क्रान्तिदृष्टा भवभूति रामगोपाल तिवारी द्वारा पौराणिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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क्रान्तिदृष्टा भवभूति

क्रान्तिदृष्टा भवभूति

महाकवि भवभूति एक क्रान्ति-दृष्टा कवि एवं नाटककार रहे हैं। संस्कृत साहित्य में अधिकतर परम्पराओं का पोषण दिखाया गया है। संस्कृत साहित्य का यह सही-सही मूल्यांकन का अभाव ही कहा जायेगा। महाकवि कालीदास का साहित्य जितना अधिक चर्चित है उतना महाकवि भवभूति का नहीं।

इसका कारण है ब्राह्मणवादी संस्कृति के पोषक, संस्कृत के महापंडितों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। वे महाकवि कालीदास के परम्परावादी साहित्य की चर्चा अधिक करते हैं। मुझे तो लगता है इसका एक मात्र कारण यही रहा है कि महाकवि भवभूति ने परम्परा से हटकर कुछ नई बातें प्रस्तुत की हैं, जैसे राम कथा के परम्परावादी तथ्यों को त्यागकर अनेक स्थानों पर अपनी कल्पना से नये-नये कथ्यों का सृजन किया है।वे महाकवि वाल्मीकि की तरह राम कथा का प्रारम्भ राम के जन्म से नहीं करते वल्कि विश्वामित्र के यज्ञ से करते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि विश्वामित्र के यज्ञ से ही उन्होंने राम कथा का लेखन प्रारम्भ क्यों किया है?

मुझे तो इसका यही कारण समझ में आता है कि पद्मावती नगरी की परिधि में गिरजोर (गिर्जोरा )के पास आज भी विश्वामित्र की खाड़ी जल से परिपूरित है। भवभूति विदर्भ से पद्मावती नगरी में अध्ययन करने के लिये आये थे। उन्होंने यहाँ के प्रसिद्ध स्थलों का भी भ्रमण अवश्य ही किया होगा। मुझे महावीर चरितम् का लेखन प्रारम्भ करने में इसी स्थल का प्रभाव दिखाई देता है।

किसी भी लेखक,कवि,कलाकार पर देशकाल का प्रभाव पड़ता ही है। मुझे तो लगता है ,इस स्थल ने ही उन्हें राम कथा लिखने के लिये प्रेरित किया है। भवभूति का परिवार परम्परा के अनुसार राम भक्त रहा है। साथ में उन्हें इस स्थल ने इसके लेखन के लिये प्रोत्साहित किया। बस कलम चल पड़ी और उन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ से, पद्मावती की धरती पर बैठकर महावीर चरितम् एवं उत्तर रामचरितम् की रचना कर डाली।

महाकवि भवभूति ,महावीर चरितम् में परम्पराबादी प्रसंग के मोह में पड़कर सीता की अग्नि परीक्षा बाला प्रसंग लिख जाते हैं। यदि वे इस प्रसंग को न लिखते तो उत्तर रामचरितम् लिखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । जो कृतिकार परम्परायें तोड़कर राम सीता का मिलन करा सकता है वह इस प्रसंग को भी बदलकर अन्य किसी रूप में लिख सकता था। मुझे तो लगता है-इसी प्रसंग के प्रायश्चित स्वरूप ही उन्हें उत्तर रामचरितम् की रचना करना पड़ी है। इसी कारण इस क्रति में करुणा का सागर उमन्डा लेता रहा है। क्योंकि करुणा के स्थाई भाव का वास प्रायश्चित में ही निहित है।

महाकवि भवभूति ने राम कथा के परम्परागत कथ्यों में मनोवैज्ञानिक द्रष्टि से परिवर्तन एवं परिवर्धन कर डाला हैं। चाहे वह प्रसंग शम्बूक वध अथवा सीता के अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग से सम्बन्धित हो। उनका सोच का्रन्तिकारी रहा है। इसी कारण वे संस्कृत मनीषियों की द्रष्टि में उपेक्षित हो गये हैं। कालीदास उनसे बहुत आगे निकल गये हैं। कथ्य परिवर्तन के महत्व को संस्कृत मनीषियों ने समझने का प्रयास ही नहीं किया। वाल्मीकि की सीता को परम्परा के कारण धरती में समाना ही हैं किन्तु भवभूति की सीता परम्परायें तोड़कर मिलन के लिये व्याकुल दिखाई देती है।....और अन्त में मिलन ही होता है। भवभूति ने सीता का निर्वासन सहज बना दिया है । पात्रों के माध्यम से राम के इस कार्य की भर्त्सनाकर उत्तर रामचरितम् के अन्त में रामसीता का मिलन करा दिया है। इस कृति में अग्नि परीक्षा से गुजरी सीता के लिये धरती नहीं फटती वल्कि सुखद मिलन होता है। यों भवभूति ने पाठक के सोच को परम्परावादियों के घेरे से निकालकर उस युग में नये तरीके से जीने का तरीका सिखाया है।

‘त्रिलोक के वासी प्राणियो,सावधान! वसु,सूर्य,रुद्र से युक्त साक्षात् इन्द्र साध्वी सीता का अभिनन्दनकर रहे हैं। जो अग्नि में बैठकर शुद्धता का परिचय दे चुकी हैै, संसार की मर्यादामयी सीता का आप! रघुनन्दन! आदर करें।’’(महावीर चरितम्,सप्तम् अंक श्लोक 3 )इस कथन में तीनवार आश्चर्य बोधक का उपयोग हुआ हैं। इस एक घटना ने नारी जाति के अस्तित्व को कटघरे में खड़ाकर दिया है। युगों-युगों तक यह घटना समाज को दिशा हीन करती रहेगी। मानव जाति में राम के तुलनात्मक गुण अधिक होने से वे पूज्यनीय तो बन गये है किन्तु इससे चरित्रहीन पुरुषवर्ग भी अपनी साध्वी पत्नी को, हरपल अग्नि परीक्षा देने के लिये उसे घेरे में खड़ा करता रहेगा। पता नहीे कैसे राम जैसे व्यक्तित्व से यह भूल होगई! चाहे कोई कितना ही सोच विचार कर चले ,भूलें स्वाभविक रूप से होतीं ही हैं।

शिव धनुष भंग होने पर ,रावण का सचिव माल्यवान चिन्तित हो उठता है। परशुराम को धनुषभंग का वृतांत सुनाकर उन्हें अपनी ओर मिला लेता है। जिससे परशुराम कुपित होकर राम का वध करने के लिये मिथला के लिये चल देते हैं। यहाँ राक्षसों द्वारा परशुराम को उत्तेजित करने का प्रसंग नवीनता लिये हुये है। भवभूति रटे-रटाये प्रसंगों में विश्वास नहीं करते अपितु बौद्धिक विवके से नये-नये प्रसंगों को जन्म देने में सिद्धहस्त हैं।

भवभ्ूति राम कथा जैसे प्रसंग में सम्पूर्ण पौराणिक एतिहासिक कथानकों को पूरी तरह नहीं तोड़ते किन्तु उनकी शल्य क्रिया करते दिखाई देते हैं। राम की शक्ति का परशुराम को वोध करा देने से प्रसंग की पौराणिकता नहीं टूटती। इसी तरह वे बाली को रावण का सहायक मानते हैं। रावण का मंत्री माल्यवान बाली को राम से लड़ने के लिये प्रेरित करता है। दोनों में आमने-सामने युद्ध होता हैं जिसमें बाली मारा जाता है। यों कवि ने इस प्रसंग की भी पौराणिकता नहीं टूटने दी है ।

उत्तर रामचाितम् की चित्रवीथिका में सीता को चित्र दर्शन के प्रसंग में, भूतकाल की घटनाओं से प्रत्यक्षीकरण कराते हैं। इससे सीता को पुनः उन स्थलों को देखने की इच्छा हो उठती है। उसी समय संदेश वाहक राम को संदेश देता है। राम जाने से पहले ,लक्ष्मण को सीता को वन में भेजने का आदेश देते जाते हैं। घटनाओं को इतनी सहजता से प्रस्तुत किया है कि वे स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होती जाती हैं। यह भवभूति की चतुरता का ही परिणाम है।

भवभूति ने शूूर्पणखा को मन्थरा के रूप में कैकई के हृदय परिवर्तन के लिये भेजा था। माल्यवान द्वारा रचा गया यह राजनैतिक षड्यंत्र उस समय के परिवेश की राजनीति का पर्दाफास करने का प्रयास है। कैकई के द्वेश का मोचन तथा शूर्पणखा के रूप बदलकर अयोध्या आने से मंथरा पर जो कलंक का टीका लगा हुआ था, वह सहज ही धुल जाता है। इसतरह पात्रों के सिर पर जो परम्परागत कलंक का टीका लगा हुआ था, उसे हटाने का भी सार्थक प्रयास किया है। सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ऐसा कोई अन्य उदाहरण शायद ही देखने को मिले।

आज के यथार्थवादी परिवेश में भी हम विदूषक की भूमिका का त्याग नहीं कर पारहे हैं। आज बिना विदूषक के कैसा नाटक! यदि लिखा भी गया तो उबाऊ होगा किन्तु भवभूति के साहित्य में विदूषक का अभाव पाया जाता है। यह भी क्रान्तिदृष्टा सृजन की उद्घोषणा है। भवभूति के नाटकों में ऊब नहीं होती। कथ्य के प्रति रुचि शुरू से आखिर तक बनी रहती है। यों भवभूति ने ऐसी अनेक परम्परायें तोड़कर परिवर्तन का विगुल बजाने का प्रयास किया है। हम हैं कि परम्परावादियों के घेरे में रहकर उस विगुल की ध्वनि नहीं सुन सके। इसके लिये आज हमें पश्चाताप है।

भवभूति राम कथा लिखते समय परम्परागत प्रसंगों को नहीं छोड़ पाये हैं किन्तु वे सीता के अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग से व्यथित हैं।....और यही व्यथा उन्हें उत्तर रामचरितम् लिखने को विवश करती है। वे इस कृति के माध्यम से इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करना चाहते हैं। भवभूति की सीता वाल्मीकि की तरह धरती में नहीं समाती वल्कि उनका मिलन होता है।

पौराणिक परम्परा के मोह में पड़कर भवभूति भी शम्बूक का राम के द्वारा वध कराते हैं। किन्तु यहीं राम का अपनी बाहु से यह कथन-‘‘हे दक्षिण वाहु, ब्राह्मण के मरे हुये शिशु के जीवन के लिये शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चलाओ। परिपूर्ण गर्भ से खिन्न सीता के निष्कासन में निपुण तुम राम की वाहु हो। तुम्हें भला दया कहाँ?’’

इस वाक्य को गौर से देखें तो महाकवि भवभूति को उस परम्परागत पौराणिक प्रसंग पर सन्देह होता है, इसी कारण इस प्रकार का द्वन्दात्मक प्रसंग उन्हें लिखना पड़ा है।

शम्बूक वध से पूर्व राम का ऐसा चिन्तन! इस तरह मनोबैज्ञानिक दृष्टि से सोचने वाला व्यक्ति किसी की हत्या कर पायेगा। वे करुणा से परिपूर्ण हो अपनी भुजा को धिक्कारते हैं। शम्बूक वध के समय निर्वासित सीता की स्मृति करके वे महसूस करते हैं उनके हाथ से दूसरा यह अशोभनीय कार्य भी हो रहा है।

इस कथन में राम अपने को धिक्कारते हुये दिखाई दे रहे हैं। यों राम का ही नहीं अपितु इस परम्परागत पौराणिक प्रसंग को लिखते हुये भवभूति का ही हाथ कांपता है।

महाकवि भवभूति नारियों की व्यथा से अधिक व्यथित दिखाई देते हैं। उत्तर रामचरितम् में प्र्रथम अंक के उन्चासवे श्लोक के बाद -‘‘सीता के चरणों को नमस्कार करके राम कहते हैं कि हे देवि! तुम्हारे पद कमलों को राम के मस्तिष्क का यह अन्तिम स्पर्श है।’’ इसे आप सब वारम्वार पढ़कर देखें,काश ! भवभूति के राम का यह भाव नारी के प्रति हम ग्रहणकर सकें।

भवभूूति के बौद्ध धर्म मानने वालों के प्रति स्नेह के सम्बन्ध थे। मालती माधवम् में बौद्ध नायिका कामान्दकी के चरित्र की उत्कृष्टता हमें सोचने के लिये विवश कर देती है कि भवभूति का दृष्टिकोंण सभी धर्मो के प्रति सम्मान का था। यदि ऐसा नहीं होता तो वे कामान्दकी का अभिनय स्वयं पात्र बनकर न करते। इसतरह भवभूति ने बौद्ध धर्म के प्रति अपना आदर भाव ही व्यक्त किया है।

मालती माधवम् में भवभूति ने सामाजिक व राजनैतिक परिवेश का खुला चित्रण अंकित किया है। अकेला माधव अनेकों सिपाहियों को मारकर भगा देता है,वहाँ के महाराज छत पर खड़े-खड़े यह देखते रहते हैं। जब माधव जीत जाता है तो उसकी वीरता देखकर वहाँ के महाराज उसे अभयदान प्रदान कर देते हैं। इस कथा के द्वारा भवभूति ने उस समय के राजनैतिक परिवेश के वारे में क्या नहीं कह दिया? उस समय के राजा ने इस को अवश्य देखा होगा। सोचें- राजनैतिक अव्यवस्था के ऐसे नर्तन का वर्णन करना किसी साधारण से व्यक्तित्व के बस की बात नहीं है। उस समय के राज परिवार की कमियों को रेखाकिंत करने के लिये ही ऐसे दृश्यों की संकल्पना की गई होगी।

नरवलि की परम्परा, वामाचार के रास्ते, तांत्रिकों की मनमानी उस समय की राजनैतिक अव्यवस्था को उजागर करने के लिये पर्याप्त है। आज की तरह उस समय भी आत्महत्याओं का चलन एवं कमजोर वर्ग के प्राणियों की हत्या उस समय के वामाचारियों द्वारा साधारणसी बात थी। उस समय राजतंत्र का प्रभाव नगण्य दिखार्इ्र देता है। यों भवभूति के मालती माधवम् में व्यवस्था की शल्य क्रिया करने का प्रयास किया है। उनकी उसी कृति में नन्दन नामक पात्र मालती के साथ विवाह करने के लिये, राजा की खुशामद करके उन्हें अपने पक्ष में कर लेता है। लगता है-उस समय राज परिवार का कार्य अपने चाटुकारों की शादी व्याह कराने तक सीमित रह गया था। उस समय की सामाजिक व्यवस्था का इससे अच्छा आलेख कोई दूसरा नहीं हो सकता।

भवभूति ने नट वर्ग जैसी जातियों को शिक्षित कर ,उन्हें अभिनय के लिये मंच पर स्थान देकर सम्मानित भी किया था।

अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि आठवी शताब्दी में भवभूति एक क्रान्तिदृष्टा साहित्यकार थे। आज नये सिरे से उनका मूल्याँकन करने की आवश्यकता है तभी हम भवभूति के साथ न्याय कर पायेंगे।