मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 14 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 14

मैं भारत बोल रहा हूं 14

(काव्य संकलन)

वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’

56. सोच में गदहे..........

राजनीति से दुखित हो, गदहे करत विचार।

सुसाइड करते पुरूष, हमरो नहीं यह कार्य।।

संघर्षी जीवन जिया, कर्मठता के साथ।

हलकी सोच न सोचना, जिससे नव जाये माथ।।

इनने तो हम सभी का, चेहरा किया म्लान।

धरम-करम और चरित्र से, हमसे कहाँ मिलान।।

जाति पंचायत जोरकर, निर्णय लीना ऐक।

तीर्थांचल में सब चलो, छोड़ नीच परिवेश।।

संत मिलन पावन धरा, हटै पाप का बोझ।

चलो मित्र अब वहॉं सभी, जहॉं जीवन हो ओज।।

इसीलिऐ खच्चर गधे, यात्री सेवा कीन।

राजनीति प्रायश्चित करें, जानो यही प्रवीन।।

57. कल क्या होगा....?

क्या होगा अब कल देखेंगे, सुख दुख का त्यौहार है।

पेटी(वेलेट) के पेटों से निकले, अंकन सीत फुहार है।

किसके मुरझाऐंगे चेहरे किसके लाल गुलाल हों-

होली सा हुड़दंग मचेगा, जीत हार श्रंगार है।।

आशा आसमान को थामें, शंकाकुली दुकूल में।

अपनी-अपनी चालें देखें, कहाँ सही, कहाँ भूल में।

मन में मिन्नत और पुजापे, रिद्धि-सिद्धि को नापते-

बदल न जाऐं भाग्य सितारे, कहीं फूल, कहीं सूल में।।

परिवर्तन आऐगा निश्चय, अंध निशा मिट जाऐगी।

आशाऐं करवट बदलेंगीं, नई सुबह फिर आऐगी।

सो लेना गहरी नींदों में, नऐ भोर की चाह में-

यह मदमाती बासंती है, भू जीवन हरसाऐगी।।

आशाओं के दीप जलेंगे, सबको सुमन बहार हो।

मंद-गंध की मदहोशी का, सबको ही उपहार हो।

सबकीं इच्छा पूरी होवें, होता यह विश्वास है-

सबके समय सुहाने होंगे, मनमस्ती का हार हो।।

नियति-नटी का खेल निराला, समझ इसे को पाता है।

चलता है संसार इसी क्रम, को रोता को गाता है।

दो पहलू होते जीवन के, फूल-सूल के साये से-

हंसकर ही स्वीकारो उनको, सुख-दुख जीवन नाता है।।

58. अमानत सौंपकर-------

अमानत सौंपकर तुमकों, मन में बहुत पछताऐ।

कही यह झूठ की कश्ती, किनारे डूब नहीं जाऐ।।

तुम्हारे वायदे झूठे, तुम्हारे कायदे झूठे-

कढे़ तुम साख के उल्लू,खुद को जान नहीं पाऐ।

शासन तुम सझते थे, बचपन-खेल सा होगा-

वादे जो किऐ तुमने, पूरे कर नहीं पाऐ।

हकीकत दूर है तुम से, भलॉं तुम मियाँ-मिठठू हो-

तुम्हारी सोच बौनी है, सबके हो नहीं पाऐ।

कभी एक बूंद में हमने, समंदर खौलते देखा-

कितनी भूल तुम भूले, अब तक सभल नहीं पाऐ।

अर्थी से उठे दोनों सिकंदर हाथ, क्या कहते-

संभल जा आज भी मानव, रीते हाथ ही जाऐ।

अब भी नेक इंशा बन, करले काम नेकी के-

नेकी वो इवादत है, पत्थर जहॉं, पिघलजाऐ।

खुद को,खुदी में बदलो, खुदा दीदार दे सकता-

रखा मनमस्त कुछ लेखा, बढ़ा या कुछ घटा पाऐ।

59. कर्तव्य पथ-----

भाग्य का आधार है, कर्तव्य पथ प्यारे।

हैं भरे जीवन समंदर, उसी से सारे।।

लहर की हलचल छुपी हैं, उस समंदर में-

घोर नर्तन और कल-कल, रूप है न्यारे।।

दर्द-ऐ-दिल दवा को मौहताज रहता है-

फिर भी दुखती नब्ज को,कुरकींदते सारे।।

भूलते हम ही गऐ, तुमने नहीं भूला-

हम तुम्हारी ओर इकटक, देखते हारे।।

इक इवादत ही रहा करता सदा तुम से-

चैन की मरहम लगा दो,जख्म पर प्यारे।।

नव स्वरों का साज दे दो छोड़कर मजहब-

उस नऐ आधार का,अवतार तुम न्यारे।।

चाल से बेचाल होती जा रही कश्ती-

मनमस्त को इक लहर का,आधार दो प्यारे।।

60. दर्द- ए -दिल------

दर्द-ऐ-दिल को कभी सताया न कीजिए ।

दर पे आऐ को भी, भगाया न कीजिए ।।

नयनों में नहीं नेह, ममता नहीं उरमें-

ऐसे सदन पर भूलकर, जाया न कीजिए ।।

राहों में बटमारों की हैं, अनेक बस्तियाँ-

उनकी भुलानी चाल में, आया न कीजिए ।।

यहाँ अजब ही रास्ता है, गजब लोगों का-

राज की बातें कभी, बताया न कीजिए।।

बेतार कैसे तार है, आज के हमदम-

मदहोश हो के गले से, लगाया न कीजिए ।।

अपनों से सावधान हो, दुधारी सी मार हैं-

सोने सजी लंका को भी, भुलाया न कीजिए ।।

है यही हर बार से, मनमस्त की अर्जी-

सपनों के साज, भूल कर, सजाया न कीजिए।।

61. गजल

भाल के श्रम सीकरों को,क्या कभी देखा।

एक में भी,जो अनेकों क्या किया लेखा।।

देखकर अनदेखा इनको किया है सबने-

वक्त की मारों ने,इन पर खींच दीं रेखा।

जिंदगी की पाठशाला में,पढ़े हर क्षण-

घूट गम के पी अनेकों,नहि किया लेखा।

क्या ख़ता थी?सिर्फ मॉंगी पेट को रोटीं-

किस कदर से मार डाला, नहिं गया देखा।

रोटियाँ सेंकी उन्हीं की,अर्थी पर जाकर-

राज सारा था छुपाया,जाल यौं फेंका।

सिर्फ हम ही नहिं,तुम्हारी चाल सब जाने-

जान की खातिर हमारी, तुम किऐ ठेका।

गर्दिशों में मदद को आऐ नहीं,दर पर-

तुम रहें मनमस्त,हमको ‘वोट’ ही देखा।

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सम्पर्क- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’

गायत्री शक्ति पीठ रोड

गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर म.प्र.

मो-9981284867