त्रिखंडिता
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मीठा बनाने व खाने के कारण पिताजी शुगर की चपेट में आ गए पर गम्भीर स्वभाव के कारण माँ तक को अपनी तकलीफ न बता सके। वो तो माँ ने एक दिन उनकी पेशाब की जगह पर चींटियों को जमा देखकर डॉक्टर को दिखाया और इलाज शुरू करवाया, पर सब कुछ[छोटा-सा मकान व किराए की दुकान ] बेचकर उनका इलाज कैसे करवाती? बच्चे छोटे थे और आय का अन्य कोई साधन नहीं था। मकर संक्रान्ति की सुबह पिताजी का देहांत हो गया। जब उन्हें चादर में लपेट कर लोग सीढ़ियों से नीचे ला रहे थे, तो श्यामा ने देखा कि वे एक गठरी से लग रहे हैं । दुबले पतले और खूब लम्ब़े दबंग से पिता जी, जिनको देखते ही हम बच्चों की हवा निकलती थी, इस समय एक निर्जीव गठरी थे। श्यामा उस दृश्य को कभी नहीं भूल पाई। पिताजी की सच्चाई ईमानदारी, सीधेपन की चर्चा सब कर रहे थे | वे उसके भीतर आज भी जिन्दा है। वैसे भी उनका गुस्सैल स्वभाव उसे ज्यादा मिला है। वे पिता, जिन्होंने उसे कभी पसंद नहीं किया, उसके पास से कभी गए ही नहीं, आज भी जब वह उन्हें याद करती है। कुर्ते पाजामे में एक दुबला-पतला शख्स आ खड़ा होता है।
सम्बन्धों का गणित
कोई भी इंसान अकेला नहीं रहना चाहता पर अकेलापन जिसकी नियति हो, उसके अकेलेपन को कोई भर भी तो नहीं सकता। व्यक्ति लाख कोशिश कर ले। अक्सर यह कह दिया जाता है कि अकेला व्यक्ति अपने अहंकार, स्वार्थ, खराब क्रोधी स्वभाव या किसी अन्य कमी के कारण दूसरों से एडजस्ट नहीं कर पाता और अकेला रह जाता है।पर रमा जानती है कि लोग स्वार्थ के कारण ही किसी से जुड़ते हैं और स्वार्थ पूरा होते ही साथ छोड़ देते हैं।करीबी रिश्तेदार भी इसके अपवाद नहीं।कहीं पैसा रिश्तों में दरार की वजह है, तो कहीं झूठा अहंकार।समझौते के बिना कोई रिश्ता नहीं चल सकता और वह समझौता कभी-कभी मानवीयता की हदें भी पार कर लेता है। पुरूष कम ही अकेले होते हैं क्योंकि उनका परिवार उनको अकेला नहीं छोड़ता है। फिर भी कोई पुरूष अकेला दिख जाएं, तो वह निश्चित रूप से स्वाभिमानी होगा। या फिर अपनी संतानों से न पटने या फिर स्वार्थी होने के कारण ही वह बुढ़ापे में अकेला होगा। रमा को ऐसे बूढ़ों से बड़ी सहानुभूति है। शायद इसलिए भी कि आने वाले कल में उसकी भी वही स्थिति होने वाली है। वह भी अकेली बूढ़ी स्त्री होने की सारी यातनाएँ सहेगी। ’कल का क्या पता’ पर समय को देखते हुए कल उसे साफ-साफ दिख रहा है। कभी-कभी इसी वजह से वह तनावग्रस्त भी हो जाती है।
अभी कुछ माह पूर्व उसकी पड़ोस में करीब 75 वर्ष के बुजुर्ग किराए के मकान में आए हैं। उनके एक पैर में खराबी है। छड़ी लेकर चलते है। वह उन्हें आते-जाते देखती और सोचती कि वे इस उम्र में कैसे अकेले पकाते-खाते और रहते हैं ? कैसे हैं उनके परिवार वाले जो इस उम्र में उन्हें अकेला छोड़ दिया है। वह भी अकेली है पर युवा है, नौकरी करती है, देह से भी स्वस्थ है। एक दिन उसने उन्हें रोका और अपने घर ले आई। चाय-नाश्ता कराया। व्यक्तिगत कोई प्रश्न न पूछा, बस उनकी जिंदादिली का रहस्य जानना चाहा। अकेले कैसे पकाते-खाते और रहते हैं। उनकी बातों से प्रेरणा मिली। वे नियमित दोनों वक्त खाना पकाते थे। दूध, फल, मांस, सूखे फल इत्यादि का भरपूर सेवन करते थे। इस चीज में उन्हें कभी आलस्य नहीं होता था। यह आलस्य उसमें बहुत ज्यादा था। अक्सर खाना नहीं पकाती है कुछ भी खा लेती है। बुजुर्ग रिटायर थे। दिन-रात कमरे में अकेले पड़े रहते थे। कभी-कभार साग-सब्जी लेने या पेंशन वगैरह लेने निकलते थे। उसने पूछा-आपका समय कैसे बीतता है ?
वे उदास स्वर में बोले- बस बीत ही जाता है। क्या करें ? जब ज्यादा दुःखी होता हूँ तो भगवान से लड़ लेता हूँ। फिर जीने की ताकत मिल जाती है।
बुजुर्ग से मिलकर अच्छा लगा। कुछ सीखने को ही मिला। उस दिन से कभी-कभार वे उसके घर आ जाते। संकोच करते तो वह समझा देती। कॉलोनी के अन्य घरों में ना वे जाते ना उनसे सम्पर्क ही रखते। हाँ, अपने ठीक बगल के किरायेदार से बात-व्यवहार रखते थे। किरायेदार की स्त्री उनकी मदद भी करती थी। कभी चाय-नाश्ता दे देती तो कभी वे उससे कुछ बनवा-खा भी लेते। इसी बीच एक दिन वे अपने पलंग पर चढ़ने की कोशिश में गिर गए। कुल्हे पर काफी चोट आई ।दूसरे दिन जब उसे पता लगा तो वह उनके पास गई और डाँट भी पिलाई कि फोन नहीं कर सकते थे। फिर वह बीच-बीच में जाती रही। उनके खाने-पीने, दवा आदि की चिन्ता करती रही। एक दिन उनके घर उनका बेटा मिल गया। उसने उसकी खूब खबर ली। उसे आश्चर्य हुआ था कि पिता की इस हालत में भी वह सिर्फ देखने की औपचारिकता पूरी करने आया था। उसने उससे कहा कि या तो इन्हें अपने घर रखो या यहीं रहकर सेवा करो। कब तक पड़ोसी खिलाएंगे या इनकी देखभाल करेंगे ? पर बेटे के कान पर तो मानो जूँ ही नहीं रेंग रहा था। बोला-’अपना घर बनवा लेंगे तो ले जाएंगे.......अभी तो किराए के मकान में हैं। कोचिंग चलाते है घर में।’ उसे आश्चर्य हुआ कि पत्नी, बच्चों और कोचिंग के लिए घर में जगह है। पिता की खाट के लिए नहीं। वह जाने लगा तो वह बोली-इनके खाने पीने का तो इंतजाम कर जाओ। या तो घर से बनवाकर ला दो या फिर यहीं बना दो, पर आश्चर्य बेटे के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। उसे जरा सी भी चिंता नहीं हुई कि इस अवस्था में पिता कैसे कुछ पकाएँगे? जब उनके लिए खड़ा होना भी मुश्किल है। ज्यों ही वह किसी काम से अपने घर गई। पिता की कोई व्यवस्था किए बगैर वह अपने घर निकल गया, । वह लौट कर आई तो हैरान रह गई कि कैसा बेटा है ? वह पराई है तब भी चिन्तित है पर वह ..। शायद बेटों में कट्टरता होती है। बेटी होती तो पिता की इस अवस्था की खबर सुनकर भागी-भागी आती और बिना उनके ठीक हुए वापस अपने घर नहीं जाती। दुर्भाग्य कि बुजुर्ग के सिर्फ दो बेटे थे बेटी नहीं। पत्नी का देहांत काफी पहले हो चुका था। बुजुर्ग ने ही दोनों बच्चों की परवरिश की । पढ़ाई-लिखाई पूरी करवाई। उस समय उनके पैर स्वस्थ थे। फुटबाल के प्लेयर भी थे पर एक एक्सीडेंट के कारण उनका एक पैर चोटिल हो गया और बाद में गठियॉ रोग ने उसी पैर को लगभग बेकार कर दिया।
बड़े बेटे को नौकरी दिलाने के लिए उन्होंने रिटायरमेंट के कई साल पहले ही अवकाश ले लिया। काफी प्रयास कर अपनी नौकरी उसे दिलवा दी। बड़ा-सा मकान भी बनवा दिया। बड़े बेटे की शादी भी कर दी, पर नौकरी मिलते ही बड़ा बेटा बदलने लगा। घर में झगड़ा होने लगा। मार पीटकर एक दिन बड़े बेटे ने छोटे भाई व पिता को घर से निकाल दिया। बुजुर्ग दीनानाथ ने पुलिस, कोर्ट सबका सहारा लिया, पर कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि पुत्र प्रेम में वे मकान भी बेटों के नाम बहुत पहले ही कर चुके थे। छोटा बेटा बड़े के आगे कमजोर पड़ जाता था, इसलिए उसने उस घर में रहने से इन्कार कर दिया और किराए का मकान ले लिया। जानकीनाथ छोटे बेटे के साथ नये मकान में रहने लगे। इसी बीच छोटे बेटे ने अपनी एक छात्रा से कोर्ट मैरिज कर ली ।दीनानाथ ने इस विवाह को स्वीकार तो कर लिया पर उनकी अति आधुनिक छोटी बहू से भी नहीं बनी। वह उनके संस्कारों से चलने को तैयार न थी। अन्ततः वे अलग किराए के मकान में रहने लगे, जो लगातार बदलता रहा और अब वे उसके पड़ोस में आ गए थे।
दीनानाथ कंजूस तो थे, पर अपने खाने-पीने पर खर्च करते थे।कहते अपना शरीर ही काम आता है इसलिए इसे ठीक रखना जरूरी है।हाँ रहन-सहन पर खर्च करना वे फिजूल समझते थे। गर्वीले थे, किसी की बात सह नहीं सकते थे। नौकर-दाई से काम करवाने को तैयार न थे क्योंकि पैसा खर्च करना उन्हें पसंद नहीं था। उसने एक-दो बार कोशिश भी की कि उनकी देखभाल के लिए किसी को रखवा दे ताकि उन्हें आराम हो जाए, पर वे सब कुछ सस्ते में चाहते थे। उनके इस स्वभाव से उनके मित्र भी खफा थे। उनसे मिलने आते और चले जाते पर दीनानाथ चाहते मित्र अपने घर से खाना बनवाकर ले आए और उनके नौकर आकर सर-सफाई कर जाए। धीरे-धीरे वह भी समझने लगी कि लोग उन्हें ’चतुर बुड़बक’ ऐसे ही नहीं कहते हैं। फिर भी उनके मित्रों से उनकी मदद करते रहने को वह कहती रहती। एक दिन उनके मित्रों ने बताया कि ’अभी कुछेक माह पहले अपने दूसरे बेटे को बीस लाख जमीन खरीदने को दिए हैं।’ सभी इसी बात से नाराज थे कि जब बेटा पूछता नहीं तो उसे इतने रूपए देने की क्या जरूरत थी ? उसने उनसे इस बावत पूछा तो बोले -’क्या करता ? उसके पास घर नहीं। कब तक किराए के मकान में रहेगा। बाल-बच्चे हैं।’ यह एक पिता का दिल था और बेटे का दिल वह उस दिन देख ही चुकी थी। वे आगे बोले- हर महीने पेंशन मिलता ही है। जल्द ही लाखों जमा कर लूँगा। पर अब बेटे को नहीं दूँगा। अभी वह सिर्फ इसलिए आ-जा रहा है कि मकान बनवाने के लिए भी लाखों की जरूरत होगी। पर वह जानती थी कि ये दौड़कर उसे रूपए देंगे। पुत्र मोह जबरदस्त होता है। मित्रों की नाराजगी भी गलत नहीं थी कि सारी मदद वे करें और लाभ बेटों को मिले। इस बारे में उनसे बात करने पर वे बोले- ’बेटे को नहीं दूँगा तो किसे दूँगा ? वह हमारा वंश हैं। आता है तो दस बातें सुनाता हूँ, तो सुन लेता है। कोई और सुनेगा।’उनकी बातों को सुनकर लगा कि संबंधोंं का गणित उलझा हुआ होता है। मानव मन को समझना आसान नहीं। रमा को अपनी माँ याद आती है वह भी तो सारी सम्पत्ति बेटों को ही देना चाहती थी जबकि वे उसकी परवाह नहीं करते थे । एक बार उसने मजाक में कह दिया कि-’कानून बना है कि बेटी को भी पिता की सम्पत्ति में हिस्सा मिलेगा’ तो भड़क उठी थी और उसे तमाम गालियाँ दे डाली थी। उसकी सखी श्यामा भी तो बेटों को ही अपनी सारी संपत्ति देना चाहती है जबकि वे उसे पूछते तक नहीं।यही तो पुत्र मोह है जिससे धनी.निर्धन शिक्षित.अशिक्षित विद्वान-मूढ़, स्त्री-पुरूष कोई नहीं बच सका है।दीनानाथ भी इस मोह के शिकार हुए।एक दिन पता चला वे पुत्र के नए घर में रहने के लिए चले गए हैं।अपना सारा संचित पैसा उन्होंने उसको घर बनवाने के लिए दे दिया था।वह समझ गयी थी कि जल्द ही उन्हें जबर्दस्त झटका लगने वाला है।उनका प्रेम जिस तरह बेटे-बहू और पोती पर बरस रहा है, वे उसके हकदार नहीं।उनको उनसे जरा सा भी लगाव नहीं।महीना बीतते ना बीतते बेटे -बहू का मुखौटा उतर गया।दीनानाथ थोड़े पुराने विचारों के थे।वे बहू के बेडरूम में बेटे के मित्रों का आना-जाना पसंद नहीं कर सके।उन्होंने विरोध जताया तो बेटा बहू के पक्ष में खड़ा हो गया।उन्हें पुराणपंथी कहने लगा।बहू ने तो इसे चरित्र.हनन का मुद्दा ही बना दिया।दीनानाथ उसी घर में कुछ दिनों बेगानों की तरह रहे।होटल में जाकर खाते रहे।उनके कमरे से बिजलीएपानी का कनेक्शन काट दिया गया।पोती को उनके पास आने नहीं दिया जाता।बहू उनको चिढ़ाती हुई सी उनके सामने से निकलकर अपने मित्रों के साथ घूमने जाने लगी।वे समझ गए कि उसे उनका इस घर में रहना पसंद नहीं।बेटा भी बहू के पक्ष में ही खड़ा रहा।हारकर उन्होंने घर छोड़ दिया और फिर किराए के मकान मे आ गए।गनीमत था कि उन्हें पेंशन से अच्छा पैसा मिल रहा था वरना उनका क्या होता?इधर वे बेटे से अपना पैसा मांग रहे हैं और वह हँसकर कह रहा है। मेरे पास कहाँ पैसा है?वे कहते हैं कि वे अपना पैसा लेकर रहेंगे। पर वह जानती है कि बाप के पैसे पर तो बेटा अपना जन्मजात हक समझता है।उनका बेटा भला अपना हक कैसे छोड़ेगा?यह अजीब ही है कि आज के माँ.बाप बेटों पर अपना हक जताने का भी हक नहीं रखते।
आज फिर उनके गिरने की दुखद खबर सुनकर रमा दौड़ती हुई उनके आवास पर गयी | वे एक छोटे से दरबेनुमा कमरे में पड़े हुए थे | मकानमालिक की मदद से उनका इलाज चल रहा था द्यदाहिना हाथ टूट गया था, जिससे लाठी पकड़ते थे। लाठी के सहारे ही तो वे चल फिर पाते थे ।कितना कष्ट हो रहा होगा उन्हें? कैसे टायलेट जाते होंगे नहाते होंगे? कुछ खाते.पीते होंगे ?रमा का मन उनके प्रति गहरे दुख से भर गया। पता चला खबर पाकर बेटा आया था और देख कर चला गया था बिना उनकी कोई व्यवस्था किए ।वह बहू के डर से उन्हें घर वापस ले जाने के लिए तैयार नहीं था जैसे उनमें छूत लगा हो ।आश्चर्य कि दीनानाथ भी घर वापसी के लिए तैयार नहीं थे। कहने लगे अपनी इज्जत उतरवाने के लिए नहीं जाऊँगा। क्या होगा उनका? किसी दिन अपने कमरे में मृत पाए जाएंगे। क्या तब उनका सामान लेने बेटा नहीं आएगा? क्या तब भी उसे बहू की मनाही का डर होगा? क्या पिता की तरह उनके बैंक-बैलेंस में भी छूत लगा होगा ?