शम्बूक वध और महाकवि भवभूति रामगोपाल तिवारी द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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शम्बूक वध और महाकवि भवभूति

महाकवि भवभूति, (आलेख एवं अन्य) .

पद्मावती, पदम पवाया एवं पंचमहल की धरती ,जो अपने साँस्कृतिक भण्डागारों के ऋण से हमें मुक्त नहीं कर सकी है, वहीं यहाँ के वांगमय साहित्य के धरोहर,संस्कृत के अध्येयता महाकवि भवभूति के ज्ञान गौरव से भी कम आप्लावित नहीं हैं। विगत प्राचीन काव्य साधना का वह आठवी सदी का ज्ञान संवर्धन, हमारी संस्कृति की कम धरोहर नहीं हैं। यह वैज्ञानिक युग है, विज्ञान की उपलब्धियाँ साहित्य के अतीत की बर्जना नहीं करतीं, वे ज्ञान का विस्तार करतीं हैं। साहित्य के विद्वान, वैज्ञानिक भले ही न हो, पर वे वैज्ञानिक सोच के हमसफर तो आवश्य ही हैं। हमें पुरा-संपदा का संरक्षण करना आवश्यक होगा।

महाकवि भवभूति का संस्कृत साहित्य जो विगत संस्कृति का संरक्षक होने के साथ-साथ उपादेय भी है। यदि विगत साहित्य की उपादेयता पर ध्यान नहीं दिया तो हम संस्कृत साहित्य की उपेक्षा के दोषी होंगे। हमने बहुत कुछ खो दिया है, जो बचा है उसे बचाया जाना चाहिये तथा जो बाँचा नहीं गया ,वस्तों में बाँधा, विखरा है, उसे खोलकर एवं खोजकर बाँचना चाहिये। अनुपयोगी, अयुगीन और अप्रासाँगिक कह कर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इन साहित्यों में भारतीय संस्कृति की महान सत्ता छिपी है जिसके हम हमेंशा ऋणी रहेंगे। गुमनाम संपदा की खोज हमारी भी जुम्मेदारी है। लोग पुरा साहित्य के प्रति कितने उदासीन हैं, कहते सुना है कि खण्डहर खोदने से क्या लाभ , कुछ नया निर्माण करो, अब उन्हें कौन समझाये कि खण्डहरों में कितने रत्न दवे पड़े हैं। आँख खोलकर भी न देखना कितनी बड़ी विड़म्बना है। क्या यह भी नहीं जानते कि वर्तमान, अतीत की नीव पर खड़ा होकर ही विस्तार पाता है।

साहित्य के वेत्ता और अध्येयता श्री रामगोपाल तिवारी‘भावुक’ जी ने महाकवि भवभूति जी पर जो कलम चलाई है वह अभिनन्दनीय है। बहुत गहरी पर्तों में दवे भवभूति साहिय की अनेक लुप्त पर्तों को उकेर कर नवीनता दी है। महाकवि के तीनों ग्रंथों महावीर चरितम्, मालती माधवम् एवं उत्तर रामचरितम् की वास्तविक अभिव्यंजना को उजागर कर नया पाथेय दिया है।

इस आलेख एवं अन्य कृति में उपरोक्त महाग्रंथों पर सार गर्भित कलम चलाकर साहित्य अध्येयताओं के लिये बहुत कुछ नया देने का प्रयास किया है। आपने इस पुरा वैभवशाली नगरी का इतना मनोहारी और मनोरम चित्रण किया है जो पाठक को उस धरा पर वर्वश खींच कर ले पहुँचता है। पद्मावती की वह पावन भूमि , जो जन श्रुतियों में अपना पुरा वैभव आज भी जीवन्त रखती है, साहित्य संर्वधन की नवीन पहल है। इस नगरी ने यवन सभ्यता को भी देखा, उसके प्रभाव को भी परखा किन्तु अपने प्राचीन वैभव को कभी भुलाया नहीं। आज भी अपने भग्नावशेशों में प्राचीन वैभव को संजोये हुये है। यहाँ पर कालप्रियनाथ का भव्य मन्दिर है जो महाकवि भवभूति की कृतियों में समाहित है। यह मन्दिर उस समय की सभ्यता को आज भी अपने आप में लिये है।

आलेख-महाकवि भवभूति के कालप्रियनाथ इसकी धरोहर है। महाकवि ने अपने साहित्य में क्रान्ति का भी अलख जगाया है। उनकी द्रष्टि इतनी पैनी थी कि उन्हें भविष्य की झाँकियाँ भी दिखाई देतीं थीं। इस विषयक भावुक जी का आलेख का्रन्तिदृष्टा भवभूति बहुत कुछ नाया चिन्तन परोसते लगा तथा आलेख शम्बूक वध और भवभूति तो बहुत कुछ हटकर नया चिन्तन देता है जो महाकवि वाल्मीकीय तथा अन्य से भी परे है। नये सोच का नया अलख जागरण है जो चिन्तकों और शोधार्थियों के लिये नवीन धरातल है। इस तरह भावुक जी की कलम नये- नये शोधों के लिये स्मृति में संजोये रखने लायक है। मालती माधवम् नाटक में नर वलि प्रथा पर गहन चिन्तन दिया है जो उस समय की तांत्रिक विधि का अच्छा खासा भण्डाफोड़ है। इस नाटक के माध्यम से कही गई बात परिवर्तन की अपेक्षा लिये सामने आती है। आलेख-आत्मकथ्य शैली में-भवभूति का पदमपुर (विदर्भ) से प्रस्थान की अद्भुत संरचना की है वह अभी तक के तथ्यों से विल्कुल ही नवीन और अनूठी है। भावुक जी इस तथ्य के लिये साहित्य में अवश्य ही याद किये जायेंगे।

आलेख -यात्रा वृतान्त- महाकवि भवभूति की पद्मावती नगरी का जो छुपा भूगर्भीय इतिहास है उसको बड़ी सरल और खोजपूर्ण दृष्टि से दर्शाया गया है। इतना प्रचीन इतिहास जो महाकवि भवभूति ने अपनी कृतियों के माध्यम से संस्कृत साहित्य को दिया है जो बहुत ही अनुपम है फिर भी साहित्य जगत ने उसे भुलाकर बहुत बड़ी चूक की है। आज भी वह पुरा वैभव सम्पन्न साहित्य उपेक्षित सा है जिस पर भावुक जी ने अपनी कलम चलाकर बहुत कुछ नया दिया है। महाकवि भवभूति का कुछ सार्हित्य नये सन्दर्भों को लेकर भी सामने आया है जिससे ऐसा लगता है कि महाकवि भवभूति की कोई और कृति भी होना चाहिये जिसका उल्लेख भावुक जी का आलेख- भवभूति की एक और नाट्य कृति स्पष्ट करती दिख रही है।

उपरोक्त विश्लेशण इस तथ्य पर पहुँचता है कि महाकवि भवभूति का संस्कृत साहित्य जो अभी तक बहुत कुछ अनदेखा रहा है तथा उपेक्षित सा है वह शोधकी अनन्त संभावनायें लिये हुये है। इस विषय पर शोधहोना आवश्यकहै। नये-नये तथ्यों को यह पद्मावती नगरी उगलेगी जो साहित्य संवर्धन में अनेकों नये सोपान सामने लायेगी।

निःसन्देह यह आलेख कृति मृद्रित होकर बहुतों का नेत्रोन्मीलन करेगी। अनेकों व्याप्त भ्रान्तियों को निर्मूल करने की पहल करेगी। अतः ऐसे अनुपम और मौलिक सर्जना के लिये भावुक जी को बधाई है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उनकी मौलिक लेखनी कथमपि भी वार्धक्य का निमंत्रण स्वीकार नहीं करेगी। इसी के साथ में भावुक जी की साहित्य साधना की मंगल कामना करते हुये यह आशा करता हूँ कि वे अनवरत प्रगति की दिशा में आगे बढ़ते रहेंगे।

वेदराम प्रजापति‘मनमस्त’

दिंनाक -6जून 2020 गायत्री शक्तिपीठ रोड गुप्तापुरा

भवभूति नगर(डबरा) जिला ग्वालियर म.प्र.

मो0- 099812 84867

2 लेखकीय-

मेरा महाकवि भवभूति की कर्म स्थ्ली पदमावती (पवाया) के परिक्षेत्र में बसे सालवई गाँव में जन्म। वहीं पला बढ़ा हूँ। मेरा अध्ययन भी वहीं हुआ है और अपने ही गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक भी रहा हूँ। यों सारी जिन्दगी भवभूति की कर्म स्थ्ली के निकट रह कर व्यतीत की है। इस तरह प्रकुति ने ही मेरा रिस्ता महाकवि भवभूति से प्रारम्भ से ही जोड़ लिया है। मैं माता- पिता के साथ बचपन से ही धूमेश्वरके मन्दिर के दर्शन करने जाने लगा था। यों उन खडहरों से अनायास रिस्ता जुड़ा चला गया। समय के साथ दृष्टि गहराती चली गई। जो जो नई-नई बातें मिलती चली गईं, मैं उन्हें अध्ययन के साथ पन्नों में समेटता चला गया।

मगरोंरा के राजा साहव राव मीरेन्द्र सिंह जू देव के गोविन्द शिक्षा समिति डबरा द्वारा वर्ष1976 ई0 में सम्मान के अवसर पर प्रदत्त वाल्मीकि रामायण एवं महाकवि भवभूति के साहित्य के अध्ययन से तपस्वी शम्बूक के वध पर दृष्टि गहराती चली गई। वाल्मीकि रामायण में यह प्रसंग क्षेपक है। इस तथ्य को आपके समक्ष पहले परोसने की इच्छा से इसे ही प्रस्तुत किया है। साथ ही महाकवि भवभूति के साथ पदमावती नगरी से रिस्ता अपने इन आलेखों के माध्यम से आपके समक्ष रखा है।

प्रसिद्ध इतिहास विद् डॉ0 आनन्द मिश्र द्वारा सम्पादित ‘पंचमहल की घरोहर’ पत्रिका ने इस चिन्तन को परिपक्व किया एवं ‘पंचमहल की माटी’ काव्य संकलन में श्री नरेन्द्र उत्सुक जी की इस सम्पादकीय कविता ने इस ओर काम करने के लिये मुझे उकसाया है।

भवभूति की गरिमा है यह, पंचमहल की माटी है।

नोंन नदी पावन बहती है, सुन्दर रानी घाटी है।।

धूमेश्वर-शिव निकट पवाया,

पद्मावति अवशेष अनेक।

सिन्धु बह रही कलकल करती,

मंत्र मुग्ध हो रहे विवेक।

माटी है यह चंदन जैसी,

आँचल में गौरव गरिमा है।

इतिहासों को किये समाहित

प्रकृति वधूटी की प्रतिमा है।।

ज्ञान घ्यान चिन्तन की धरती,सरस्वती ने छाँटी है।

भवभूति की गरिमा है यह, पंचमहल की माटी है।।

आज इन्हीं सब बातों को एक साथ आप के हाथों में समर्पित कर रहा हूँ। सम्भव है आपको मेरी बातें आज के परवेश में भी नई लगें तो उन्हें सहेज कर रख लें । देश की चर्चित पत्रिका इंगित, वर्तमान साहित्य तथा कालीदास अकादमी से प्रकाशित भवभूति स्मारिका में भी इसके कुछ आलेख स्थान पा चुके हैं।

अखिल भारतीय महाकवि भवभूति समारोह के कार्यक्रमों में मुझे महाकवि भवभूति के साहित्य पर आप सब को सुनने, समझने का मौका मिला है। मैं भी अपने चिन्तन को अपके समक्ष रखने का प्रयास कर रहा हूँ। स्वीकार कर अनुगृहीत करें।

2.6 2020

रामगोपाल भावुक

3 शम्बूक वध और महाकवि भवभूति

अग्नि परीक्षा के बाद भी

सीता माँ का परित्याग,

महान तपस्वी

शम्बूक का राम के द्वारा वध,

पता नहीं किस कुघरी में

ये निर्णय लिये गये।

व्यवस्था को सड़ने के अंकुर दिये गये।।

मैं अपनी इन पन्तियों को पिछले बीस वर्षों से गुनगुनाता रहा हूँ।

आज याद आरहा है, कथित ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये मर्यादा पुरूषोतम श्रीराम का चरित्र ही दाव पर लगा दिया। इस सम्बन्ध में मैं आप सब का ध्यान वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के तेहत्तर से छिहत्तर सर्ग में राम राज्य के जनपद में रहने वाला एक बृद्ध ब्राह्मण अपने मरे हुये बालक का शब लेकर राजद्वार में आया और कहने लगा-‘‘यह राजाराम का कोई महान दुर्ष्कम है जिससे इनके राज्य में रहने वाले बालकों की मृत्यु होने लगी है।’ (वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 73में श्लोक 10) यहाँ मेरा कहना है कि राज दरवार में प्रमाण के लिये एक ब्राह्मण बालक ही प्रस्तुत किया गया, अन्य कोई बालक नहीं। साथ ही उस बृद्ध ब्राह्मण को यह भी कहना चाहिये था कि उसे राम के राज्य में बृद्ध अवस्था में पुत्र की प्राप्ति हुई है यह भी राम का ही दाष विमश्

उस ब्राह्मण ने राम को यह धोंस दे डाली कि मैं अपनी स्त्री के साथ आपके राजद्वार पर प्राण दे दंूगा, फिर ब्रह्महत्या का पाप लेकर तुम सुखी होना। इस तरह सारा दोष राम के मत्थे मढ़ दिया गया। इस समस्या के समाधान के लिये राजसभा बुलाई गई। जिनमें मार्कण्डेय,मौदग्ल्य,वामदेव,काश्यप,कात्यायन,जावालि,गौतम तथा नारद जैसे दिव्य दृष्टि वाले मुनियों से बिना विचार विमर्श किये, नारद का यह कथन-‘‘सतयुग में ब्राह्मणों को तप करने का अधिकार था। त्रेता युग में क्षत्रियों को तप करने का अधिकार हो गया। क्रम से द्वापुर में वैश्य भी तप का अधिकार प्राप्त कर लेंगे। किन्तु शूद्रों को कलियुग में तपस्या करने की प्रवृति होगी और वे यह अधिकार प्राप्त कर लेंगे।(वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 74 श्लोक 27) त्रेतायुग में वैश्य और शूद्रों को तप करने का अधिकार नहीं था। इस परम्परा को शम्बूक ने तोड़ने का प्रयास किया तो ब्राह्मणों को अपना वर्चस्व खतरे में पड़ता दिखा। वे अपने पेट पर हाथ फेरने लगे। यहाँ उन्होंने अपना वर्चस्व बनाये रखने एवं लोगों को भ्रम में डालने के लिये शम्बूक वध की कथा गढ़ डाली और उसे वाल्मीकीय रामायण में जोड़ दिया।

जरा सोचिये, किसी शूद्र की तपस्या से ब्राह्मण बालक की ही मृत्यु हुई! राजसभा के माध्यम से राम जैसे व्यक्तित्व द्वारा तपस्वी का वध करने की कहानी इसमें जोड़ना। जिससे लोग राम की तरह ब्राह्मणों से डरकर रहें। उनके झूठे कथनों पर आँखें बन्द करके विश्वास करते रहें और उनकी सोने की झोली में भीख डालते रहें। इन भिखमंगों केा राम पर ऐसा नीच आक्रमण करने में जरा भी संकोच नहीं लगा और यह कहानी गढ़कर वाल्मीकीय रामायण में चिपका दी।

यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या राम जैसा व्यक्तित्व इतना कमजोर था कि ऐसी झूठी बातों में आगया। तपस्या से ब्राह्मण बालक की मृत्यु जैसी बात पर किसी तपस्वी को मारना न्याय संगत नहीं लगा।

इसी प्रसंग में आश्चर्य यह भी है कि नारद जैसा तपस्वी ऋषि यह तो बतला देता है कि कहीं शम्बूक शूद्र तप कर रहा है। किन्तु वे यह नहीं बतला पाते कि वह कहाँ तप कर रहा है! राम उसे मारने देश में चारों तरफ खोजते फिरते हैं।( वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 75 श्लोक 10से 14) शम्बूक एक सरोवर के निकट वृक्ष से उलटा लटका तप कर रहा था। राम उससे पूछते हैं-‘‘तुम कौन हो और तप क्यों कर रहे हो?’

वह बोला-‘‘मैं शम्बूक नाम का शूद्र हूँ। इन्द्रासन प्राप्त करने (उच्च पद प्राप्त करने) के लिये तप कर रहा हूँ।’’

शम्बूक की बात सुनकर उत्तर दिये बिना राम तलवार से उसका वध कर देते हैं। यहाँ हमारे मन में यह प्रश्न उठता है, कि केवल शम्बूक का वध करने के लिये राम तलवार लेकर चले थे। किन्तु वे तो धनुषधारी थे। इससे स्पष्ट है -तलवार युग में यह कहानी वाल्मीकीय रामायण में जोड़ी गई है।

आश्चर्य तो देखिये, शम्बूक के वध बाद वह ब्राह्मण बालक जी जाता है और अपने बन्धु-बान्धवों से जा मिलता है। कथा में फिर उस बालक के माता-पिता कहीं दिखाई नहीं देते। राम का उपकार मानने भी नहीं आते। अरे! किसी का मृत पुत्र जीवित हो जाये और वह जीवित करने वाले का उपकार भी न माने। यहाँ कथा गढ़ने वाले यह भूल गये कि इससे उनकी कृतघ्नता ही प्रदर्शित होगी।

यों वाल्मीकीय रामायण में यह वृतान्त ही गढ़ा हुआ प्रतीत होता है।

अब हम महाकवि भवभूति द्वारा लिखे प्रसंग पर ध्यान दें-वे राम कथा लिखते समय परम्परागत प्रसंगों को नहीं छोड़ पाये हैं। महाकवि भवभूति सीता के अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग से व्यथित हैं।....और यही व्यथा उन्हें उत्तर रामचरित लिखने को विवश करती है। वे इस कृति के माध्यम से इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत करना चाहते हैं। भवभूति की सीता वाल्मीकीय रामायण की तरह धरती में नहीं समाती वल्कि उनका मिलन होता है।

पौराणिक परम्परा के मोह में पड़ कर भवभूति भी शम्बूक का राम के द्वारा वध कराते हैं। किन्तु यहीं राम का अपनी बाहु से यह कथन-‘‘हे दक्षिण वाहु, ब्राह्मण के मरे हुये शिशु के जीवन के लिये शूद्र मुनि के ऊपर कृपाण चलाओ। परिपूर्ण गर्भ से खिन्न सीता के निष्कासन में निपुण तुम राम की वाहु हो। तुम्हें भला दया कहाँ?’’

यहाँ भवभूति के कथन पर आश्चर्य होता है। इसे गौर से देखें- ‘‘महाकवि भवभूति उस परम्परागत पौराणिक प्रसंग पर सन्देह होता है, इसी कारण इस प्रकार का द्वन्दात्मक प्रसंग उन्हें लिखना पड़ा है। गर्भवती सीता के निष्कासन में निपुण तुम राम की वाहु हो। तुम्हें भला दया कहाँ?’’

शम्बूक वध से पूर्व राम का ऐसा चिन्तन! इस तरह मनोबैज्ञानिक दृष्टि से सोचने वाला व्यक्ति किसी की हत्या कर पायेगा। वे करुणा से परिपूर्ण हो अपनी भुजा को धिक्कारते हैं। शम्बूक वध के समय निर्वासित सीता की स्मृति करके वे महसूस करते हैं उनके हाथ से दूसरा यह अशोभनीय कार्य भी हो रहा है।

इससे आगे उनका ही वाक्य देखें-‘‘किसी भी प्रकार मारकर राम के सद्रश्य कर्म कर दिया। सम्भव है ब्राह्मण पुत्र जी जाय।’’

इस कथन में राम अपने को धिक्कारते हुये यह अनैतिक कर्म करते हुये दिखाई दे रहे हैं।

जो प्रसंग बाद में जोड़़े हुये होते हैं उनमें कहीं न कहीं भूल छूट जाती है। यों भवभूति और बाल्मीकि की कथा में वहुत अन्तर है। वाल्मीकि की अपेक्षा भवभूति ने मनोबैज्ञानिकता का पूरा ध्यान रखा है। भवभूति मृत बालक के शव को पिता के द्वारा न भेजकर माता के द्वारा राजद्वार में भेजते हैं।

शम्बूक वध के बाद दिव्य पुरूष की उपस्थिति वाल्मीकि की अपेक्षा नया प्रयोग है। उस दिव्य पुरूष के शब्दों पर ध्यान दें-‘‘यमराज से भी निर्भय करने वाले, दण्ड धारण करने वाले तुम्हारे कारण यह शिशु जी गया। यह मेरी समुन्नति है। यह शम्बूक तुम्हारे चरणों में सिर से नमस्कार करता है। सत्सग से उत्पन्न मरण भी मुक्त कर देते हैं । राम शम्बूक को तप का फल प्रदान करते हैं, उसे अणिमा लघुमा जैसी सिध्दियाँ प्रदानकर बैराज नाम के लोक में निवास करने का बरदान देते हैं।’

शम्बूक कहता है-‘‘स्वामी आपके प्रसाद का यह महत्व है। तपस्या से भला क्या! अर्थात् तपस्या ने वहुत वड़ा उपकार किया है। संसार में अन्वेषण करने योग्य लोकनाथ, शरणागत की रक्षा करने वाले मुझ शूद्र को ढ़ूढते हुये सेकड़ों योजन लाँघकर यहाँ आये हैं। यह तपस्या का फल ही है।’’

शम्बूक मरने के बाद भी राम की सेवा में उपस्थित रहकर उन्हें दन्डकारण्य से परिचित कराता है। यों राम शम्बूक वध के बाद इसी प्रसंग में शम्बूक को संन्तुष्ट करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं।

यहाँ विचार करें-आपको किसी ने दण्ड़ित कर दिया। फिर भी आप उस दण्ड़ित करने वाले की मदद करने में लग सकेंगे! यह सम्भव नहीं लगता। यहाँ शम्बूक राम केा दंडकारण्य का मार्ग सुझाता है। राम उसकी बात मानकर आगे बढ़ते हैं।

इसका अर्थ है भवभूति को इसमें सन्देह न होता तो वे इसे स्वाभविक बनाने के लिये ये नये प्रसंग न जोड़ते। बाल्मीकि जैसे महाकवि से ऐसे अस्वाभाविक वृतान्त की रचना की कल्पना नहीं की जा सकती।

वाल्मीकि के राम महाकवि भवभूति के राम की तरह पश्चाताप नहीं करते। यदि यह वृतान्त वाल्मीकि ने लिखा होता तो करुणा के कवि के राम भी उस पर पश्चाताप करते अथवा उस मृत बालक को जीवित करके शम्बूक को मारे बिना उसको अपना महत्व समझा देते। इस तरह भी शम्बूक को तमोगुणी साधना से उदासीन कर सतोगुणी मार्ग की ओर प्रेरित कर सकते थे।...किन्तु इससे उन ब्राह्मणों का लक्ष्य पूरा नहीं होता।

महाकवि भवभूति परम्परागत पौराणिक प्रसंग में पड़कर शम्बूक का वध तो करा देते हैं। किन्तु वध कराते समय उनके राम का हाथ काँपता है। यदि यह वाल्मीकीय रामायण का वास्तविक प्रसंग होता तो स्वाभाविक रूप से लिखा जाता।

महाकवि भवभूति अपने लेखन के प्रति सजग हैं। उनकी सीता वाल्मीकि की सीता की तरह धरती में नहीं समाती वल्कि मिलन होता है। ऐसे ही महाकवि भवभूति ने राम के द्वारा पश्चाताप शम्बूक वध का प्रायश्चित ही है। ऐसे प्रसंग सन्देह के घेरे में आते हैं और निसन्देह क्षेपक के रूप में स्वार्थ पूर्ति के लिये चिपकाये हुये होते हैं।

महाकवि तुलसीदास ने अपने साहित्य में इस प्रसंग की चर्चा कहीं नहीं की है।

अखिल भारतीय भवभूति समारोह में पधारे संस्कृत साहित्य के विद्वान डा0 वसन्त भट्ठ ने सन् 2007 में कहा था-‘‘राम शम्बूक वध मिथक है। इसका चतुर्थ एवं पंचम अंक ही सिथिल है। रधुवंश में महाकवि कालीदास ने इसको प्रस्तुत किया है। कथ्य अमनोबैज्ञानिक है। वशिष्ठजी की आज्ञा से कर्मफल की अवधारणा को व्यक्त करता हैं। गर्भवती सीता का निष्कासन करके राम खुद के पुत्र की जन्म के समय दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सके। उन्हीं राम को दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिये तपस्या करने वाले का वध करने जाना पड़ा। यह बात अस्वाभाविक लगती है।’’

डा0 वसन्त भट्ठ कहते हैं-‘‘ वाल्मीकि और भवभूति की कथा में अन्तर है। यह अन्तर ही सन्देह उत्पन्न करता हैं।

डा0 अम्वेडकर और पैरियार की वाल्मीकीय रामायण पर टीकायें अलग-अलग व्याख्या करतीं हैं। दोनों में कुछ समानतायें भी हैं। डा0 अम्वेडकर का जोर राम द्वारा शम्बूक की हत्या पर है जो कि इसलिये की गई थी कि शम्बूक ने नीच जातियों के सदस्यों के प्रायश्चित स्वरूप तपस्या करने पर प्रतिवन्ध का उलंघन किया था। महात्मा फुले की तरह डा0 अम्वेडकर ने भी वाली की हत्या करने के लिये राम की कड़ी निन्दा की है।

इस तरह यह कथा महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचित न होकर क्षेपक के रूप में जोड़ी गई है। महाकवि भवभूति एवं अन्य मनीषियों ने इस क्षेपक कथा का ही अनुकरण किया है।

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