मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 13 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 13

मैं भारत बोल रहा हूं 13

(काव्य संकलन)

वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’

51. खूब कबड्डीं खिली------

खूब कबड्डीं खिली कि,अब तो पाला बदलो।

अंदर लग गई जंग कि,अब तो ताला बदलो।

भुंसारो अब भयो, रात की करो न बातें।

खूब दुलत्तीं चलीं, चलें नहीं अब वे लातें।

उठ गई अब तो हाठ, अपऔं सामान बॉंध लो-

सबें ऑंधरों करों, चलें नहीं अब वे घाते।

गयीं चिरईयाँ बोल कि,करबट लाला बदलो।।

खूब पुजापे दऐ, मिन्नते करी रात-दिन।

सौ तक गिनती भयी, लौटके फिर से अब गिन।

तुमने एक न सुनी, सब्र के बॉंध टूट गऐ-

कट रयीं कैसे गैल, पाव के छाले तो गिन।

मन में ऐसें लगत कि, अब तो यहाँ से भगलो।।

सबरीं खा गऐ लुचई, अंतड़ी इते रो गई।

मोल भाव नहीं चलें, हवा कुछ नई हो गई।

धूल जेबयीं बटीं, बटौना खूब बटाये-

शिव माटी के पुजें, कि जनता यहाँ भो गई।

संभल जाओ मनमस्त, कि अब तो चहरे बदलो।।

पूरी कौनऊॅं भई?घोषणाऐॅं नित कीनी।

नकली चहरे लगे, तुम्हारी जाते चीनी।

आसमान में उडे, विश्व दर्शन कर आऐ।

कितनी क्या-क्या कहें, दिनों की रातें कीनी।

चले न ऐकऊ चाल, ये काला चहरा बदलो।।

बदल गया संसार, बोरियाँ बिस्तर बॉंधो।

उनका हलवा पके, खीर अपनी नहिं रॉंधो।

डूब गया तब चॉंद, उगेगा सूरज उनका-

चलें न तुमरी ऐक, सुनो अब हमरी माधो।

खाली बगला करौ, रहनवा अपनो बदलो।।

तुमरी ढपलीं फुटी, कहरवा नहीं बजेगा।

सब्ज बाग मिट गऐ, नहीं दरबार सजेगा।

चलीं न कोऊ डींग, दहाडे़ कोरी रह गयीं-

उनकी चॉंदी भई, नगाड़ा उन्हीं बजेगा।

चुप-चाप उठ जाओ, लौट के अपनी हद लो।।

तुमरे सुन लये गीत, सुनें अब उनके गाने।

कुछ करके दिखलाऐं, अथवा करें बहाने।

अगर नहीं कुछ किया, दोऊ सिक्का के पहलू-

संभल जाओ मनमस्त, लगत कहीं कुछ ना पाने।

ऊॅंचे और न उठो, पहलवॉं अपना कद लो।।

52. प्रायश्चित

स्वप्न में सोचा नहीं था, ये बुरे दिन आयेंगे।

विपक्षों के इस तरह, परिचम यहाँ फहराऐंगे।

कर रहे जो आज ये, अहम था हम करेंगे-

हो गई है भूल यह, हम सदा पछताऐंगे।।

देखता था देश सब, संगम यहाँ पर जो हुआ।

गिर पड़े ज्यौं हम सभी, मान लो सूखे कुआ।

शीश हीने हो गये थे- धड़ हमारे यौं लगे-

हाथ फैलाऐं खड़े थे, उड़ गये हो ज्यौं सुआ।।

क्या कहैं, किसकी कहैं, बात मत करना अभी।

भूल जो हमसे हुईं हैं, पूछना भी मत कभी।

हो रहे हैं हम सभी, ऑंसुओं से तर-व-तर-

ये समय भी आयेगा, पछता रहे हैं हम सभी।।

मुंह दिखाऐं किस तरह, चोट खाये हुऐ हैं।

पेट में जो छुपे थे नाशूर, उनने छुऐ हैं।

हंस रहे हैं वेशर्म बन, देखकर भी यह सभी-

डूबने नहीं मिल रहे है, यहाँ पर सूखे कुऐ हैं।।

लग रहा है बे दिना अब, लौअकर नहीं आऐंगे।

पीढ़ियों तक, सच कहैं तो, हम सभी पछताऐंगे।

चोट भारी हो गई है, हम सम्भल पाऐ नहीं-

कालिखी चहरे हुऐ, इतिहास पन्ने गायेंगे।।

53. जंग से बचना हमेशा चाहिऐ।

जंग से बचना हमेशा चाहिऐ।

कुछ विचरें, आज इस पर, आइऐ।।

प्रकृति के सिद्धॉंत तो बदलें नहीं

आदमी ही बदलता है हर कहीं।

हानि लाभों की कहानी सदा से-

बौखला जाना तो, अच्छा है नहीं।

हल निकालो, शांति को अपनाइऐ।।

हर कही अवसाद गहरे दिलों पर।

बॅंट रहे हैं आज, इससे ही तो घर।

ऐक था परिवार, दुनियाँ हमारा-

दर्द इतना-सा बढ़ा है दिलों पर ।

सोच के चिंतन तलों में जइऐ।।

युद्ध से निकले नहीं है, कहीं हल।

बिगड़ते पाऐ हमेशा, सभी पल।

दूरियाँ बढ़ती गईं, नहीं कम हुईं-

जिंदगी की शाम के आये है पल।

सोच में कुछ नयापन, अपनाइऐ।।

होय युग बदलाव, ऐसा कुछ करो।

मन में हारै वो, ऐसा कुछ करो।

बदल दो व्यवहार के परिमाप को-

मान जाये हार, मन छोटा करो।

मानवी बच जाये, वह अपनाइऐ।।

जो न समझे, उसे क्या समझाओगे।

वे-अक्ल से बात कर, क्या पाओगे।

रोक दो व्यवहार और व्यापार सब-

तब कहीं उसको हरा तुम पाओगे।

रोक दो जीवन कहानी, आइऐ।।

कुछ कदम ऐसे चलो, हों कारगर।

बैठ जाऐ वो कहीं, खुद हारकर।

बंद हो राहें प्रगति की जब कहीं-

तोड़ दो संधीं सभी, जी मारकर।

इस तरह सच में, विजय हो जाइऐ।।

कुछ पड़ौसी जंग की ही ताक में।

अंदरुनी ही मिले, उस साख में।

किस तरह भारत मिटेगा, सोच यह-

देश की उन्नति मिलाने खाक में।

समझ अपनी से यहाँ बच जाइऐ।।

कुछ समय का दौर है, कढ़ जाऐगा।

वह भी अपनी हदों पर आ जाऐगा।

धैर्य धारण करो तो, कुछ और अब-

समय बीते वह स्वयं, पछताऐगा।

सदमार्ग का परिचम, सदा फहराइऐ।।

54. तिरंगे कसम दो......!

तिरंगे कसम दो हमको, सदा नीलाभ फहराओ।

जवानों के रहो हाथों, लिपटकर अब नहीं आओ।।

अमर कुर्बानियों की राह पर, चलकर तुम्हें पाया।

सभी की इन जुवानों ने, तुम्हारा गीत ही गाया।

तुम्हीं आजादी के मानक, अमर इतिहास हो तुम्हीं-

अमर गीतों के साये में, सभी ने तुझे दुहराया।

बनो नहीं शोक के सामा, अमन के गीत ही गाओ।।

तुम्हीं स्वभिमान हो युग के, धरा की आनि हो प्यारे।

तुम्हीं हो ज्ञान गीता के, तुम्हीं विज्ञान हो सारे।

किसीने जो नहीं देखा, तुमने वो सभी देखा-

तुम्हीं हो चक्र विष्णु से, तुम्हीं से वो सभी हारे।

अमन और चैन धरती पर, मुक्त हाथों से बरसाओ।।

न होवे जंग दुनियाँ में, प्यार के बीज बो डालो।

मैत्री भाव हों दिल में, न कोई दुश्मनी पालो।

करना है यही सबकुछ, धरा की धारिता बाढ़े-

विवेकानन्द अवनी पर, विवेकी गीत ही गालो।

रहो मनमस्त इस जग में, गीत आजादी के गाओ।।

55. सच को सच कहना भी......

न्याय नीति की इस धरती पर, अन्यायों का राज हो गया।

कितना है अॅंधेर कि सच को, सच कहना भी, जुर्म हो गया।

महाराष्ट्र का महारास वह, किसके दिल को नहीं छूता है।

कर्तव्य पथ पर चलें अगर तो, चल जाता वहॉं क्यों जूता है।

संविधान के वे गलियारे, बैठ ताक पर क्यों रोते हैं-

सांसद का वह नग्न नृत्य, क्या संसद को भी नहीं छूता है।

समझ न आता निर्दोषी वह कैसे? बोलो आज हो गया।।

सरे आम सबने, सब देखा, फिर भी हो गया सबकुछ सपना।

पक्षपात के राजपथों में, कैसे हो जाता वह अपना।

बिक जाते अखबार, मीडिया अथवा यहाँ करिश्मा कोई-

वह विकाश की अकथ कहानी, रह जाती है मात्र कल्पना।

गहरी नींदों में आ करके, लगता यहाँ कानून सो गया।।

रोज-रोज की कई तहरीरें, लिखी जा रहीं खूनी पथ पर।

राजमहल के वे दीवाने, चढ़े जा रहे निर्मम रथ पर।

दर्द सिर्फ भाषण में झरता, लेकिन हसतीं मन तस्वीरें-

सहमत और असहमत सबकुछ, चला जा रहा अपने पथ पर।

अंधे और बहरों के बीजे, कैसे कोई आज बो गया।।

लुटती असमत राजनीति के, हथखण्डों के इन चुनावों मे।

क्या उगाती ई.वी.ऐमें. भईं बदनामें, निज स्वभाव में।

कहाँ-कहाँ किसको बतलाऐं, काऐ-काऐ पर फिदा हो गई-

न्याय नीति कोने में बैठी, वेहियायी के हावभाव में।

जीवन अरमानों की होली, धूं-धूं जलती गजब हो गया।।