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इमली की चटनी में गुड़ की मिठास - 1

भाग-1

बहुत देर से शालिनी छत पर खड़ी बारिश में भीग रही थी!

कहने को तो बूंदें तन पर पड़ रही थीं पर भीग उसका मन भी रहा था जहां एक अनजानी सी ज्वाला लपलपाते हुए उसके मन को अनजाने ही झुलसा रही थी! बरसती बूंदों से जब उसके भीतर की तपन ठंडी पड़ने लगी तब वो दुछत्ती के नीचे आ गयी, जहाँ से तीसरे मकान की बड़ी और ऊंची छत आसानी से दिखाई दे रही थी। आसपास की दूसरी छोटी-छोटी छतों के बीच वो छत ऐसे खड़ी थी जैसे बच्चों के बीच एक सुंदर सी नवयुवती अपना आंचल फैलाए खड़ी हो!उसी छत के नीचे शालिनी का ससुराल था!उधर देखते देखते शालिनी विचार-वीथिका में विचरण करने लगी!

"आज वहाँ आलू-प्याज के पकौड़े बने होंगे या नहीं? चाय में अदरक तो ज़रूर डली होगी इस मौसम में!" मुँह में अदरक का मनपसंद कसैला-सा स्वाद घुल गया।

उसकी शादी से पहले अदरक के कसैले स्वाद वाली चाय वहां किसी को भी पसन्द नहीं थी। पर अब वहाँ भी सब दीवाने थे अदरक वाली चाय के! इने-गिने चार लोगों के छोटे से परिवार के लिए वो घर हालाँकि बहुत बड़ा था पर फिर भी छोटा पड़ता था! क्योंकि हर वक्त कोई-न-कोई मेहमान आए रहते थे!उसकी सास, सुलोचना जी बहुत ही शानदार व्यक्तित्व की स्वामिनी और उच्च कोटि की मेज़बान थीं! सुलोचना जी की सास तो अपने छोटे-छोटे पांच बच्चों को छोड़कर बहुत कम उम्र में ही गुज़र गईं थीं। गाँव में ही सबसे बड़ी बहन और चाची-ताई ने मिलकर सब भाई-बहनों को बड़ा किया, पढ़ने शहर भेजा और सबके शादी-ब्याह किए। इसलिए सब भाई-बहन उनके प्रति हमेशा कृतज्ञतापूर्वक विनम्र रहते थे और अपनी-अपनी ज़िन्दगी में व्यवस्थित होने के बाद, दूर रहते हुए भी सबको साथ लेकर चल रहे थे! शादी के बाद सुलोचना जी ने भी पूरे परिवार को उतने ही आदर और प्रेम से अपनाया और थोड़े ही समय में सबकी प्रिय हो गई थीं। आए दिन किसी न किसी परिजन का उनके यहां आना-जाना लगा रहता था। कोई शहर काम से आता था तो कोई यूं ही मिलने! तो किसी को सुलोचना जी ने ही बुलवाया होता था मिलने मिलाने! कभी कभी वो खुद भी पति और बच्चों को लेकर कुछ दिनों के लिए गाँव चली जाती थीं सबसे मिलने-जुलने! इसलिए बच्चों का भी सबसे बहुत जुड़ाव था।

सुलोचना जी का मानना था कि अपनी जड़ों से,यानि गाँव और परिवार से जुड़े हुए लोग जीवन में अधिक सुखी होते हैं क्योंकि कठिन समय में उनके साथ देने के लिए पूरा का पूरा गाँव और परिवार होता है तो हिम्मत बंधी रहती है और कठिन समय भी आसानी से गुजर जाता है।

सुलोचना जी अपने बेटे रवि के लिए भी एसी ही पारिवारिक लड़की चाहती थीं जो संयुक्त परिवार की महत्ता को समझे और स्वीकार करे! जिसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में गाँव भी महत्वपूर्ण भूमिका में हो!ताकि पूरे परिवार, पूरे कुनबे की बरसों से सिंचित ये नेह-बेल यूं ही फलती-फूलती रहे!

सुलोचना जी के परिवार से शालिनी की बचपन से ही बहुत बनती थी। बहुत अच्छे पड़ोसी होने के नाते दोनों परिवारों में अच्छी उठ-बैठ भी थी! दोनों घरों के बच्चों को साथ खेलते देखकर ही सुलोचना जी खिल उठती थीं। शालिनी का परिवार भी रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में गाँव से शहर में बस जाने वाले उन लोगों में से था जो शहर में रहकर भी गाँव के ही कहलाना पसंद करते थे। गाँव से उनका जुड़ाव सुलोचना जी से छुपा हुआ नहीं था!

अक्सर आसपास के कुछ बच्चे उनके आँगन में खेलते रहते थे और वो अपना कुछ काम करते हुए उन्हें देखती रहती थीं। खेल-खेल में जब कभी लड़ाई-झगड़ा हो जाता था तो वहीं बैठे-बैठे वो सुलझाने का काम भी करती थीं। रवि को हमेशा शिकायत रहती थी कि वो लड़कियों की तरफदारी करती हैं और लड़कों को पसंद नहीं करतीं। सुलोचना जी रवि के इस आरोप को रद्द करते हुए खूब हँसतीं और सबको कुछ खाने-पीने को देकर सारी लड़ाई भुलवा देतीं।

सब बच्चों में शालिनी उन्हें विशेष प्रिय थी। शालिनी की भावपूर्ण आँखें और सरस-सरल मुस्कराहट सुलोचना जी को बहुत मोहती थी। ऐसे ही मोह के किसी अनजान पल में न जाने कब कैसे उनकी आंखों में एक सपना पलने लगा... शालिनी को बहू के रूप में सदा के लिए घर ले आने का!

नाते-रिश्तेदारों में सास-बहू के मन-मुटाव के किस्से सुनकर उनका दिल बहुत घबराता था! इसलिए वो जाने पहचाने घर में रिश्ता करना चाहती थीं। शालिनी के यहां अक्सर ही उनका आना-जाना लगा रहता था। बहुत सोचकर एक दिन सुलोचना जी ने,जब शालिनी लगभग बारह-पंद्रह साल की ही रही होगी, बातों बातों में कह ही दिया "हमारे रवि के लिए मुझे आपकी शालिनी बहुत उपयुक्त लगती है शीला! आप लोग भी विचार करिएगा इस बारे में!"

"कहाँ आप लोग और कहाँ हम? रिश्ते तो बराबर हैसियत वालों में ही करने चाहिए।" शालिनी की माँ, शीला कुछ आश्चर्यजनक संशय में थीं।

"आप भी कहाँ ये हैसियत-वैसियत की बात लेकर बैठ गईं! पैसा कब किसके पास ठहरता है! आज हमारे पास है कल आपके पास हमसे भी ज्यादा हो सकता है! मन और संस्कार मिलने चाहिए! तब टिकते हैं रिश्ते!" सुलोचना जी ने चाय खत्म करते हुए बात पूरी की।

"हाँ बात तो सही है आपकी! पर अभी बच्चे बहुत छोटे हैं! कौन जाने बड़े हो कर कौन कैसा निकले? किसको क्या पसंद हो?" शालिनी की माँ के मन में उधेड़बुन चल रही थी। तीन बच्चों में सबसे छोटी थी शालिनी! बड़े भाई-बहन की लाडली! उसकी शादी के ज़िक्र से ही मन कच्चा कच्चा हुआ जा रहा था उनका!

"रवि का लक्ष्य तो तय है! उसे आई ए एस अफसर बनना है! अभी से बहुत फोकस्ड है जबकि अभी तो दसवीं में ही है। शालिनी भी पढ़ने में होशियार है! उसने क्या सोचा है कुछ अपने भविष्य के बारे में?"

"आठवीं में पढ़ती है भाभी जी! अभी तो कुछ नहीं सोचती। खेलने कूदने में लगी रहती है। पर होशियार इतनी है कि जाने कब कैसे पढ़ाई-लिखाई करती है कि अभी तक तो टॉप ही कर रही है कक्षा में!"

"वही तो कह रही हूं! उसके मन में भी पढ़-लिखकर कुछ बनने की लगन लग जानी चाहिए अब! तभी तो फोकस्ड हो पाएगी। मैं तो कहती हूं कि आई ए एस अफसर बनने की सोचे तो एक तो रवि गाइड कर देगा और दूसरे जोड़ी भी गजब की होगी!"

"मतलब अगर आई ए एस अफसर नहीं बने शालिनी, तो जोड़ी गजब की नहीं होगी?" उसकी माँ ने सुलोचना जी की बात पकड़ते हुए अचरज व्यक्त किया।

"अरे मेरा ये मतलब नहीं था शीला! तुम हाँ कह दो तो मैं वादा करती हूं कि शालिनी जो भी पढ़ना लिखना चाहे,पढ़े। इससे उसके प्रति मेरे लगाव में कोई अंतर नहीं आएगा। तुम घर में बात करना और सबकी हाँ हो तो मैं शगुन भी दे दूंगी।" सुलोचना जी हर हाल में अपनी राय से सहमति चाहती थीं।

"ठीक है भाभी जी! घर परिवार में बात करके, बड़ों की राय से जो भी तय होगा मैं आपको बताती हूं।"

"जल्दी देना खुशखबरी!" हँसते हुए सुलोचना जी ने शालिनी के घर से विदा ली।

शालिनी का परिवार हैसियत में उनसे कुछ पीछे था सो वहां थोड़ा संकोच रहा पर काफ़ी कोशिश करके सुलोचना जी ने सबको विश्वास में लेकर हाँ करवा ही ली!और एक दिन शुभ अवसर पर उसे शगुन देकर रिश्ता पक्का भी करवा लिया।

क्रमशः:

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