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मानस के राम (रामकथा) - 30





मानस के राम
भाग 30


हनुमान का रावण को समझाना

हनुमान रावण के वैभव को देखकर अचंभित अवश्य हुए थे। लेकिन उनके मन में रावण के लिए कोई भय नहीं था। हनुमान रावण के दरबार में थे। रावण के ह्रदय में अपने पुत्र की हत्या का दुख था। उसने अपने पुत्र इंद्रजीत से कहा,
"इस साधारण वानर में ऐसा क्या है कि तुम को इस पद ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना पड़ा ?"
इंद्रजीत ने कहा,
"पिताश्री यह वानर देखने में ही साधारण है। वास्तविकता में यह बहुत ही बलशाली है। इससे युद्ध करके मुझे पता चला कि यह माया भी जानता है। यदि मैं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर इसे ना पकड़ता तो यह और भी अधिक विध्वंस करता।"
रावण ने हनुमान से कहा,
"तुमने अशोक वाटिका का ध्वंस क्यों किया ? तुमने राक्षसों को क्यों मारा ? मेरे पुत्र अक्षय कुमार का वध करने की धृष्टता क्यों की ?"
हनुमान ने रावण को देखकर निर्भयता से कहा,
"मैं लंकापति के दरबार में उपस्थित होना चाहता था। इसलिए मैंने अशोक वाटिका में उत्पात मचाया। मैंने सिर्फ आत्मरक्षा के लिए उन लोगों को मारा जिन्होंने मुझ पर आक्रमण किया। आपके पुत्र अक्षय कुमार ने मुझ पर आक्रमण किया। आत्मरक्षा में मैंने उसे भी मार दिया।"
रावण ने कहा,
"तुमने इतना दुस्साहस किया। क्या तुम्हें लंकापति रावण के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं ?"
हनुमान ने हंसकर कहा,
"भला लंकाधिपति रावण के बारे में कौन नहीं जानता है। आपका यश तो तीनों लोकों में फैला है। मैं भली भांति जानता हूँ कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु ने आपको पराजित कर अपना बंदी बना लिया था। महाराज बाली ने आपको छह माह तक अपनी कांख में दबा कर रखा था। आपकी वीरता का तो एक और प्रमाण है। साधू का भेष बनाकर आपने छल से एक स्त्री का हरण कर लिया। भला ऐसे वीर पुरुष की ख्याति के बारे में कौन नहीं जानता है।"
हनुमान द्वारा किए गए इस व्यंग से रावण और अधिक क्रोधित हो उठा। गरज कर बोला,
"वानर तू अल्प बुद्धि है। लगता है तुझे तेरे प्राणों का मोह नहीं है।"
रावन ने आदेश दिया,
"इस धृष्ट वानर की जिह्वा काट ली जाए।"
रावण के सेनापति प्रहस्त ने कहा,
"महाराज क्षमा चाहता हूँ किंतु यह कोई साधारण वानर नहीं है। ना ही इसके यहांँ आने का प्रयोजन साधारण हो सकता है। हो सकता है इसे इंद्र, कुबेर या यम ने भेजा हो। वानर के रूप में यह उनका कोई दूत भी हो सकता है।"
इंद्रजीत ने प्रहस्त की बात का समर्थन करते हुए कहा,
"सेनापति प्रहस्त का कहना सर्वथा उचित है। हमें इस बात का पता कर लेना चाहिए कि इसे किसने भेजा है ? इसके यहां आने का प्रयोजन क्या है ?"
सेनापति प्रहस्त ने हनुमान से पूँछा,
"वानर सच बताओ तुम कौन हो ? तुम्हारे स्वामी का नाम क्या है जिनके कहने पर तुम यहाँ पर उत्पात मचाने आए हो। क्या तुमको इंद्र या कुबेर ने भेजा है ? जो भी है सत्य कहो। सत्य बोलकर तुम अपने प्राणों की रक्षा कर सकते हो।"

हनुमान ने रावण को संबोधित करते हुए कहा,
"मुझे ना इंद्र ने भेजा है और ना ही कुबेर ने। मैं अपने महाराज सुग्रीव की ओर से उनके मित्र श्री राम‌ का संदेश लेकर आया हूँ। महाराज सुग्रीव ने अपने मित्र अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्री राम की तरफ से संदेश भेजा है कि आप उनकी पत्नी सीता जिन्हें आप छल से हर कर ले आए थे, को सम्मान सहित वापस भिजवा दीजिए।"
हनुमान का परिचय जानकर दरबार में उपस्थित सभी लोग एक दूसरे की तरफ देखने लगे। रावण उसी प्रकार दंभ में भरा हुआ बैठा था। हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा,
"प्रभु राम का दूत होने के कारण मैं ‌ तुमसे विनती करता हूंँ कि तुम अपना अभिमान त्याग कर प्रभु राम से अपने किए की क्षमा मांग लो। वह तुम्हें अवश्य माफ कर देंगे।"
हनुमान की बात सुनकर रावण हंसकर बोला,
"लंकापति रावण उस तुच्छ वनवासी से क्षमा मांगेगा। मूर्ख वानर तूने ऐसा सोचा भी कैसे।"
हनुमान ने कहा,
"अपने दंभ में चूर आप धर्म और अधर्म का भेद नहीं कर पा रहे हैं। पराई स्त्री पर कुदृष्टि डालना पाप के समान है। माता सीता एक पतिव्रता स्त्री हैं। एक पतिव्रता स्त्री के सतीत्व की शक्ति बड़ी से बड़ी ताकत को परास्त कर देती है। इसलिए अपने उनके कुल के विनाश का कारण ना बनिए। माता सीता को प्रभु राम के पास पहुँचा दीजिए।"
हनुमान की बात सुनकर रावण को बहुत क्रोध आया। अपने क्रोध को अपनी हंसी में दबाकर बोला,
"वाह मुझे सही मार्ग दिखाने के लिए इतना ज्ञानी वानर आया है।"
उसके बाद क्रोध में बोला,
"मूर्ख वानर तेरी मतिभ्रष्ट हो गई है। मुझे सीख देने का दुस्साहस कर रहा है। चुप हो जा अन्यथा मारा जाएगा।"
हनुमान ने भी हंसकर निर्भीक होकर कहा,
"मुझे तो आपकी मतिभ्रष्ट प्रतीत होती है। जब व्यक्ति का काल आता है तो वह अपने हित की बात भी नहीं समझ पाता है। आप भी वही कर रहे हैं। मेरी मानिए तो माता सीता को उनके पति प्रभु राम के पास भिजवा कर क्षमा मांग लें। अन्यथा अपने और अपने कुल के विनाश का कारण बनेंगे।"
दंभ में डूबे रावण को हनुमान की यह बात बहुत बुरी लगी। उसने आदेश दिया,
"इस वानर को ले जाकर इसे मृत्युदंड दो।"
रावण की बात सुनकर सैनिक हनुमान की तरफ बढ़े। रावण के अनुज विभीषण ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा,
"महाराज हनुमान एक दूत हैं। नीति यही कहती है कि दूत को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता है।"
दरबार में उपस्थित सभी लोगों ने विभीषण की बात का समर्थन किया। रावण ने कहा,
"इस दुष्ट वानर ने हमारी प्रिय अशोक वाटिका का ध्वंस किया है। हमारे पुत्र अक्षय कुमार और दूसरे योद्धाओं का वध किया है। इसके अपराध देखते हुए इसे मृत्युदंड देने में क्या आपत्ति है।"
विभीषण ने कहा,
"महाराज दूत अपने स्वामी के आधीन होता है। उसके कृत्य के लिए उसका स्वामी उत्तरदाई होता है। अतः दंड भी स्वामी को ही मिलना चाहिए। आप मृत्युदंड के अलावा कोई भी दंड दे सकते हैं।"
रावण ने विचार करते हुए कहा,
"तो ठीक है। हम इसका अंग भंग कर देते हैं। वानर को अपनी पूँछ से बहुत प्यार होता है। अतः इसकी पूँछ में तेल से भीगा कपड़ा बांधकर आग लगा दो।"


लंका दहन

रावन के सैनिक हनुमान को दरबार के बाहर ले गए। उन्हें नगर के एक खुले मैदान में ले जा रहे थे। नगरवासी हनुमान को देखकर तरह तरह की बातें कर रहे थे। कुछ लोग कह रहे थे कि यह वही वानर है जिसने उत्पात मचाया था। इसे अब उचित दंड मिलेगा। कुछ लोगों को भय था कि जिस वानर ने इतने वीर योद्धाओं को मार दिया वह साधारण नहीं हो सकता है।‌ अवश्य लंका पर कोई मुसीबत आने वाली है।
हनुमान नगरवासियों के बीच से गुज़र रहे थे। बच्चे बड़े कौतूहल से उन्हें देख रहे थे। सैनिक मैदान में आकर उनकी पूँछ में आग लगाने की तैयारी करने लगे। उन्होंने नगर से कपड़ा और तेल एकत्र किया। वह कपड़े को तेल में भिगोकर हनुमान की पूँछ में बांध रहे थे।
हनुमान के मन में एक खेल सूझा। जैसे जैसे सैनिक हनुमान की पूँछ पर कपड़ा बांध रहे थे वैसे वैसे हनुमान अपनी पूँछ बढ़ा रहे थे। सैनिक हैरान थे कि हो क्या रहा है। ऐसा समय आया जब और अधिक तेल और कपड़ा नहीं बचा। सैनिकों ने हारकर पूँछ पर आग लगा दी।
हनुमान ने अपना आकार अचानक बहुत छोटा कर लिया। सैनिकों के बंधन से मुक्त होकर वह एक महल पर जाकर चढ़ गए। वहाँ उन्होंने अपना आकार बहुत विशाल कर लिया। हनुमान एक भवन से दूसरे पर कूद कर आग लगा रहे थे। वह बहुत तेज गर्जना कर रहे थे।
नगरवासियों में भय की लहर दौड़ गई। स्त्री, बच्चे भय से चीत्कार कर रहे थे। चारों ओर हाहाकार मची थी। सब कह रहे थे कि लंका पर यह कैसी विपदा आ गई। वह ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें इस मुसीबत से उबारें।
सोने से बनी लंका को अग्नि के हवाले करने के बाद हनुमान पूँछ की आग बुझाने के लिए समुद्र में कूद पड़े।


सीता द्वारा चूड़ामणि देना

पूँछ में लगी आग बुझाने के बाद हनुमान आराम करने बैठ गए। उनके मन में विचार आया कि उन्होंने तो संपूर्ण लंका में आग लगा दी है। यह आग अशोक वाटिका तक भी पहुँचेगी। इससे माता सीता के प्राण संकट में आ सकते हैं। यह विचार मन में आते ही हनुमान परेशान हो गए। वह मन में पछताने लगे कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। उसी समय आकाशवाणी हुई,
"हनुमान सीता के सतीत्व के कारण कोई भी संकट उन पर नहीं आ सकता है। संपूर्ण लंका धूं धूं कर आग में जल रही है। किंतु अशोक वाटिका पूर्णतया सुरक्षित है।"
यह सुनकर हनुमान प्रसन्न हुए। वह सीता से भेंट करने के लिए अशोक वाटिका की तरफ चल दिए।

जब हनुमान ने लंका में आग लगाई तो पहरे पर तैनात राक्षसियां उठती हुई लपटों को देखकर भयभीत हो गईं। वह अपने घर परिवार का समाचार लेने के लिए भाग गईं।

सीता कोलाहल सुनकर शांत थीं। हनुमान ने जाते समय कहा था कि वह किसी प्रकार की हलचल से विचलित ना हों। हनुमान सीता के समक्ष प्रस्तुत होकर बोले,
"माता मैं अब प्रभु राम के पास जा रहा हूँ। जिस प्रकार प्रभु ने अपनी मुद्रिका दी थी वैसे ही आप भी मुझे कोई चिन्ह देने की कृपा करें।"
सीता ने अपना चूंड़ामणि निकाल कर हनुमान को दे दिया। हनुमान ने कहा,
"माता मुझे कुछ ऐसी बातें भी बताइए जिन्हें सुनकर प्रभु राम को विश्वास हो जाए कि मैं आपसे मिला था।"
सीता ने हनुमान को वह कथा सुनाई जब इंद्र पुत्र जयंत एक कौए का रूप धारण कर उन्हें परेशान कर रहे थे। तब राम ने एक तिनके को बाण की भांति फेंककर मारा। इसके अलावा उन्होंने चित्रकूट में राम और सीता के बीच व्यतीत अन्य पलों के बारे में बताया। अंत में उन्होंने कहा,
"पुत्र हनुमान जाकर मेरे स्वामी राम से कहना कि वह अब और अधिक विलंब ना करें। यदि एक माह के भीतर वह मुझे लेने नहीं आए तो मैं अपने प्राण त्याग दूंँगी।"
हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा,
"माता अब आप तनिक भी चिंता मत करें। प्रभु राम अपनी वानर सेना के साथ जल्दी आएंगे। आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं वापस जाकर प्रभु राम को आपका समाचार दे सकूँ।"
सीता ने आशीर्वाद देते हुए कहा,
"पुत्र हनुमान तुमने प्रभु श्री राम का समाचार देकर मेरी बहुत सेवा की है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूंँ कि तुम अजर अमर हो जाओ। तुम्हारे बल की कोई सीमा ना रहे। आने वाले कई युगों तक तुम्हारा नाम इस संसार में बना रहे।"
सीता से आशीर्वाद प्राप्त कर उन्हें प्रणाम कर हनुमान वहांँ से चले गए। चलने से पहले उन्होंने एक बार फिर भीषण गर्जना की जिसे सुनकर समस्त लंका में भय और तनाव का माहौल व्याप्त हो गया।

हनुमान जब समुद्र लांघकर दूसरे छोर पर पहुंँचे तो उन्हें सुरक्षित देखकर उनके साथी वानर बहुत प्रसन्न हुए। उनमें एक उत्साह की लहर दौड़ गई। सब हनुमान की भूरी भूरी प्रशंसा कर रहे थे।
प्रसन्नता पूर्वक सभी वानरों ने किष्किंधा की तरफ प्रस्थान किया।









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