इमली की चटनी में गुड़ की मिठास - 8 Shivani Jaipur द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इमली की चटनी में गुड़ की मिठास - 8

भाग-8

मौसम अपनी रफ्तार से बदलने लगा। किरण अब स्कूल जाती थी और मम्मा का इंतज़ार करती थी। हर कोई परिवार को शालिनी जैसी बहू के लिए बधाई देता था

पर शालिनी अपनी किस्मत के लिए क्या कहे? हालांकि शालिनी ने अभी तक चन्द्रेश को हाँ नही कहा था! पर दोनों की आँखें जानती थीं कि इसकी अब ज़रूरत भी नहीं!हर चढ़ते दिन के साथ ही दोनों का लगाव अपनी रफ़्तार से बढ़ता जा रहा था! पर साथ ही एक अपराध बोध भी उसके भीतर सिर उठाने लगता था! लेकिन वो अपने तर्कों से उस पर विजय पाने का प्रयास करती! वो भी अपनी उन व्यक्तिगत खुशियों को जीना चाहती थी जिन्हें कभी जी ही नहीं पाई थी!उन पलों को जीना चाहती थी जिसके सपने उसकी कुँआरी आंखों ने सजाए थे और शादीशुदा आँखों ने आँसुओं में बहा दिए थे... जिन्हें वो रवि के साथ नहीं जी पाई थी, उन्हें चन्द्रेश के साथ जीने का सपना आँखों में पलने लगा था।

उसका कुसूर क्या था? रवि जैसे पति को नियति मानकर जी ही रही थी ना!पर अब जब रवि नहीं है तो चन्द्रेश क्यों नहीं दे सकता वो खुशियाँ? वो हर वक्त सोचती रहती कि सास-ससुर को, मैना को, किसे कहे मन की बात?कौन समझेगा? बढ़ती हुई उलझनों से मुक्त होने के लिए वो कुछ दिन का अवकाश लेकर किरण को लेकर हिल स्टेशन घूमने चली गई! फिर वहां से सीधे पीहर आ गयी थी!

"मम्मा मम्मा ....."

किरण की आवाज़ ने विचारों की तंद्रा तोड़ी! भूतकाल से वर्तमान में लौटते हुए "आती हूं" कहकर वो छत से नीचे चली आई। हाॅल में चन्द्रेश को देखकर ठिठक गयी। "तुम यहाँ?"

"हाँ!नहीं आ सकता क्या?" अपने चिरपरिचित अंदाज़ में चन्द्रेश ने ठहाका लगाया "वापस आ कर आपने खबर ही नहीं की, तो मैं ही खबर लेने चला आया!"

"वो मैं बस फोन करने ही वाली थी!" शालिनी के पास बंगले झांकने के सिवा कुछ कहने को नहीं था! जिसकी तरफ दिल खिंचा जा रहा था,जिसकी वजह से मन अपराध बोध से मरा जा रहा था और जिससे बचने के लिए वो छुट्टी पर गई थी,वो यूं अचानक उसी के घर आ धमका! न जाने कितनी देर से आया हुआ था! घर में सब से घुल-मिल गया था वो। तभी किरण ने उसका हाथ पकड़ कर कहा "चलिए आपको दादू से मिलवाऊं!" और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना चन्द्रेश को लेकर चल दी। शालिनी को भी पीछे-पीछे जाना ही था। उसने जल्दी से चेंज किया और ससुराल चली आई। उसने देखा इतनी देर में तो वहाँ चन्द्रेश ने महफिल जमा रखी थी। मैना भी पतिदेव के साथ वहाँ थी और सबके सब अदरक वाली चाय, पकौड़े और चन्द्रेश की बातों का आनन्द उठा रहे थे। शालिनी पहुँची तो मैना उठकर उससे लिपट गई "भाभी इनसे पहले क्यों नहीं मिलवाया? भई मज़े आ गये। बहुत अच्छे हैं ये!" फिर मुड़कर बोली "अब आते रहना भैया और हमें भी बुला लेना जब आओ।"

"बिल्कुल छुटकी!" चन्द्रेश ने कहा तो शालिनी हैरान रह गयी। एक मुलाकात में कोई इतना अपना कैसे बन सकता है! मैना को कभी किसी ने इस तरह छुटकी कहकर नहीं बुलाया था! सुलोचना जी और उनके पति, जिन्हें सब आर के साहब कहते थे,वे दोनों भी चन्द्रेश के साथ ऐसे घुल-मिल कर बातें कर रहे थे जैसे बरसों से एक दूसरे को जानते हों! और किरण तो इस पहली मुलाक़ात में ही फैन हो चुकी थी। अपनी सारी ड्रॉइंग बुक्स लेकर किरण ने चन्द्रेश के सामने प्रदर्शनी लगा रखी थी! और चन्द्रेश भी बिल्कुल बुद्धू बनकर उसकी बातें सुन रहा था।

कभी उसे गोद में बिठाता, कभी उसके साथ धरती पर बैठकर सामान समेटता!

शालिनी मैना से बात करते हुए बीच बीच में उधर ही देखे जा रही थी। मैना से ये बात छिपी नहीं रह सकी। "भाभी आप थकी हुई लग रही हो! आप वहाँ सबके साथ बैठो मैं आपके लिए भी चाय बना लाती हूँ।"

शालिनी ने भी मना नहीं किया। वो सचमुच थकी हुई महसूस कर रही थी। एक तो मन की उलझनें और दूसरे बारिश में भी भीगी थी! तो बैठकर चाय पीने का तो मन था ही। वहीं किरण के पास आ गई।

"मम्मा! अंकल मेरी ड्राइंग की एग्ज़ीबिशन लगाएंगे! देखो मुझे और खूब सारी बनानी होंगी। आप मार्केट चलकर सब सामान दिलवाओगे ना!" नन्हीं किरण उत्साह से भरी हुई थी।

"मम्मा को कुछ नहीं पता ड्रॉइंग के बारे में! हमारे साथ चलेगी बिट्टो! हम दिलाएंगे सब सामान!" चन्द्रेश ने किरण को समझाया।

"बिट्टो!" शालिनी ने मन ही मन दोहराया! उसका जी चाहा आगे बढ़कर चन्द्रेश को गले लगा ले।

सबके चेहरे की खुशी और चमक बता रही थी कि इतनी बेतकल्लुफी से चन्द्रेश का सबसे बात करना और सबको अपना बना लेना सबको बहुत पसंद आया था।

वक्त गुज़रता जा रहा था। चन्द्रेश अब चन्दू बेटा,चन्दू भैया और चन्दू अंकल हो गया था। अक्सर वो घर चला आता और घर परिवार की बहुत सारी ज़िम्मेदारियाँ ज़बरदस्ती अपने कंधे पर डाल लेता! रवि के माता-पिता मना करते तो मुंह फुलाए कहता "रवि होते तब भी ये सब आप ही करते क्या? मैं उनकी जगह तो नहीं ले सकता पर पास खड़े होने लायक तो हूं ना!" उसका अधिकार जताने का ये तरीका न केवल दोनों बुजुर्गों को चुप करा देता था बल्कि माहौल में भी अपनापन घोल देता था! जब भी आता मैना को खबर ज़रूर करता।वो भी आ जाती और सूने घर में रौनक सी लग जाती।

तब एक दिन.....

किस्मत फिर बदलाव लाने पर तुल गयी। पर इस बार जो हुआ वो कल्पना से परे था!

शालिनी के सास-ससुर की अनुभवी आंखों से न रवि के साथ रहकर पत्थर होती जा रही शालिनी छुप सकी थी और ना ही चन्द्रेश के साथ से फिर से वही खुश मिजाज़ होती जा रही शालिनी छुप सकी!

दोनों अक्सर ही शालिनी से चंद्रेश की बात करते और अचानक ही उसकी आंखों में आई पल भर की चमक को समझने की कोशिश करते। आखिरकार उन्हें सब समझ आ गया और उन्होंने मैना और कंवर साहब से मिलकर एक कठिन निर्णय लिया।

क्रमशः