डायरी का एक पन्ना Neelima Sharrma Nivia द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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डायरी का एक पन्ना

हाथ मे पेंटिंग ब्रश लिए 15 साल पुरानी पेंटिंग के बदरंग हो चुके फ्रेम को गोल्डन करते हुए उसने सोचा ...काश कोई उसको भी इसी तरह सुनहरा रंग से रंग दे । साँझ बीत चुकी थी ।मजदूर भी अपनी दिहाड़ी लेकर जा चुके थे । मिट्टी के गणेश लक्ष्मी को टेराकोटा कलर से रंगते हुए भी सुनहरी यादे कहीं एक नदी की तरह आंखों के सामने तैर रही थी



सामने बालकॉनी में कोई गमले पेंट कर रहा था , सच था ही था कोई थी नही थी क्योंकि कोई थी होती तो उसके जहन में यही सब्जी क्या बने , सुबह के कपड़े सूख गए होंगे तहाने है । यह जो अनुत्पादक कार्य होते है इनकी फिक्र सिर्फ थी को होती है था तो इनको एंजॉय करते है जैसे इस बालकॉनी में कोई गमलों में अपने अरमानों सेरंग भर रहा है ।ब्रश के हर स्ट्रोक के साथ कोई एक याद भी लिपटी गमले में चिपकी रह जाती होगी ।

पहली दीवाली थी न, पहली बार इतना काम किया था उसने ,कमरे सजाने से लेकर गमले रंगने तक ,पीतल साफ करने से लेकर छप्पन भोग बनाने तक । दीवाली क्या होती है उसको समझ नही आया था ।चक्करघिन्नी की तरह काम करती करती वो भूल गयी थी उसने तो आज लाल बनारसी पहननी थी । पीला सूट पहनकर ही लक्ष्मी पूजन किया । लेकिन कोई रंग क्या लाल रंग की जगह ले सकता है ?


गुजिया का मसाला बन चुका था ,पहली बार जाना दीवाली पर भी गुजिया बनती है । आखिर इतना मीठा मीठा क्यों बनाते है लोग हमेशा ।अचानक कहा गया कि पकोड़े बनालो हमारे यहां रीत है । हुर्रेरे , लगा कुछ तो मन का हुआ है

सामने वाले के गमले पेंट हो चुके है , फेस पर भी लाल रंग लगा है पीले बल्ब की रोशनी में उसका चेहरा भी पीला सफेद लग रहा था । मौसम बदल रहा था लेकिन यह उम्र पूरे कपड़े पहन कर घूम ले कैसे हो सकता है । अचानक ट्रे में दो कप चाय लिए उस घर की थी बाहर आई उफ्फ बिल्कुल काली रंगतवाली ,गोर वर्ण के पंजाबी की काली ....दिल्ली में ऐसा कम ही देखा । यहाँ तो गोरे रंग को ऐसे महत्व दिया जाता है जैसे भोजन में दही और सलाद को.......

दीवाली ने मुझे खुशियां दी है लेकिन मुझे थका कर। एक माह पहले से पर्दे धोने से शुरू करके पीतल के गमले पीताम्बरी से पॉलिश करके फिर रसोई के डिब्बे चमकाने से लेकर लोगो को देने वाले गिफ्ट्स को खरीदने की प्लानिंग करने से लेकर उनकी पैकिंग कैसे हो ।उफ्फ्फ कितनी लंबी लिस्ट है न।

मायके से दीवाली पर आने वाले लड्डू का इंतज़ार बड़ी शिद्दत से रहता है । इस बरस लड्डू आएंगे या नहीं कह नही सकती। माँ जो नही रही ।मायका माँ से भरापूरा लगताहै ।उनके बाद एक अकेलापन और सन्नाटा हमारे हर तरफ है। सब होता है बस भीतर एक खालीपन रहगया है।

सन्नाटे भी शोर मचाते है ।कहकहे भी खोखले लगने लग जाते है।ऐसे में जब तुम मेरी गृहलक्ष्मी कहकर अपनी बॉहों में ले लेते हो तो आँखों में रोशनी बढ़ जाती है ।

हर दीवाली मेरी रौनक बने रहना