

- "चलो रखती हूँ, पापा बुला रहे हैं।" कहकर उसने फोन काट दिया।

एक ठंडा सा हवा का झोंका अनन्या को छूकर गुजर गया। मन उल्लास से उड़ना चाह रहा था। बिखरे बाल को हवा में लहराते छोड़ वह छत की खुली हवा में जा कर खड़ी हुई। चमकते तारों के बीच शरद का चाँद अपना रंग फैलाये शान से बिराजमान था। सामने रास्ते के एक किनारे एक कुत्ते का पिल्ला दौड़ कर अपनी माँ के गोद में सिमटने का बिफल प्रयास कर रहा था। गली के दूसरे छोर पर कुछ बच्चे खेलने में मस्त थे। पॉश इलाका होने से अलग-अलग घरों के बाग में फूल हवा से ताल मिलाकर नाच रहे थे। रास्ते के किनारे ऊँचे पेड़ों पर चिड़िया, तोते और पंछियों ने अपने नीड़ पर वापस लौट रहे थे। अभी गायों के घर लौटने का वक्त नहीं हुआ था और गोधूली उड़ना बाकी थी। चाँद ने आकाश में आने की सूचना नहीं दी थी। वह बहुत देर तक खुले आकाश के नीचे हवा में लहराते बालों को छोड़ प्रकृति के सौंदर्य को निहार रही थी। जब चाँद आकाश में आया अवि उसे हिलाकर इस धरती पर ले आई। मन में हँसते हुए अवि को वहाँ से भेज दिया।

तब चाँद की सुंदरता से मुग्ध धरती उस पर न्यौछावर दिख रही थी। कहीं-कहीं काले बादल उमड़-घुमड़ कर चाँद के नज़दीक आने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन एक अकेला चाँद उसकी पीली किरणें धरती पर बिछी हुई थीं। बादल उसकी सुंदरता से मोहित होकर रिमझिम फुहारें बरसा रहै थे। उस गीली छत से नीचे धरती पर बनी फव्वार में लहराते चाँद की किरणें झिलमिलाने लगी।

####

हर शुक्रवार की तरह शैलजा ने सुबह स्नान करके सूफी को उसकी स्कूटी में मंदिर तक छोड़ देने को कहा।

- ठीक है माँ, लेकिन जल्दी करना मुझे कॉलेज के लिए देर हो जाएगी।

- बस 2मिनट में आई। शैलजा तैयार होकर हाथ में पूजा की थाली लेकर आई। शैलजा और सूफी स्कूटी से मंदिर पहुँचे। मंदिर के सामने फूलों के स्टाल लगे थे। मंदिर शहर से कुछ ही दूरी पर है। मंदिर के आस-पास कई घर और दुकानें बसी हुई थी। सूफी, शैलजा को मंदिर के सामने छोड़कर जाने ही वाली थी कि शैलजा ने कहा, " बेटा सूफी यहाँ तक आई है तो दर्शन करके जाना। मैं कुछ देर यहाँ बैठकर वापस घर चली जाऊँगी।"

- ठीक है माँ, मैं स्कूटी पार्क करके आती हूँ।" कहकर वह स्कूटी पार्क कर पीछे मुड़ी ही थी, "सूफी..." उसके नाम उसके पिताजी के आवाज़ से सुनाई दिया। उसने देखा कि पेड़ के पीछे उसके पापा अभिनव खड़े थे। सूफी उसके पापा को देखकर रुक गई। अभिनव का दीन चेहरा देख उसकी आँखों में आँसू आ गए। साथ ही वह सब उसको याद आ गया जो कुछ दिन पहले हुआ था। लेकिन उसे अपने पिता के लाड़ और उनके प्यार भी याद आई। उनके बिना घर का सूनापन और माँ की हालत को लेकर वह नरम हो गई। वह भी दिल से वही हँसती-खेलती परिवार चाहती थी जो उसके पिता साथ के समय था।

- पापा आप? पापा आप को देखे बहुत दिन हो गया है। और आप यहाँ कैसे?

- तुम्हारी माँ से मिलने आया था। मुझे पता है कि हर शुक्रवार शैलजा इस मंदिर में आती है। इसलिए ...

- लेकिन आप को अच्छे से पता है माँ आपसे नहीं मिलेगी।

- पता है बेटा, जिस हालात में मैं घर छोड़कर बाहर आ गया था उस हालात में कोई भी स्त्री अपने पति को माफ नहीं कर सकती। लेकिन फिर भी शैलजा से मिलकर उससे माफी माँगनी है। कम से कम मेरे दिल का बोझ तो हल्का हो जाएगा।

- आप को तो हमारी जरूरत नहीं है। आप को हमारे न होने से कुछ फर्क भी नहीं पड़ता है। फिर अब ... क्यों डैड।

- ऐसा मत कहो सूफी... वही मेरी सबसे बड़ी गलती थी, क्या तुम मुझे माफ़ नहीं कर सकती हो?

- "क्यों नहीं पापा आप खुद हमें छोड़ गए थे हमने नहीं छोड़ा था आपको।" फिर ध्यान से उसके पिता की ओर देखते हुए कहा, "आप बीमार लग रहे हो, क्या हुआ?

- मेरे पाप का प्रायश्चित है बेटा। तुम सब को छोड़कर मैं भला सुखी कैसे रह सकता था?

- पापा ...

- बोल तू कैसी है? साहिल और माँ सब कैसे हैं?

"हम सब ठीक हैं। उसने अपने पिताजी को ध्यान से देख कर बोली, "लेकिन आप ठीक नहीं लग रहे हैं। आप ... आप घर आ जाओ। "

- "नहीं, मैं नहीं आ सकता। आप सब खुश रहो। और भाई कैसा है? उसका गुस्सा मुझ पर कम हुआ कि नहीं।"

- आप से कोई भी गुस्सा नहीं है पापा। भाई आप को बहुत मिस करता है और माँ भी। मैं बात करुँगी भाई से और माँ से भी, आप घर आ जाइए पहले जैसा सब ठीक हो जाएगा।"

- मैं नहीं आ सकता। आप सबकी खुशी में मेरी खुशी है।

- नहीं पापा आपके बिना हम कैसे खुश रह सकते हैं। आप को इस हालत में देखने के बाद माँ भी आपको जाने नहीं देगी।

- "आप हमारे साथ चलो। मेरी कसम आप मना नहीं करेंगे।" अभिनव आश्चर्य से देख रहा था कि ये वही सूफी है जो कुछ दिन पहले उससे नफरत करती थी। अब उसके आँखों में मेरे लिए दुःख और पछतावा है। शायद उसकी अवस्था देखकर वह दुखी है।

वह अभिनव का हाथ पकड़े उसे मंदिर के अंदर ले गई। शैलजा सूफी के लिए मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे इंतजार कर रही थी। वह सूफी के साथ अभिनव को देख कर वह मंदिर के अंदर चल पड़ी। मंदिर की प्रदक्षिणा पूराकर सूफी को चलने के लिए कहा। उसके चेहरे पर अभिनव को देख नफरत, उसके धोखा देने से उपजा दुःख और अपमान बोध साफ-साफ नजर आ रहा था। इस पीड़ा से उबरने मन ही मन देवी माँ की जाप करती रही। सूफी माँ के पास आ बैठी। उसके हाथ पर हाथ रखकर धीरे से पुकारा "माँ।"

शैलजा और भी जोर जोर से देवी माँ चलिसा के जाप करने लगी। सूफी समझ गई माँ उसकी बात सुनने को तैयार नहीं है।

- "माँ... " सूफी ने फिर से आवाज़ दिया। अभिनव माँ के दर्शन कर मन्दिर के बाहर शैलजा और सूफी को दूर से देखा। उसे पता है हर शुक्रवार को शैलजा माँ का दर्शन करने मंदिर आती है इसलिए वह उसका इंतजार कर रहा था।

शैलजा ने अपना हाथ सूफी के हाथ से हटाकर अपने पीछे ले लिया। होंठों से माँ का जाप बुदबुदाते हुए वह सूफी की बात को अनसुनाकर रही थी। मंदिर में काफी भीड़ थी। शुक्रवार होने से लोग देवी माँ के दर्शन और पूजा के लिए उमड़ पड़े थे। मंदिर के चारों ओर बबूल, बादाम और पीपल के पेड़ पर कबूतर पंख फड़फड़ा रहे थे। मंदिर की घंटी की आवाज़, धूप, दीप और अगरबत्ती की सुगंध से वहाँ के वातावरण में पवित्रता राज़ कर रही थी।

अभिनव शैलजा के सामने आ खड़ा हुआ और कहा, "शैलजा मुझे मालूम है कि मैं माफी के लायक नहीं हूँ। पर शैलजा मैंने तुम्हें बहुत चोट पहुँचाई है, जिसका प्रायश्चित नहीं है। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि मेरी जिंदगी में कभी भी तुम्हारे लिए कुछ अच्छा किया हो तो प्लीज् मुझे माफ़ कर दो। मैं इस बोझ के साथ नहीं जी सकता कि मेरा परिवार जो हमेशा मेरे सुख-दुःख में साथ दिया उसे मैंने दुख पहुँचाया है। "

शैलजा कुछ नहीं बोली। बस खुद में बुदबुदाती रही। चरित्र काँच की तरह होता है जिस पर एक बार दाग भी आ जाए तो उसका टूटते वक्त नहीं लगता।

"मैंने उस घर में वापस आने का हक़ तो खो दिया है लेकिन तुम और मेरे बच्चे मुझे माफ़ कर सको तो मेरा जीना आसान हो जाएगा। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।" अभिनव ने प्रायश्चित स्वर में कहकर वहाँ से जा ही रहा था कि सूफी ने शैलजा के हाथ को हिलाते हुए कहा, "माँ पापा जा रहे हैं उन्हें रोक लो। वे अपनी गलती पर पछता रहे हैं। माँ प्लीज पापा को रोको।"

शैलजा देखती रही मगर कुछ नहीं कहा। सूफी, "माँ रोक लो डैड को। कुछ कहो माँ नहीं तो पापा चले जाएँगे। माँ... रोक लो।"

शैलजा एकदम से अवचेतन मन से बाहर आई और कहा, "हाँ रोक लो।"

सूफी तुरन्त खुशी से जाकर अभिनव का हाथ पकड़ कर शैलजा के पास ले आई। "पापा माँ ने आपको माफ कर दिया है, आप आज से हमारे साथ रहोगे।"

- शैलजा क्या तुम ने सच में मुझे माफ़ कर दिया है? अभिनव ने आश्चर्य प्रगट करते हुए पूछा।

- नहीं। शैलजा तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए कहा।

- नहीं? ... पर क्यों? अब तो पापा हमारे लिए वापस आ गए हैं और आपने घर आने की इजाजत भी दे दी। सूफी ने आश्चर्य से देखा।

- "हाँ चूँकि वह घर उनका है, उन्हें उस घर में रहने का पूरा हक़ है। लेकिन माफ़ करना न करना मेरा व्यक्तिगत विषय है।" शैलजा मंदिर से निकलकर ऑटो में बैठी और घर की ओर बढ़ गई। अभिनव उसके जाने की ओर देखता रह गया।

- "पापा आप कुछ मत सोचिए चलिए हम घर चलते हैं।"

- लेकिन ... शैलू ने..

- माँ ने हाँ कह दी है। बाकी सब कुछ भी धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा आप मेरे साथ चलिए। कहकर उसने अपनी स्कूटी निकाली। अभिनव ने रास्ते में कुछ मिठाई लेते शैलजा को मनाने का तरक़ीब सोच रहा था। उसे पता था अब की बार शैलजा को मनाना आसान नहीं। सूफी कॉलेज से छुट्टी करके अभिनव को अपनी स्कूटी पर बैठा कर घर के लिए निकली।

शैलजा घर पहुँची। अनमने अलमीरा से अपने कपड़े अलग कर रही थी। वह एक-एक कर कपड़े अलमीरा से निकालकर अलग सूटकेस में रख रही थी। शैलजा फिर उसी मोड़ पर खड़ी थी जिस मोड़ पर अभिनव उसे अकेले छोड़ गया था। उसके मन में कई चिंतन घेरे हुए थे। स्त्री को क्यों हर पल ऐसे मोड़ पर खड़े होना पड़ता है? क्या यह इसलिए कि उसका कोई घर नहीं होता? वह हमेशा क्यों निर्भर हो जाती है? क्यों उसे उसी विवशता से गुजरना पड़ता है जैसे वह अपना मैके से विस्थापित होकर ससुराल में कदम रखती है। इतने दिन की गृहस्थी के बाद भी उसे मिला ही क्या? शादी के 30 साल बाद भी उसको समझौता ही करना पड़ रहा है। वह अपने कपड़ों को अपने कमरे के अलमारी से निकाल कर सूफी के अलमीरा में सजाने लगी।

सूफी अभिनव को लेकर जब पहुँची। माँ को कमरे बदलते देख उसकी मनोभावों को समझने की कोशिश कर रही थी। माँ अभी तक उस दिन को भूली नहीं है। वाकया भी कोई छोटा नहीं था फिर उन्हें अपने आत्म-सम्मान के साथ जीना भी तो है।

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