चौराहे का बुत (व्यंग्य)
मै चौराहे का बुत बोल रहा हुँ। मै वही बुत या मूर्ति हुँ जिसे स्थापित करते समय भारी भीड़ आई थी । कुछ लोगों ने उस समय मेरे लिए बड़े-बड़े कसीदे गढ़े थे । आज मै अकेला खड़ा हुँ इसी चौराहे पर । लोग आस-पास से गुजर जाते ,मुझे अनदेखा करते हुए । कभी कुछ लोग आते है भीड़ के साथ और माला पहना जाते है । मै खड़ा रहता हुँ यहीं अकेला । जब शहर सो जाता है तब भी मै यहीं होता हुँ । तेज बारिश और तपती हुई धूप में भी मै यहीं खड़ा रहता हुँ । मेरे कई रूप हो सकते है मै गॉधी हो सकता हुॅ , मै अंबेडकर हो सकता हुँ और मै लेलिन भी हो सकता हुँ ।
मै कोई भी होउॅ , मेरा इस मूर्ति से पहले भी अस्तित्व था , जीता - जागता और विचारवान । मै जिस भी रूप में था विचारों के साथ था । यदि मै गॉधी था तो सत्य और अंहिसा के प्रयोग कर रहा था , यदि मै अंबेडकर था तो जातिप्रथा के विरोध में खड़ा था और यदि मै लेलिन था तो पूंजीवाद का विरोध कर रहा था । ये करने में मेरी सोच और विचार ही मेरे आगे- आगे चलते थे । विचार जिन्हें विचारों से ही हराया जा सकता है । विचार जो किसी व्यक्ति को इतना महान बना देता है कि लोग उसकी मूर्ति चौराहे पर स्थापित कर देते है ।
मैने कुछ सालों पहले सुना था कि तालिबान ने बुद्ध की मूर्ति को बम से उड़ा दिया । फिर सुनने में आया कि ईराक में सद्दाम के पतन के बाद उसके रूप में मुझे गिराया गया । अनेंक घटनाऐं इधर-उधर होती रही और लोग किसी न किसी रूप में मुझे तोड़ते रहे । इस देश में हम खुश थे क्योंकि यहॉ ऐसा कोई पागल ही कर सकता है । अब ऐसा लग रहा है हमारे यहॉ भी पागलपन बढ़ने लगा है । अब दिन में चारों ओर से लोग गुजरते है तो अच्छा लगता है लेकिन रात के अंधेरे में ड़र लगने लगता है । ड़र इस बात का कि रात के अंधेरे में कोई समूह अंधेरे से निकल कर आएगा और मुझे तोड़ देगा । मुझे अपने टूटने का ड़र बिलकुल भी नहीं है । मुझे ड़र इस बात का है कि कुछ लोग जो शायद मुझे दिखावे के लिए ही सही मुझसे जुड़े चेहरे के विचारों को मानते है की भावनाएॅ आहत हो जाऐंगी । फिर वो निकल पड़़ेंगे दूसरों की भावनाओं को आहत करने । ये सिलसिला कुछ मौतों और दंगों पर भी समाप्त हो सकता है । ये सब मुझसे जुड़े चेहरे के विचारों की पराजय है ।
मुझे ड़र लगता है कि मेरे विरोधी मुझे तोड़ कर विरोध जता सकते है । मुझे ड़र लगता है कि मेरे कुछ समर्थक भी मुझे तोड़ कर भीड़ जुटा सकते है । मुझे ड़र इसलिए भी लगता है कि विचारशून्यता के इस युग में अब मेरे विचार किताबों में बंद हो कर न रह जाऐं । वो किताब जो कभी पढ़ी नहीं जाती । वो किताब जो किसी अलमारी में बंद है और उस पर ताला पड़ा है । अब तो वो ताला भी जंग खाने लगा है । भीड़ के इस युग में विचारों से भी बड़ा वो है जो बड़ी भीड़ जुटा लेता है । इसी भीड़ को जुटाने के लिए कभी लोग मुझे बनाते है और कभी तोड़ते है । मुझे जीवन काल में गॉधी होने पर कभी अंग्रजों से ड़र नहीं लगा , अंबेडकर होने पर सवर्णों से भय नहीं लगा और सुभाष होने पर युद्ध से भय नहीं लगा । आज अपनों से भय लगता है, शांति काल में भय लगता है। मेरे अलग- अलग चेहरों में भी मतभेद थे परन्तु यदि वे समकालीन थे तो साथ-साथ काम भी करते रहे । आज जो लोग मूर्तियॉ तोड़ रहे है यदि वे मेरे चेहरे के समकालीन होते तो वे उन्हे जीवित भी न रहने देते , इस डर से वे न तब भागे और न आज भागने की स्थिति में है । हवा का रूख देख कर लगता है कि ये तो बस तालिबानी युग की शुरूआत भर है ।
आलोक मिश्रा"मनमौजी"