मैं भारत बोल रहा हूं 12
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
47. तौंद का विस्तार
तौंद की पैमाइस, किसने कब लई।
जो मलाई देश की, सब चर गई।।
आज जनता मै, यही तो रोश है।
लोग कहते दृष्टि यह दोष है।
फिर कहो? भंडार खाली क्यों हुऐ-
अंतड़ी क्यों? यहाँ पर वेहोश है।
यह अंधेरी रात, कहाँ से छा गई।।1।।
तौंद का विस्तार, दिन-दिन बढ़ रहा।
जो धरा से आसमां तक चढ़ रहा।
ऐक दूजे की, न कहते, बात सच-
बो बेचारा पेट खाली, दह रहा।
ईंट, पत्थर, लोह, सरिया खा गई।।2।।
यदि नहिं तो मॉंस-मदिरा कहाँ गऐ।
मछलियॉ, खारगोश, मुर्गे कहांॅ गऐ।
ढेर सारी जिंदगी, इसके लिऐ-
खून-पानी कर भी, इनके न भऐ।
ये अजूबा खेल, खेलत नित नई।।3।।
मत कहो, इसकी कहानी कोई भी।
ये किसी के दर्द पर, नहीं, रोई भी।
सब लगे, विस्तार इसके में यहाँ-
देखता नहीं, उधर-उनको कोई भी।
जिंदगी भी, मात इससे, खा गई।।4।।
बढ़ गया है बोझ इससे, धरा पर।
कोई तो सोचो, इसकी, धरा पर।
यदि नहिं सोचा, तो संकट है बड़ा-
रह न पाओगे, इससे, धरा पर।
यह विनाशी दौर तक भी, आ गई।।5।।
ये विराटी रुप है, समझो इसे।
बहुत सारे लोग, इसने ही डसे।
सांप-सीढ़ी, इसी की तदबीर है-
बच नहीं सकते? हटाओ अब इसे।
तौंद ही मनमस्त को खटका गई।।6।।
तौंद गाड़ी में लदी, है अकेली।
गैर तौंदौं ने ही इसको धकेली।
ये ही तो, बस ए.सियों में चल रही-
वायुयानों में भी बैठी, अकेली।
बहुत-भारी फौज, इसकी बढ़ गई।।7।।
48. क्या भविष्य होगा?
जो सरकार सरक कर चलती, क्या भविष्य होगा बतलाओ?
चम्पाओं के बाग मैटकर, नागफनी के फूल खिलाओ।।
हाथ उल्लूओं जहॉं अमानत,दिन मे भी जिनको नहिं दिखता।
कैसा, क्या इतिहास लिखेगाश् अनपढ़ हाथ जहॉं हो लिखता।
विना कमान्डर की हो सेना, सैनिक भी लगडे़ और लूले-
आपस मे अनवन हो गहरी, फैली हो आपस मे विषमता।
फतह मिलेगी कैसी उनको, इसका तो अनुमान लगाओ।।
सच्ची बात नहीं कह सकते, मंत्री ठकुर सोहाती बोले।
ज्ञानहींन हो गुरू जहॉं पर, क्या भविष्य के अंधड़ खोले?
नीम हकीम वैघ हो जहां पर,वहां मरीज का जीवन कैसा-
इती विषमता के मंजर में, जीवन नौका कैसे डोले।
क्या स्थिर भी रह सकता है, बिना नींव का भवन दिखओ।।
बिना किऐ कुछ हो सकता है, सिंहनाद सी कोरी नादैं।
आश्वासन के कोरे बीहड़ और उसी पर झूठे बादे।
क्या विश्वास करेंगा कोई?कथनी-करनी जहां अलग हो-
कैसे नाव रेत पर चलती, नेक नहीं हौं जहां इरादे।
कैसा मंजर वहां पर होगा,इतना तो मनमस्त बताओ।।
49. आस और विश्वास रख
आस और विश्वास रख,वह सुबह भी आऐगी।
जमीर जगमगाऐगा, जमीन मुस्कुराऐगी।।
जभी-भी आप चल पडें, मंजिले आसान हों।
उजाले आप खुद बनो, तो सामने विहाम हो।
आसान होऐंगीं सदा, जिंदगी की हर डगर-
रेत के जहॅान पर, प्रगती के निसान हो।
उजास के दुआर पर,समॉं-भी गीत गाऐगी।।
सभ्यता के भोर में,वे तारिका बुला रही।
मानवी विकास की, लोरियाँ सुना रही।
कर्म पंथ थामना है,कर्मशील बन तुम्हें-
प्रभाती द्वार पर खड़ी, किस कदर जगा रही।
भारती दुलार की, अनौखी लहर आऐगी।।
चाहते विकास गर, मानवी के पथ चलो।
इस तरह से मूक बन,हाथ तो नहीं मलो।
कान और जुवान संग,दृष्टि भी तुम्हारे पास-
क्या कभी बता सको?इस तरह से क्यों पलो।
हुंकार तो भरो जरा, जमीं भी दहल जाऐगीं।।
50. गृहमंत्री और डर?
अपने घर में डरै,कहो कैसा ग्रहमंत्री।
जिसकी रक्षा लगे,हमेशा कई ऐक संत्री।
कैसा होगा देश, राम सा राज्य वहॉं क्या?
सपने नहीं साकार, तहॉं ऐसा हो तंत्री।।
क्यों डरते निज गेह?नहीं क्या सच्चे सेवक।
छल-छद्मों के जाल, विछाना छोडोगे कब।
यही रहा जो हाल, तो नइया डूब जाऐगी-
अता-पता नहीं मिलें, कहाँ गऐ सब के सब।।
तुमरे जाल-फरेब, कि जनता जान गई है।
कब तक ठेलो इसे,हवा कुछ और भई है।
जान गऐ सब यहाँ, तुम्हारे नकली चेहरे -
करलो कुछ बदलाव,समस्या नई भई है।।
झूठ और कितना बोलोगे, हद पर ठाड़े।
अब तो ऐसे बजो,कि जैसे फूटे भॉंडे़ ।
गया जनाजा निकल, तुम्हारी लुटिया डूबी-
जान बचाकर भगो,चलें नहीं नकली खॉंडे।।
मुखिया अप्रैल फूल,अकल की अकल खो गई।
हैं जिनसे हैरान,पुलिस भी यहाँ रो गई ।
कैसा आया दौर कि, मानव दानव हो गऐ-
हे भगवान! बचाओ, फसल यहाँ कैसी वो गई।।