Manas Ke Ram - 28 books and stories free download online pdf in Hindi

मानस के राम (रामकथा) - 28






मानस के राम
भाग 28



रावण का सीता के पास आना

सीता अपने दुख में नज़रें झुकाए बैठी थीं। वह मन में सोच रही थीं कि आखिर उनसे क्या भूल हुई है जो विधाता उन्हें इस प्रकार दंडित कर रहे हैं। उन्होंने मन ही मन प्रार्थना की कि ईश्वर उन्हें उनके कष्टों से मुक्ति दें। राम उन्हें लेने के लिए जल्दी ही आ जाएं।
रावण ने अपने दल के साथ अशोक वाटिका में प्रवेश किया। अपने स्थान पर छिपे हुए हनुमान ने रावण को देखा। रावण की चाल में एक अहंकार था। उसका अहंकार उसके व्यक्तित्व को छोटा बना रहा था।
रावण के निकट आने पर सीता अपने विचारों से बाहर आईं। रावण की निकटता से सीता उसी प्रकार संकुचित हुईं जैसे एक लज्जावान स्त्री कामी पुरूष की निकटता से संकुचित होती है। उन्होंने वहाँ पड़े एक तृण को एक ढाल की तरह सामने कर रावण को अपनी सीमा में रहने का संकेत दिया।
रावण सीता को एक बार और मनाने का प्रयास करने के लिए आया था। उसकी दृष्टि सीता पर पड़ी। श्रंगार और आभूषणों से रहित, दुख से कमज़ोर पड़ चुकी सीता के रूप में अभी भी अद्भुत आकर्षण था। रावण को मन में पछतावा हुआ कि ‌क्यों अपने वनवासी पति के लिए सारे सुख और ऐश्वर्य का त्याग कर रही है। इस वाटिका में बैठी अपने इस अनुपम सौंदर्य को नष्ट कर रही है। उसने दंभ के साथ कहा,
"मेरे प्रस्ताव को ठुकरा कर तुम मूर्खता कर रही हो। मैं तुम्हें तीनों लोकों का सुख देना चाहता हूँ। तुम उस वनवासी के लिए खुद को कष्ट दे रही हो। ऐसा क्या है उस राम में ?"
सीता ने हाथ में पकड़े तृण को एक दीवार की भांति अपने और उसके बीच खड़ा कर रखा था। रावण की बात सुनकर उनके मुख पर एक वक्र मुस्कान आ गई। वह बोलीं,
"तू अपनी बराबरी मेरे स्वामी राम से कर रहा है। दुष्ट तू तो उनके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं है। तीनों लोकों के जिस सुख की तू बात कर रहा है वह मेरे ह्रदय में मेरे स्वामी के लिए जो प्रेम है उसकी बराबरी कभी नहीं कर सकता।"
सीता की बात सुनकर रावण खिसिया गया। क्रोध में बोला,
"मैं लंकापति रावण हूँ। चाहूँ तो बलपूर्वक तुम पर अधिकार कर सकता हूँ। पर मैं तुम्हारे साथ बल प्रयोग नहीं करना चाहता। इसलिए शांती से मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर लो।"
सीता ने भी क्रोध में कहा,
"तेरी इच्छा कभी भी पूरी नहीं होगी। मुझ पर बल प्रयोग का साहस ना करना। मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ। तू पतिव्रता स्त्री की शक्ति को नहीं जानता है। मुझे हाथ लगाने का प्रयास किया तो तू अपने विनाश को आमंत्रित करेगा। मेरे स्वामी राम तुझे तेरे कुकर्म का उचित दंड देंगे।"
रावण सीता की बात सुनकर ज़ोर से हंसा। वह बोला,
"मूर्ख स्त्री तुझे आशा है कि वह वनवासी अलंघ्य समुद्र को लांघ कर यहाँ आ पाएगा। यदि वह आ भी गया तो तुझे लंकापति रावण से छीन कर ले जाएगा। तेरा यह स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा।"
सीता ने अग्नेय नेत्रों से उसकी तरफ देखकर कहा,
"स्वप्न तो तू देख रहा है मुझे पाने का जो कभी पूरा होने वाला नहीं है। मेरे ह्रदय में तो अटूट विश्वास है कि मेरे स्वामी राम आएंगे। तुम्हें तुम्हारे पापों का दंड देकर मुझे ले जाएंगे।"
रावण सीता की बात सुनकर खिसिया गया। पर अपनी खिसियाहट को अट्टहास में छिपाकर बोला,
"देव दानव गंधर्व सभी मेरी सामर्थ्य का लोहा मानते हैं। तुम्हें लगता है कि वह साधारण मानव मेरे समक्ष टिक पाएगा। मेरे सामर्थ्य की आंधी में वह एक सूखे पत्ते की भांति उड़ जाएगा।"
सीता ने हंसते हुए कहा,
"क्यों व्यर्थ में मुझे पाने की चेष्ठा कर रहे हो।‌ जाओ और उस ऐश्वर्य को संभालो जो तुम्हें प्राप्त है। अपनी रानियों के बारे में सोचो। यहाँ समय नष्ट मत करो।"
रावण ने कहा,
"मैं भी तो वही कह रहा हूँ कि क्यों समय नष्ट कर रही हो ? मैं तुम्हें अपने समस्त ऐश्वर्य की स्वामिनी बनाना चाहता हूंँ। तुम हाँ कर दो तो मैं तुम्हें पटरानी बना दूँगा। मंदोदरी आदि सभी रानियां तुम्हारे आधीन होंगी।"
सीता ने क्रोध से रावण को देखकर कहा,
"तू जानता है मैं किस आदर्श कुल में जन्मी हूँ। किस महान कुल की मैं पुत्रवधू हूँ। मेरे बारे में सोचना छोड़। यदि गिद्ध उड़कर सूर्य के समीप जाने का स्वप्न देखे तो यह उसकी मूर्खता है। सूर्य का ताप सहने की उसमें सामर्थ्य नहीं होती है।"
सीता की बात सुनकर रावण को क्रोध आ गया। सीता ने आगे कहा,
"अगर तनिक भी विवेक बचा है तो अपने सर्वनाश को आमंत्रण मत दो। मेरे स्वामी राम से क्षमा मांग कर मुझे सम्मान के साथ उनके पास पहुँचा दो। इसी में तुम्हारी और तुम्हारे कुल की भलाई है।"
अग्नि में जो काम घी करता है वही काम सीता की अंतिम बात ने किया। रावण का क्रोध बढ़ गया। वह बोला,
"अभी तक तो मैं प्यार से तुम्हें समझाने का प्रयास कर रहा था। किंतु तुम एक मूर्ख हठी स्त्री हो। मैं तुम्हें दो माह का समय देता हूँ। तब तक मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लो अन्यथा मेरी कृपाण तुम्हारे प्राण ले लेगी। तुम राक्षसों का भोजन बन जाओगी।"
अपनी बात कहकर क्रोध में फुंफकारते हुए रावण ने अशोक वाटिका में पहरा देती राक्षसियओं को आदेश दिया कि वह सीता को विभिन्न प्रकार से डराएं धमकाएं जिससे वह उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लें। उसके बाद वह अपने दल के साथ चला गया।
रावण का आदेश पाकर राक्षसियों ने सीता को परेशान करना शुरू कर दिया। वह सीता को धमकी देती थीं कि वह रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर लें। अन्यथा उनके साथ अच्छा नहीं होगा। एक राक्षसी ने सीता को समझाते हुए कहा,
"कैसी मूर्ख हो तुम जो लंकापति रावण के प्रेम को ठुकरा रही हो। तुम कुल की बात करती हो। हमारे महाराज रावण ब्रह्मा के पुत्र ऋषि पुलस्त्य के पौत्र हैं। जिनके बल के आगे तीनों लोक कांपते हैं तुम उन्हें इस प्रकार दुत्कार रही थी। तुम्हें अपने प्राण प्रिय नहीं हैं क्या ?"
एक दूसरी पाली ने कहा,
"ऋषि विसर्वा के पुत्र महाराज रावण की तुम अनदेखी कर रही हो। तुम से अधिक भाग्यहीन स्त्री नहीं होगी। तुम्हारे सामने लंका की पटरानी बनने का प्रस्ताव है और तुम उसे ठुकरा रही हो। तनिक विचार करके देखो। जिस वनवासी के लिए तुम महाराज रावण का तिरस्कार कर रही हो वह तुम्हें क्या दे सकता है।"
इस प्रकार अलग-अलग राक्षसियां सीता को समझाने का प्रयास कर रही थीं। कभी वह उन्हें धन संपदा का लालच देतीं तो कभी मृत्युदंड का भय दिखातीं। किंतु सीता उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रही थीं। वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रही थीं कि उनकी सहायता करें।
इन राक्षसियों में त्रिजटा नाम की एक राक्षसी थी। उसे अन्य राक्षसियों द्वारा सीता को इस प्रकार कष्ट देना अच्छा नहीं लग रहा था। उसने उन सभी को डांटते हुए कहा,
"तुम सब क्यों इस प्रकार सीता को कष्ट दे रही हो। जाओ अपनी अपनी जगह जाकर पहरा दो।"
उसके बाद वह सीता के पास जाकर बैठ गई। प्यार से बोली,
"सीता तुम मेरी पुत्री के समान हो। तुम्हारा विश्वास सच्चा है। मैंने भी कल रात स्वप्न में देखा कि लंकापति रावण का उनके कुल समेत विनाश हो गया है। अतः तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो।"
राक्षसियों द्वारा निरंतर सताए जाने से सीता बहुत दुखी थीं। त्रिजटा की बात सुनकर उन्हें बहुत अच्छा लगा। उन्होंने कहा,
"आपने मेरे दुखी ह्रदय को बहुत सांत्वना दी है। अब मैं निश्चिंत होकर अपने स्वामी राम के आने की प्रतीक्षा करूंँगी।"

हनुमान की सीता से भेंट

अपने स्थान पर छुपे हनुमान यह सब देख रहे थे। वह सीता के दुख से दुखी थे। उन्होंने सीता का पता लगा लिया था। लेकिन वह सीता को इस बात की सूचना देना चाहते थे कि राम ने उनकी खोज के लिए उन्हें भेजा है। जिससे सीता को धैर्य हो सकें। यहाँ के कष्टों को इस आशा से सह सकें कि उनके दुखों का अंत करने के लिए राम आ रहे हैं।
हनुमान जानते थे कि सीता के विरह में राम का हृदय बहुत व्यथित है। इसलिए चाहते थे कि सीता से भेंट करके उनसे कोई संदेश या चिन्ह लिया जा सके। जिसे सुनकर या देखकर राम के हृदय की पीड़ा कम हो सके।
हनुमान मन में विचार कर रहे थे कि सीता के सामने वह किस रूप में जाएं जिससे वह घबरा ना जाएं। अपनी बात वह किस प्रकार से सीता को बताएं जिससे वह उन पर विश्वास कर सकें।
वह सोच रहे थे कि उन्हें बहुत सावधानी से काम लेना होगा। इस समय सीता की मनोदशा अच्छी नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि जब वह सीता के समक्ष जाएं तो वह उसे रावण का एक प्रपंच समझें। यदि ऐसा हुआ तो अफरा-तफरी मच जाएगी। राक्षसों को उनके आने का पता चल जाएगा। वह राक्षसों का संहार कर सकते हैं। किंतु ऐसा होने पर अपने मन की बात सही प्रकार से सीता तक नहीं पहुँचा पाएंगे।
वह उस उचित समय की प्रतीक्षा कर रहे थे जब वह सीता के सामने प्रकट हो सकें। उनके मन को तसल्ली देकर अपनी बात कह सकें।
सीता को त्रास देने के बाद सभी राक्षसियां अपने अपने स्थान पर जाकर पहरा दे रही थीं। वह यह सोचकर लापरवाह थीं कि यहाँ कौन सा शत्रु आ सकता है। वह सब आराम करने लगीं। सीता के पास कोई भी नहीं था। उचित अवसर जानकर हनुमान ने मद्धम स्वर में राम का नाम लेना आरंभ किया। राम का नाम सुनकर सीता सचेत हो गईं। हनुमान ने राम के चरित्र और गुणों का वर्णन गाना शुरू कर दिया। सीता बड़े ध्यान से सब सुन रही थीं। वह चकित थीं कि यहांँ राम का नाम लेने वाला कौन है ? कौन है जो उनके स्वामी राम के चरित्र और गुणों से परिचित है ? सीता कान लगाकर सारी बात सुनने लगीं।
हनुमान ने राम के राज्याभिषेक, उनके वनवास, पंचवटी में स्वर्ण मृग, सीता हरण आदि की कथा सुनाई।
सीता ने अपनी दृष्टि चारों तरफ देखा। आवाज़ की दिशा में उन्हें एक वानर के अतिरिक्त कोई और दिखाई नहीं दिया। उन्हें आश्चर्य हुआ कि क्या यह वानर ही रामकथा सुना रहा था। उनके भावों को समझ कर हनुमान नीचे उतरकर आए। हाथ जोड़कर बोले,
"माता मैं प्रभु राम का दूत हनुमान हूँ। आपकी खोज खबर लेने आया हूंँ। आप तनिक भी परेशान ना हों। कुछ ही दिनों में राम वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण करके आपको यहांँ से ले जाएंगे।"
हनुमान की बात सुनकर सीता को बहुत हर्ष हुआ। किंतु अभी भी वह पूरी तसल्ली करना चाहती थीं। उन्होंने कहा,
"मैं इन मायावी राक्षसों के बीच रह रही हूँ। अतः मुझे अभी भी कुछ संदेह है।‌ तुम मुझे कुछ और बातें बताओ जिससे मुझे पूरा विश्वास हो सके।"
हनुमान ने सीता के बताया कि किस तरह राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ उनकी खोज में भटकते हुए किष्किंधा पहुंँचे। किष्किंधा नरेश सुग्रीव की सहायता से उन्होंने वानरों के दल विभिन्न दिशाओं में उनकी खोज के लिए भेजे। किस तरह हनुमान समुद्र लांघकर लंका तक आए हैं। सारी कथा कहने के बाद हनुमान ने राम द्वारा दी गई मुद्रिका सीता को दी।
अब तक सीता को यह संदेह हो रहा था कि यह भी रावण का कोई षड्यंत्र हो सकता है। किंतु राम की मुद्रिका देखकर उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह कोई राम का भेजा हुआ दूत है।

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